ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 36/ मन्त्र 3
विश्व॑स्मान्नो॒ अदि॑तिः पा॒त्वंह॑सो मा॒ता मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य रे॒वत॑: । स्व॑र्व॒ज्ज्योति॑रवृ॒कं न॑शीमहि॒ तद्दे॒वाना॒मवो॑ अ॒द्या वृ॑णीमहे ॥
स्वर सहित पद पाठविश्व॑स्मात् । नः॒ । अदि॑तिः । पा॒तु॒ । अंह॑सः । मा॒ता । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । रे॒वतः॑ । स्वः॑ऽवत् । ज्योतिः॑ । अ॒वृ॒कम् । न॒शी॒म॒हि॒ । तत् । दे॒वाना॑म् । अवः॑ । अ॒द्य । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वस्मान्नो अदितिः पात्वंहसो माता मित्रस्य वरुणस्य रेवत: । स्वर्वज्ज्योतिरवृकं नशीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वस्मात् । नः । अदितिः । पातु । अंहसः । माता । मित्रस्य । वरुणस्य । रेवतः । स्वःऽवत् । ज्योतिः । अवृकम् । नशीमहि । तत् । देवानाम् । अवः । अद्य । वृणीमहे ॥ १०.३६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 36; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(रेवतः-मित्रस्य वरुणस्य-अदितिः-माता) पुष्टिमान्-पुष्टिप्रद सूर्य चन्द्रमा की या शरीर में प्राण और अपान की निर्माण करनेवाली अखण्ड ब्रह्मशक्ति (विश्वस्मात्-अंहसः-नः पातु) सभी हिंसक पाप से हमारी रक्षा करे (स्वर्वत्-अवृकं ज्योतिः-नशीमहि) सुखमय ज्ञानयुक्त अच्छिन्न-अनश्वर ज्योति को हम प्राप्त करें (देवानां तत्-अवः-अद्य वृणीमहे) अर्थ पूर्ववत् ॥३॥
भावार्थ
पुष्टि देनेवाले सूर्य-चन्द्रमा और प्राण-अपान को निर्माण करनेवाली परमात्मशक्ति की शरण लेकर हम दोषों पापों से बचे रहें, तो सुखमय अनश्वर ज्योति को प्राप्त कर सकते हैं और भौतिक देवों और विद्वानों का रक्षण भी पा सकते हैं ॥३॥
विषय
लोलुपता शून्य ऐश्वर्य
पदार्थ
[१] (रेवतः) = ऐश्वर्यवाले (मित्रस्य) = मित्र की (वरुणस्य) = और वरुण की माता-जननी (अदिति:) = अदीना देवमाता (नः) = हमें (विश्वस्मात् अंहसः) = सम्पूर्ण पापों से (पातु) = बचाये। 'मित्र' स्नेह की देवता है और 'वरुण' निर्देषता की। 'सब के प्रति स्नेह व द्वेष का अभाव' ये दो वृत्तियाँ मनुष्य को सांसारिक दृष्टिकोण से भी सम्पन्न बनाती हैं, इसी से यहाँ इनका विशेषण 'रेवत: ' दिया गया है। मूल में अदिति' प्रभु हैं, वे हमें प्रेमवाला व निर्दोष बनाएँ, जिससे जहाँ हम पापों से बचे रहें वहाँ ऐश्वर्य सम्पन्न भी बनें। [२] ऐश्वर्य को पाकर हम (अवृकम्) = लोभ से रहित (स्वर्वत्) = प्रकाशमय व सुखमय (ज्योतिः) = ज्ञान को (नशीमहि) = प्राप्त हों। हम धन सम्पन्न तो हों, परन्तु उस धन का हमें लालच न हो। 'धन तो हो, पर धन का लोभ न हो' तो ही वास्तव में सुखमय प्रकाश की प्राप्ति होती है । [३] इस प्रकार धन तथा निर्लोभता को प्राप्त करके हम (अद्या) = अब (तत् देवानाम् अवः) = उस देवताओं को रक्षण को (वृणीमहे) = वरते हैं। हम अपने अन्दर दिव्यवृत्तियों के धारण के लिये यत्नशील होते हैं |
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रेम व निद्वेषता को धारण करें। लोलुपताशून्य ऐश्वर्यवाले हों ।
विषय
उनसे पाप से बचने की प्रार्थना।
भावार्थ
(मित्रस्य) अति स्नेही, प्राणवत्, वायुवत्, प्रिय और जीवन के रक्षक और (वरुणस्य) सब दुःखों के वारक, राजा आदि और (रेवतः) ऐश्वर्यवान् की भी (माता) जननी के तुल्य उत्पादक, उनको भी शासक आदि बनाने वाली, (अदितिः) अखंड शक्तियुक्त, ब्रह्मशक्ति वा राजसभा (नः विश्वस्मात् अंहसः पातु) हमें समस्त प्रकार के पाप से बचावे । हम लोग (अवृकं) विविध प्रकार के हिंसाकारी कष्टों, वा छल कपट आदि से रहित (स्वर्वत् ज्योतिः) सुख, प्रकाश आदि से युक्त तेजः-प्रकाश को (नशीमहि) प्राप्त हों। (तत् देवानां अवः अद्य) हम विद्वानों और दिव्य पदार्थों के उसी श्रेष्ठ ज्ञान और रक्षासामर्थ्य को (वृणीमहे) चाहें, पायें और प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:– १, २, ४, ६–८, ११ निचृज्जगती। ३ विराड् जगती। ५, ९, १० जगती। १२ पादनिचृज्जगती। १३ त्रिष्टुप्। १४ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(रेवतः-मित्रस्य वरुणस्य-अदितिः-माता) पुष्टिमतः सूर्यस्य चन्द्रमसो यद्वा शरीरे प्राणस्यापानस्य निर्मात्री खल्वखण्डनीया ब्रह्मशक्तिः (विश्वस्मात्-अंहसः नः पातु) सर्वस्मात्-हिंसकात् पापादस्मान् रक्षतु (स्वर्वत्-अवृकं ज्योतिः नशीमहि) सुखमयं ज्ञानयुक्तमच्छिन्नं ज्योतिर्वयं प्राप्नुयाम “नशत् व्याप्तिकर्मा” [निघं० २।१८] (देवानां तत्-अवः-अद्य वृणीमहे) पूर्ववत् ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the eternal mother power, the divine Shakti, Aditi, protect us from sin and suffering of the world, she being the mother of abundant sun and ocean, love and judgement. May we receive the light of heaven without violence. This is our prayer for protection we may make to the divinities with free choice today.
मराठी (1)
भावार्थ
पुष्टी देणारे सूर्य, चंद्र व प्राण-अपान यांना निर्माण करणाऱ्या परमात्मशक्तीला शरण जाऊन आम्ही दोषांपासून व पापांपासून बचाव केला तर सुखमय अनश्वर ज्योतीला प्राप्त करू शकतो व भौतिक देव व विद्वानाकडून रक्षण प्राप्त करून घेऊ शकतो. ॥३॥
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