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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 36/ मन्त्र 6
    ऋषिः - लुशो धानाकः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    दि॒वि॒स्पृशं॑ य॒ज्ञम॒स्माक॑मश्विना जी॒राध्व॑रं कृणुतं सु॒म्नमि॒ष्टये॑ । प्रा॒चीन॑रश्मि॒माहु॑तं घृ॒तेन॒ तद्दे॒वाना॒मवो॑ अ॒द्या वृ॑णीमहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वि॒ऽस्पृश॑म् । य॒ज्ञम् । अ॒स्माक॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । जी॒रऽअ॑ध्वरम् । कृ॒णु॒त॒म् । सु॒म्नम् । इ॒ष्टये॑ । प्रा॒चीन॑ऽरश्मिम् । आऽहु॑तम् । घृ॒तेन॑ । तत् । दे॒वाना॑म् । अवः॑ । अ॒द्य । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिविस्पृशं यज्ञमस्माकमश्विना जीराध्वरं कृणुतं सुम्नमिष्टये । प्राचीनरश्मिमाहुतं घृतेन तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिविऽस्पृशम् । यज्ञम् । अस्माकम् । अश्विना । जीरऽअध्वरम् । कृणुतम् । सुम्नम् । इष्टये । प्राचीनऽरश्मिम् । आऽहुतम् । घृतेन । तत् । देवानाम् । अवः । अद्य । वृणीमहे ॥ १०.३६.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 36; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अश्विना) हे अध्यापक और उपदेशक जनों ! दिनरात (जीराध्वरम्) प्रगति मार्गवाले विद्यामय मार्गवाले (दिविस्पृशम्) प्रकाशमय परमात्मा में सुखस्पर्श करानेवाले (अस्माकं यज्ञं सुम्नम्-इष्टये कृणुतम्) हमारे अध्यात्मयज्ञ को अच्छा बनाओ (घृतेन-आहुतं प्राचीनरश्मिम्) ज्ञानमय तेज से सम्पन्न को परमात्मा की ओर प्रवृत्त करो (तद्देवा०) आगे अर्थ पूर्ववत् है ॥६॥

    भावार्थ

    अध्यापक और उपदेशक तथा दिन और रात प्रगति मार्गवाले या विद्यामय मार्गवाले परमात्मसम्बन्धी सुख पहुँचानेवाले अध्यात्मयज्ञ को कल्याण के लिये सम्पन्न करें, जिससे परमात्मा का साक्षात्कार हो सके ॥६॥

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    विषय

    यज्ञाग्नि व सूर्य किरणें

    पदार्थ

    [१] हे अश्विना प्राणापानो! (अस्माकम्) = हमारे (दिविस्पृशम्) = द्युलोक में स्पर्श करनेवाले 'अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यन् आदित्यमुपतिष्ठते' (यज्ञम्) = यज्ञ को (जीराध्वरम्) = रोग- कृमियों के जीर्ण करनेवाला तथा हमारे जीवनों को अहिंसित करनेवाला और इस प्रकार (सुम्नम्) = सुख को देनेवाला (कृणुतम्) = करिये। यह यज्ञ इष्टये हमारे इष्ट की प्राप्ति के लिये हो, अभिलषित सिद्धि के लिये हो । [२] हम अपने जीवनों में यज्ञों को करनेवाले हों। हमारी प्राणापान शक्ति यज्ञादि उत्तम कर्मों में ही विनियुक्त हो। ये हमारे प्राणापान (घृतेन) = घृत से (आहुतम्) = आहुति दिये गये इस अग्नि को (प्राचीनरश्मिम्) = रश्मियों के अभिमुख जानेवाला करें। वस्तुतः सूर्योदय के समय किया गया यह अग्निहोत्र सम्पूर्ण वायुमण्डल के शोधन के लिये होता है। [३] इस प्रकार यज्ञों को करते हुए हम (देवानाम्) = देवों के (तद् अवः) = उस रक्षण को (अद्या) = आज (वृणीमहे) = वरते हैं । यज्ञों के द्वारा दिव्यता का अपने में वर्धन करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारी प्राणशक्ति यज्ञों में विनियुक्त हो । यज्ञ रोग-कृमियों के संहार व हमारे जीवनों की अहिंसा के लिये हों । यज्ञाग्नि व सूर्य- रश्मियों मिलकर वायुमण्डल के शोधक हों ।

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    विषय

    तेजस्वी, उत्तम स्त्री-पुरुषों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (अश्विना) विद्या को प्राप्त करने वाले, सन्मार्ग पर चलने वाले और जितेन्द्रिय, उत्तम वेगवान् अश्वों के स्वामिवत् स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (अस्माकम्) हमारे (इष्टये) इष्ट लाभ, इच्छापूर्ति और यज्ञादि की सफलता के लिये (यज्ञं) दान, सत्संग, पूजा, अर्चनादि को (दिविस्पृशम्) ज्ञानमय वा उत्तम कामनामय मार्ग में जाने वाला, और (जीराध्वरं) जीवनधारी प्राणियों को नाश न करने वाला और (सुम्नं) सुखदायक (कृणुतम्) करो और (प्राचीन-रश्मिम्) आगे बढ़ने वाले रश्मियों से युक्त अग्नि को (घृतेन) घृत से (आहुतम् कृणुतम्) आहुतियुक्त करो। (२) परमेश्वर पक्ष में—(दिवि-स्पृशं) तेज, ज्ञान में व्याप्त, (यज्ञं) सर्वपूज्य, (जीराध्वरं) सब जीवों के पोलक (सुम्नं) सुखमय, (प्राचीन-रश्मिम्) प्रकट रश्मियों से युक्त, अग्नि, सूर्यवत् तेजस्वी, (घृतेन आहुतं) तेज से व्यास प्रभु का (अस्माकम् इष्टये कृणुतम्) हमारी देवपूजा के लिये हमें उपदेश करो। हम (तद् देवानां अवः अद्य वृणीमहे) देवों, विद्वानों के उस ज्ञान को प्राप्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:– १, २, ४, ६–८, ११ निचृज्जगती। ३ विराड् जगती। ५, ९, १० जगती। १२ पादनिचृज्जगती। १३ त्रिष्टुप्। १४ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अश्विना) हे अध्यापकोपदेशकौ ! “अश्विना अध्यापकोपदेशकौ” [ऋ० ५।७८।३ दयानन्दः] यद्वा-अहोरात्रौ “अश्विनौ-अहोरात्रावित्येके” [निरु० १२।१] युवाम् (जीराध्वरम्) प्रगतिमार्गवन्तम् विद्यामयमार्गवन्तम् “जीरं विद्यावन्तम्” [ऋ० १।४।११ दयानन्दः] (दिविस्पृशम्) येन दिवि द्योतनस्वरूपे परमात्मनि सुखं स्पृशन्तम् “दिविस्पृशः यो दिवि परमात्मनि सुखं स्पृशति [ऋ० ५।१३।२ दयानन्दः] तथाभूतम् (अस्माकं यज्ञं सुम्नम्-इष्टये कृणुतम्) अस्माकं खल्वध्यात्मयज्ञं साधुं “सुम्ने मा धत्तामिति………साधौ मा धत्तामित्येवैतदाह” [श० १।८।३।२७] अभीष्टसिद्धये कुरुतम् (घृतेन-आहुतं प्राचीनरश्मिम्) ज्ञानमयेन तेजसा “तेजो वै घृतम्” [मै० १।६।८] समन्तात् सम्पादितं परमात्माभिमुखप्रवृत्तिमन्तं कुरुतामिति शेषः (तद्देवा०) अग्रे पूर्ववत् ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the Ashvins, complementary fire and wind, refine and energise our yajna of love and non-violence, fed on ghrta, rising in high flames as ever before, and may they raise it to the regions of the sun to bring us peace and joy for the fulfilment of our aspirations. This is the favour and protection of the divinities we pray for today.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अध्यापक व उपदेशक आणि दिवस व रात्र प्रगती करणारे किंवा विद्यायुक्त मार्गाने जाणारे परमेश्वरासंबंधी सुख देणारे आहेत. त्यांनी कल्याणासाठी अध्यात्मयज्ञ संपन्न करावा. ज्यामुळे परमेश्वराचा साक्षात्कार व्हावा. ॥६॥

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