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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 37/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अभितपाः सौर्यः देवता - सूर्यः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    तं नो॒ द्यावा॑पृथि॒वी तन्न॒ आप॒ इन्द्र॑: शृण्वन्तु म॒रुतो॒ हवं॒ वच॑: । मा शूने॑ भूम॒ सूर्य॑स्य सं॒दृशि॑ भ॒द्रं जीव॑न्तो जर॒णाम॑शीमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । नः॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । तत् । नः॒ । आपः॑ । इन्द्रः॑ । शृ॒ण्व॒न्तु॒ । म॒रुतः॑ । हव॑म् । वचः॑ । मा । शूने॑ । भू॒म॒ । सूर्य॑स्य । स॒म्ऽदृशि॑ । भ॒द्रम् । जीव॑न्तः । ज॒र॒णाम् । अ॒शी॒म॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं नो द्यावापृथिवी तन्न आप इन्द्र: शृण्वन्तु मरुतो हवं वच: । मा शूने भूम सूर्यस्य संदृशि भद्रं जीवन्तो जरणामशीमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । नः । द्यावापृथिवी इति । तत् । नः । आपः । इन्द्रः । शृण्वन्तु । मरुतः । हवम् । वचः । मा । शूने । भूम । सूर्यस्य । सम्ऽदृशि । भद्रम् । जीवन्तः । जरणाम् । अशीमहि ॥ १०.३७.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 37; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (नः-तं हवम्) हमारे उस अभिप्राय को (द्यावापृथिवी) माता-पिता या माता-पिता के सदृश परमात्मा (नः-तत्-वचः) हमारे उस वचन-प्रार्थनावचन को (आपः) आप्तजन या सर्वत्र व्यापक परमात्मा (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा या परमात्मा (मरुतः) ऋत्विक् लोग या जीवनप्रद परमात्मा स्वीकार करें या स्वीकार कर (शूने मा भूम) शैथिल्य-आलस्य में न होवें-न रहें (सूर्यस्य संदृशि) सर्वप्रकाशक परमात्मा के ज्ञानदर्शन-वेदोपदेश में (जीवन्तः-भद्रं जरणाम्-अशीमहि) जीवन धारण करते हुए कल्याण और जरावस्था-देवों की आयु को हम प्राप्त करें ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा के वेदज्ञान के अनुसार उसकी प्रार्थना करते हुए, कभी आलस्य में न रहकर जीवन बिताते हुए, सम्पूर्ण आयु को प्राप्त कर सकते हैं। तथा माता-पिता के आदेश में रहकर और विद्वानों से श्रवण करते हुए अपना जीवन ऊँचा व पूर्णायुवाला बना सकते हैं ॥६॥

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    विषय

    पूर्ण परिपक्वावस्था की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (नः) = हमारे (तत्) = उस (हवं वचः) = स्तुति वचन को (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक सुनें, अर्थात् मेरा मस्तिष्करूप द्युलोक तथा शरीरूप पृथिवी, गत मन्त्र में सूर्य के लिए किये गये स्तुति - वचन को तथा व्रत सङ्कल्प को (शृण्वन्तु) = सुनें। हम इनकी अनुकूलता से सूर्य की तरह गतिशील बन रहें। [२] (नः) = हमारे (तत्) = उस सङ्कल्प को (आप:) = जल सुनें, शरीर में जल रेतः कण हैं। ये रेतःकण हमारे व्रत के सङ्कल्प को पूर्ण करने में सहायक हों। [३] (इन्द्रः मरुतः) = इन्द्र और (मरुत्) = प्राण हमारे उस वचन को सुनें । जितेन्द्रियता तथा प्राणसाधना मुझे सूर्य के व्रत का पालन करने में समर्थ करें। मैं सूर्य की तरह गतिशील व उज्ज्वल बनूँ । इन्द्र सेनापति हैं, मरुत् उसके सैनिक हैं । अध्यात्म में इन्द्र 'जीव' है, प्राण उसके सैनिक हैं, मरुत् यहाँ ये प्राण ही हैं। इन प्राणों की साधना जीव को इस योग्य बनाती है कि वह सतत क्रियाशील होकर सूर्य की तरह चमकनेवाला बने । [४] हम द्यावापृथिवी, आप, इन्द्र व मरुतों से यही प्रार्थना करते हैं कि हम (शूने) = [ प्रवृद्धाय दुःखाय] बड़ी हुई दुःखमय स्थिति के लिये (मा भूम) = मत हों। हमारे दुःख न बढ़ते जायें। अपितु (सूर्यस्य संदृशि) = सूर्य के सन्दर्शन में (भद्रं जीवन्तः) = कल्याणमय जीवन को बिताते हुए (जरणाम्) = पूर्ण परिपक्वावस्था को (अशीमहि) = प्राप्त करें। 'सूर्य के सन्दर्शन में' ये शब्द स्पष्ट कर रहे हैं कि जीवन यथासम्भव खुले में [open में] बिताना ही ठीक है। जितना सूर्य किरणों के सम्पर्क में होंगे, उतना ही अच्छा है।

    भावार्थ

    भावार्थ– द्यावापृथिवी आदि की अनुकूलता से हमारे दुःख दूर हों। सूर्य संदर्शन में भद्र जीवन बिताते हुए हम पूर्ण परिपक्वावस्था को प्राप्त करें।

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    विषय

    माता पिता आदि आप्त जनों से सुखी जीवन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (द्यावापृथिवी) माता और पिता, (नः तं हवं शृण्वन्तु) हमारे उस आह्वान, ग्राह्य वचन आदि को श्रवण करें। (आपः) आप्त जन हमारे (तं) उस आह्वान को सुनें। (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् वीरजन और (मरुतः) वायुवद् बलवान्, विद्वान् लोग (नः वचः शृण्वन्तु) हमारे वचन सुनें। (सूर्यस्य सं-दृशि) सूर्य के समान तेजस्वी प्रभु वा शासक के सम्यक् प्रकाशमय न्याय-दर्शन के अधीन हम (शूने मा भ्रम) शून्य, निस्सार वा बड़े दुःख में न रहें, प्रत्युत (भद्रं जीवन्तः) अति सुखदायी जीवन को व्यतीत करते हुए (जरणाम् अशीमहि) वृद्ध अवस्था को प्राप्त हों। इति द्वादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अभितपाः सौर्य ऋषिः॥ छन्दः-१-५ निचृज्जगती। ६-९ विराड् जगती। ११, १२ जगती। १० निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (नः तं हवम्) अस्माकं तमभिप्रायम् (द्यावापृथिवी) मातापितरौ “द्यौर्मे पिता……पृथिवी महीयम्” [ऋ० १।१६४।३३] यद्वा मातापितृभूतः परमात्मा (नः तत्-वचः) अस्माकं तद्वचनं  प्रार्थनावचनम् (आपः) आप्तजनाः “मनुष्या वा आपश्चन्द्राः” [श० ७।३।१।२०] सर्वत्राप्तो व्यापकः परमात्मा ‘ता आपः स प्रजापतिः” [यजु० ३२।१] (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा परमात्मा वा (मरुतः) ऋत्विजः ‘मरुतः-ऋत्विङ्नाम” [निघ० ३।१८] यद्वा जीवनप्रदः परमात्मा (शृण्वन्तु) स्वीकुर्वन्तु स्वीकरोतु वा (शूने मा भूम) शैथिल्ये-अलसत्वे न भवेम-तिष्ठेम (सूर्यस्य सदृशि) सर्वप्रकाशकस्य परमात्मनो ज्ञानदर्शने वेदोपदेशे (जीवन्तः-भद्रम् जरणाम्-अशीमहि) जीवनं धारयन्तः कल्याणं जरणाम्-जरां देवायुष्यं “जरा वै देवहितमायुः” [मै० १।७।५] वयं प्राप्नुयाम ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That word of invocation and prayer, and that word of homage and prayer with supplication may the heaven and earth as father and mother, waters of earth and space and the learned sages of holy attainments, Indra, omnipotent lord and ruler of the earth, Maruts, pranic energies of life and leading lights of humanity listen, and may they favourably respond. May they never be indifferent. May we live blest in the light of the sun and the illumination of divinity. We pray that living in peace and felicity, we may enjoy a full life of good health and mental and spiritual fulfilment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या वेदज्ञानानुसार त्याची प्रार्थना करून आळसात जीवन न घालविता संपूर्ण आयुष्य दीर्घजीवी बनविता येते व माता-पित्याच्या आदेशानुसार विद्वानांकडून श्रवण करून आपले जीवन उच्च व पूर्णायू बनविता येऊ शकते. ॥६॥

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