ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 36/ मन्त्र 4
ग्रावा॒ वद॒न्नप॒ रक्षां॑सि सेधतु दु॒ष्ष्वप्न्यं॒ निॠ॑तिं॒ विश्व॑म॒त्रिण॑म् । आ॒दि॒त्यं शर्म॑ म॒रुता॑मशीमहि॒ तद्दे॒वाना॒मवो॑ अ॒द्या वृ॑णीमहे ॥
स्वर सहित पद पाठग्रावा॑ । वद॑न् । अप॑ । रक्षां॑सि । से॒ध॒तु॒ । दुः॒ऽस्वप्न्य॑म् । निःऽऋ॑तिम् । विश्व॑म् । अ॒त्रिण॑म् । आ॒दि॒त्यम् । शर्म॑ । म॒रुता॑म् । अ॒शी॒म॒हि॒ । तत् । दे॒वाना॑म् । अवः॑ । अ॒द्य । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ग्रावा वदन्नप रक्षांसि सेधतु दुष्ष्वप्न्यं निॠतिं विश्वमत्रिणम् । आदित्यं शर्म मरुतामशीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठग्रावा । वदन् । अप । रक्षांसि । सेधतु । दुःऽस्वप्न्यम् । निःऽऋतिम् । विश्वम् । अत्रिणम् । आदित्यम् । शर्म । मरुताम् । अशीमहि । तत् । देवानाम् । अवः । अद्य । वृणीमहे ॥ १०.३६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 36; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ग्रावा वदन्) विद्वान् उपदेश करता हुआ (रक्षांसि) जिनसे रक्षा करनी चाहिये, ऐसी बाधक वस्तुओं (दुःस्वप्न्यम्) सोते हुए होनेवाले आलस्यादि (निर्ऋतिम्) मृत्यु की भयभीतता (विश्वम्-अत्रिणम्) सारे अन्तःकरण के भक्षक शोकादि को (अपसेधतु) दूर करे-दूर करता है (मरुताम्-आदित्यं शर्म-अशीमहि) जीवन्मुक्तों के अखण्डनीय सुख या शरण को प्राप्त हों। आगे पूर्ववत् ॥४॥
भावार्थ
विद्वान् उपदेशक अपने उपदेश द्वारा लोगों के बाधक वस्तु, शयनकाल में प्राप्त आलस्य आदि और जाग्रत् में मृत्यु भय और शोक को दूर करता है-हटाता है। इस प्रकार उन ऊँचे जीवन्मुक्तों की सुखशरण लेनी चाहिए ॥४॥
विषय
आचार्योपदेश से रक्षः निराकरण
पदार्थ
[१] (ग्रावा) = ज्ञानी प्रभु-भक्त गुरु [गृ-शब्दे विद्वांसो हि ग्रावाणः श० ३।९।३ । १४] (वदन्) = उपदेश देता हुआ (रक्षांसि) = राक्षसी वृत्तियों को (अपसेधतु) = दूर करे। यह आचार्य सदुपदेश द्वारा (दुष्ष्वप्न्यम्) = बुरे स्वप्नों की कारणभूत वृत्तियों को दूर करे। (निरृतिम्) = दुराचरण को दूर करे और (विश्वम्) = सब (अत्रिणम्) = [अद्भक्षणे] स्वयं खा झाने की वृत्तियों को दूर करे। अपने मुँह में ही आहुति देनेवाले तो असुर होते हैं, आचार्य हंम से इस आसुरवृत्ति को दूर विनष्ट करनेवाले हो । [२] आचार्य के उपदेश के प्रभाव से ही हम (मरुताम्) = प्राणों के (आदित्यम्) = सब अच्छाइयों का आदान करनेवाले (शर्म) = सुख को (अशीमहि) = प्राप्त करें । 'आदित्य शर्म' वह है जो बुराइयों को छोड़ने व अच्छाइयों के ग्रहण करने से उत्पन्न होता है। आचार्य का उपदेश हमें दुरितों से दूर व सुवितों के समीप करके इस योग्य बनाता है कि जीवन में सुख को प्राप्त करनेवाले हों । प्राणसाधना से इस 'आदित्य शर्म' की प्राप्ति में सहायता मिलती है । वास्तविकता तो यह है कि प्राणसाधना से ही सब दोषों का दहन होता है। [३] इस प्रकार दोषों का दहन करके (अद्या) = आज हम (देवानाम्) = देवों के (तद् अवः) = उस रक्षण को (वृणीमहे) = वरते हैं, अर्थात् हम दिव्यता को अपने अन्दर धारण करनेवाले बनते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ-आचार्य का उपदेश हमारे जीवनों से अशुभवृत्तियों को दूर करे प्राणसाधना के द्वारा दोषदहन से अच्छाइयों का ग्रहण करते हुए हम सुखी हों।
विषय
उपदेष्टा ज्ञानी और प्रबल क्षत्रिय दुष्टों के नाश और उत्तम सुख की प्रार्थना।
भावार्थ
(वदन्) आज्ञा और उपदेश देता हुआ, (ग्रावा) पत्थर के समान शत्रुओं को चूर्ण कर देने वाला क्षत्रिय और उत्तम उपदेष्टा विद्वान् पुरुष (रक्षांसि) विघ्नों और सन्मार्ग के बाधक दुष्ट पुरुषों को (अप सेतु) दूर करे। वह (दुः-स्वप्न्यं) दुःखकारक शयन, (निर्ऋतिम्) पीड़ा, क्षुधा, अकाल आदि और (विश्वम् अत्रिणम्) सब प्रकार के प्रजाओं के भक्षक दुष्ट जनों को (अप सेधतु) दूर करे। हम लोग (आदित्यं) ‘अदिति’ अर्थात् सूर्य भूमि, माता पिता, पुत्र, राजा आदि से प्राप्त होने योग्य (मरुतां शर्म) विद्वान् जनों के सुख को (अशीमहि) प्राप्त करें। हम (देवानां तत्) विद्वान् जनों और दिव्य पदार्थों के उस (अवः) प्रेम, ज्ञान, और बल रक्षा आदि को (वृणीमहे) सदा चाहें, सदा प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:– १, २, ४, ६–८, ११ निचृज्जगती। ३ विराड् जगती। ५, ९, १० जगती। १२ पादनिचृज्जगती। १३ त्रिष्टुप्। १४ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ग्रावा वदन्) विद्वान् “विद्वांसो हि ग्रावाणः” [श० ३।९।३।१४] उपदिशन् सन् (रक्षांसि) येभ्यो रक्षन्ति तानि बाधकानि भूतानि (दुःस्वप्न्यम्) शयनकाले प्राप्तानि खल्वालस्यादीनि (निर्ऋतिम्) मृत्युभीतिम् (विश्वम्-अत्रिणम्) सकलमन्तःस्थलम्य भक्षकं शोकादिकम् (अपसेधतु) दूरीकरोतु (मरुताम्-आदित्यं शर्म-अशीमहि) जीवन्मुक्तानाम् “मरुतो हि देवविशः” [कौ० ७।८] खल्वखण्डनीयं शरणं सुखं वा प्राप्नुयाम (तद्देवा०) अग्रे पूर्ववत् ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the thundering voice of wise sages keep off all destructive forces, evil dreams, want, adversity and fear of death, and all voracious elements of society. May we obtain the protection, peace and enlightenment of the leading lights and stormy troops of society. This is the shelter and protection we now pray for, of our own choice, from the divinities.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान उपदेशक आपल्या उपदेशाद्वारे लोकांच्या बाधक वस्तू शयनकालातील आळस इत्यादी व जागृत असताना मृत्यूचे भय व शोक दूर करतो. त्यामुळे उच्च जीवनमुक्तांना शरण गेले पाहिजे. ॥४॥
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