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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 37/ मन्त्र 12
    ऋषिः - अभितपाः सौर्यः देवता - सूर्यः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    यद्वो॑ देवाश्चकृ॒म जि॒ह्वया॑ गु॒रु मन॑सो वा॒ प्रयु॑ती देव॒हेळ॑नम् । अरा॑वा॒ यो नो॑ अ॒भि दु॑च्छुना॒यते॒ तस्मि॒न्तदेनो॑ वसवो॒ नि धे॑तन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । वः॒ । दे॒वाः॒ । च॒कृ॒म । जि॒ह्वया॑ । गु॒रु । मन॑सः । वा॒ । प्रऽयु॑ती । दे॒व॒ऽहेळ॑नम् । अरा॑वा । यः । नः॒ । अ॒भि । दु॒च्छु॒न॒ऽयते॑ । तस्मि॑न् । तत् । एनः॑ । व॒स॒वः॒ । नि । धे॒त॒न॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वो देवाश्चकृम जिह्वया गुरु मनसो वा प्रयुती देवहेळनम् । अरावा यो नो अभि दुच्छुनायते तस्मिन्तदेनो वसवो नि धेतन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । वः । देवाः । चकृम । जिह्वया । गुरु । मनसः । वा । प्रऽयुती । देवऽहेळनम् । अरावा । यः । नः । अभि । दुच्छुनऽयते । तस्मिन् । तत् । एनः । वसवः । नि । धेतन ॥ १०.३७.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 37; मन्त्र » 12
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवाः) हे उपासकों या विद्वानों ! (वः) तुम्हारे प्रति (यत् जिह्वया मनसा वा) जो वाणी से या मन से (प्रयुती गुरु देवहेळनं चकृम) प्रयोग से-आचरण से तुम विद्वानों के प्रति जो भारी क्रोध या पाप हम करते हैं, उसे तुम लोग शोध दो (यः-अरावा नः-अभि दुच्छुनायते) जो कोई अदानशील अपितु हरणशील शत्रु हमारे प्रति दुष्ट कुत्ते की भाँति आचरण करता है-द्वेष करता है। (तस्मिन् तत्-एनः-वसवः-निधेतन) उस द्वेष करनेवाले में उस पापकर्म के फल को हे बसानेवाले विद्वानों ! प्राप्त कराओ ॥१२॥

    भावार्थ

    विद्वानों के प्रति कभी भी मन, वाणी और आचरण से पाप नहीं करना चाहिए और न क्रोध। अपितु जो अपने प्रति द्वेष या ईर्ष्या करनेवाला शत्रु है, उसके ऐसे आचरण को उपदेश द्वारा दूर करने की प्रार्थना करनी चाहिए ॥१२॥

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    विषय

    जिह्वाकृत व मनःकृत दोष

    पदार्थ

    [१] हे (देवाः) = सब प्राकृतिक देवो ! (जिह्वया) = जिह्वा से (मनसः प्रयुती वा) = अथवा मन के उन इन्द्रियों से मिल जाने से, इन्द्रियों से मिलकर विषयों में भटकने से ['इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोनुविधीयते तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसिं'] (यद्) = जो (वः) = आपका (गुरु) = महान् (देवहेडनम्) = देवों का निरादर चक्रम कर बैठते हैं, (तद् एनः) = उस पाप को, हे (वसवः) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले देवो ! (तस्मिन्) उस पुरुष में (निधेतन) = धारण करो (यः) = जो (अरावा) = न दान देनेवाला है, भोगवृत्तिवाला होने से स्वयं सब कुछ खा जानेवाला है और (नः अभि) = हमारा लक्ष्य करके (दुच्छुनायते) = अशुभ का आचरण करता है, अर्थात् हमें हानि पहुँचाकर भी अपने भोग- साधनों को जुटाने के लिये यत्नशील होता है । [२] शरीर का निर्माण करनेवाले देवों के विषय में अपराध यही है कि हम जिह्वा के स्वादवश अधिक व अपथ्य को खा जाएँ तथा हमारा मन भी इन इन्द्रियों से मिलकर मजा लेने लग जाए। यह मार्ग निश्चितरूप से अस्वास्थ्य का मार्ग है । [३] यह अपराध तो उसी से हो जो [क] दान देने की वृत्तिवाला न होकर [अरावा] सब कुछ स्वयं उपभोग करनेवाला हो तथा [ख] जो अपने भोग के लिये अन्याय से भी अर्थ-संचय करता हुआ औरों का अशुभ करने की वृत्तिवाला हो । जो कोई भी इस अपराध को करेगा वह इन शरीरस्थ देवों का निरादर कर रहा होगा। यह निरादर उसकी आधि-व्याधियों को जन्म देनेवाला होगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जिह्वा के व मन के संयम से सब देवों के अनुकूल वृत्तिवाले हों । दान देने की वृत्तिवाले होकर किसी का अमंगल न करें । ऋत के द्वारा प्रभु के पूजन से यह सूक्त प्रारम्भ हुआ है । [१] ऋत व सत्य ही ऐहिक व पारलौकिक उन्नति का कारण है, [२] सूर्य की ज्योति अद्भुत है, [३] सूर्य अपनी ज्योति से 'अन्नाभाव, यज्ञाभाव, रोग व अशुभ स्वप्नों' को दूर कर देता है, [४] हमारे शरीरस्थ सब देव हमें सूर्य का आराधक बनाएँ, [५] सूर्य- संदर्शन में भद्र जीवन बिताते हुए हम पूर्ण परिपक्वावस्था को प्राप्त करें, [६] हम नीरोग, निष्पाप व दीर्घजीवन प्राप्त करें, [७] सूर्य 'शरीर, मन व बुद्धि' सभी को स्वस्थ करे, [८] आनागास्व व वसुमत्तरता को हम प्राप्त करें, [९] यह सूर्य हमें अद्भुत बल देता है, [१०] शान्ति, निर्भयता व निष्पापता को प्राप्त कराता है, [११] स्वस्थ रहने के लिये हम जिह्वा व मन से देवों के विषय में कोई अपराध न करें। अपथ्य व अतिभोजन ही वह सर्वमहान् पाप है, [१२] हम देवों के विषय में अपराध नहीं करेंगे तो सुगठित शरीरवाले [मुष्कवान्] जितेन्द्रिय पुरुष बन पाएँगे [इन्द्रः] । यह 'मुष्कवान् इन्द्र' अगले सूक्त का ऋषि है ।

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    विषय

    अपराधी को दण्ड देने की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! (वः) आप लोगों के प्रति (जिह्वया) वाणी द्वारा (यत्) जो हम (गुरु देवहेडनम् चक्रम) भारी विद्वानों का अनादर करें (वा) अथवा (मनसः प्रयुती) मन के प्रयोग से यदि अपराध करें तो (यः) जो (नः) हमारे बीच (अरावा) अदानशील, दुष्ट शत्रु (नः अभि) हम पर सब ओर से (दुच्छुनायते) दुःख कष्ट देना चाहता है, हम पर पापाचरण करता है (तस्मिन्) उसके निमित्त उस पर हे (वसवः) वसु, विद्वान् जनो ! (तत् एनः) वह पाप (नि धेतन) स्थापित करो। इति त्रयोदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अभितपाः सौर्य ऋषिः॥ छन्दः-१-५ निचृज्जगती। ६-९ विराड् जगती। ११, १२ जगती। १० निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवाः) हे उपासकाः ! विद्वांसो वा (वः) युष्मान् प्रति (यत्-जिह्वया मनसा वा प्रयुती गुरु देवहेळनं चकृम) यद् वाचा “जिह्वा वाङ्नाम” [निघ० १।११] मनसा यद्वा प्रयुत्या प्रयोगेण कर्मणा वा युष्माकं देवानां यत् बृहत् क्रोधनं पापं कुर्मः, ‘तद् यूयं शोधयत’ (यः अरावा नः अभिदुच्छुनायते) यः कश्चित्-अदानशीलोऽपितु हरणशीलः शत्रुरस्मान् दुष्टश्वेवाचरति द्वेष्टि (तस्मिन् तत्-एनः वसवः-निधेतन) तस्मिन् द्वेषिणि तत्पापकर्मफलं हे वासयितारः ! प्रापयत ॥१२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Devas, divinities of nature and humanity, if we trespass or do some grave offence by word, thought or action and behaviour to earn your displeasure or even provoke your anger, pray forgive us and cleanse us of that weakness and negativity. And if there be some mean and uncharitable person among us who behaves in a vile manner toward us, then O divine givers of peace and shelter, pray let that sin visit back upon the source.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांबाबत कधीही मन, वाणी व आचरणाने पाप किंवा क्रोध करू नये. जो आपला द्वेष किंवा ईर्षा करणारा शत्रू आहे त्याच्या अशा आचरणाला उपदेशाद्वारे दूर करण्याची प्रार्थना केली पाहिजे. ॥१२॥

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