ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 37/ मन्त्र 3
न ते॒ अदे॑वः प्र॒दिवो॒ नि वा॑सते॒ यदे॑त॒शेभि॑: पत॒रै र॑थ॒र्यसि॑ । प्रा॒चीन॑म॒न्यदनु॑ वर्तते॒ रज॒ उद॒न्येन॒ ज्योति॑षा यासि सूर्य ॥
स्वर सहित पद पाठन । ते॒ । अदे॑वः । प्र॒ऽदिवः॑ । नि । वा॒स॒ते॒ । यत् । ए॒त॒शेभिः॑ । प॒त॒रैः । र॒थ॒र्यसि॑ । प्रा॒चीन॑म् । अ॒न्यत् । अनु॑ । व॒र्त॒ते॒ । रजः॑ । उत् । अ॒न्येन॑ । ज्योति॑षा । या॒सि॒ । सू॒र्य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न ते अदेवः प्रदिवो नि वासते यदेतशेभि: पतरै रथर्यसि । प्राचीनमन्यदनु वर्तते रज उदन्येन ज्योतिषा यासि सूर्य ॥
स्वर रहित पद पाठन । ते । अदेवः । प्रऽदिवः । नि । वासते । यत् । एतशेभिः । पतरैः । रथर्यसि । प्राचीनम् । अन्यत् । अनु । वर्तते । रजः । उत् । अन्येन । ज्योतिषा । यासि । सूर्य ॥ १०.३७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 37; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सूर्य) हे परमात्मन् ! (यत्) जब (पतरैः-एतशेभिः) प्रगतिशील शक्ति तरङ्गों से या किरणों के द्वारा (रथर्यसि) तू प्राप्त होता है या गति करता है (प्रदिवः-अदेवः) पूर्ववर्ती तुझे न माननेवाला नास्तिक या प्रकाशरहित अन्धकार सम्मुख नहीं रहता है, नहीं ठहरता है। (प्राचीनम्-अन्यत्-रजः) तुझ से पीछे उत्पन्न किए हुए लोक या स्थान के प्रति (अनु-वर्तते) वर्तता है-प्राप्त होता है, जिससे कि (अन्येन ज्योतिषा-यासि) तू विशिष्ट ज्ञानप्रकाश से या ज्योति से प्राप्त होता है, जाना जाता है ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा को न माननेवाला नास्तिक पुरुष उसके सामने नहीं ठहर सकता। वह शक्तितरङ्गों से सबको अपने अधिकार में किये हुए है। वह नास्तिक अन्य दुःखस्थानों को ही प्राप्त होता है तथा सूर्य के सम्मुख अन्धकार नहीं ठहर सकता। उसकी प्रखर ज्योतियों से ताड़ित हुआ किसी स्थान में चला जाता है। उस ज्ञानप्रकाशक परमात्मा और सूर्य की शरण लेना चाहिए ॥३॥
विषय
अद्भुत सूर्य ज्योति
पदार्थ
[१] हे सूर्य ! (यत्) = जब (पतरैः) = गमनशील (एतशेभिः) = सात रंगों से चित्रित किरणरूप अश्वों से (रथर्यसि) = तू अपने रथ को जोतने की कामना करता है तो (प्रदिवः ते) = प्रकृष्ट प्रकाशवाले तेरे उदय होने पर (अदेवः) = अप्रकाशित वस्तु (न निवासते) = नहीं रहती है। सूर्य निकला, तो अन्धेरे का क्या काम ? सूर्य के किरणरूप अश्व 'एतश' हैं, चित्रविचित्र हैं। रंग-विरंगे होने से इनका नाम एतश है, इन्द्रधनुष में ये सातों रंग चित्रित होते हैं । [२] एक-एक किरण विविध प्राणशक्तियों को लिये हुए होती है । यह (प्राचीनम्) = पूर्व दिशा में उदय होनेवाले सूर्य का (अन्यत् रजः) = [रजतेर्ज्योतीरत्र उच्यते नि० ४। १९] यह विलक्षण प्रकाश अनुवर्तते सबके अनुकूल होता है । सूर्य तो हिरण्यपाणि है, यह अपने किरणरूप हाथों में gold inyection को लिये हुए है। इन किरणों का अपने शरीर पर लेना सबके स्वास्थ्य के लिये हितकर है। [३] (उत) = और (सूर्य) = हे सूर्य ! तू (अन्येन ज्योतिषा) = विलक्षण ज्योति के साथ ही तू (यासि) = अस्त होता है, पश्चिम दिशा में लोकान्तर में जाता है । अस्त होते हुए सूर्य की किरणों में भी अद्भुत शक्ति होती है । 'उद्यन् आदित्यः क्रिमीन् हन्ति निम्लोचन् हन्तु रश्मिभिः 'यह उदय व अस्त होता हुआ सूर्य किरणों से रोग-क्रिमियों का नाश करता है। इसकी ज्योति में यह अद्भुत शक्ति होती है। इसी का उल्लेख 'अन्यत्' शब्द से हुआ है। पूर्वा सन्ध्या व पश्चिमा सन्ध्या को सूर्याभिमुख होकर करने से हम शरीर के रोग-क्रिमियों को भी नष्ट कर रहे होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सूर्य सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश कर देता है और अद्भुत प्रकार से रोग-क्रिमियों का नाश करके नीरोगता प्रदान करता है।
विषय
सूर्य के उदयास्त के तुल्य आत्मा स्वप्न-जागरण और जन्म-मरण।
भावार्थ
(यत्) जिस प्रकार सूर्य (एतशेभिः पतरैः) अति वेग से जाने वाले अश्वों के तुल्य श्वेत किरणों से (रथर्यति) व्यापता, प्राप्त होता है, और कोई (अदेवः न निवासते) अप्रकाशित पदार्थ नहीं रह जाता है, (प्राचीनं रजः अनु वर्त्तते) तब उसका एक प्रकाश पूर्व दिशा की ओर प्रकट होता है, और (अन्येन ज्योतिषा याति) दूसरे, पश्चिमगामी, ज्याति से जाता, अस्त होता है। इसी प्रकार हे (सूर्य) सूर्यवत् उदय अस्त होने वाले आत्मन् ! (यत्) जो तू (पतरैः) गमनशील (एतशेभिः) अश्ववत् प्राणों से (रथर्यति) देह रूप रथ से प्राप्त होता है, तब (ते) तेरा कोई भी (प्रदिवः) पुराना अंश (अदेवः) आप्रकाशित वा अप्राणित (न निवासते) नहीं रह जाता। चक्षु, श्रोत्र आदि या प्रत्येक देह का अवयव प्राण से युक्त रहता है। हे (सूर्य) उत्पन्न होने वाले वा प्राणों के प्रेरक आत्मन् ! (अन्यत्) एक विशेष (प्राचीनं) अति उत्तम, प्रथम प्रकट होने वाले (रजः) तेज, जल वा उत्पादक वीर्य (अनु वर्त्तते) उत्पादक रूप से प्रकट होता, वहीं निरन्तर विकसित होकर प्राणिरूप में प्रकट होता है, और (अन्येन ज्योतिषा) एक दूसरे ही प्रकार के तेज से तू इस देह से (उत् यासि) उत्क्रमण करता है। आत्मा की देह में अवक्रान्ति सूर्य के उदय और अस्तमयवत् होती है। जिसका वर्णन बृहदारण्यक में याज्ञवल्क्य-जनक-संवाद में वर्णित है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अभितपाः सौर्य ऋषिः॥ छन्दः-१-५ निचृज्जगती। ६-९ विराड् जगती। ११, १२ जगती। १० निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सूर्य) हे परमात्मन् ! सूर्य ! वा त्वम् (यत्-एतशेभिः पतरैः रथर्यसि) यदा-अश्वैरिव शक्तितरङ्गैः पतनशीलैः किरणैर्वा प्राप्नोषि गच्छसि वा ‘रथर्यति गतिकर्मा’ [निघ० २।१४] तदा (प्रदिवः-अदेवः-निवासते) पूर्ववर्ती “प्रदिव पुराणनाम” [निघ० ३।२७] त्वाममन्यमानो नास्तिकः प्रकाशरहितोऽन्धकारो वा “अदेवः प्रकाशरहितः” [ऋ० ६।१७।७ दयानन्दः] (प्राचीनम्-अन्यत्-रजः-अनुवर्तते) पश्चाद्भवमन्यत् खलु लोकं स्थानमनुवर्तते न तु तव सम्मुखम्। यतः (अन्येन ज्योतिषा यासि) तद्भिन्नेन विरलेन ज्ञानप्रकाशेन ज्योतिषा वा प्राप्तो भवसि ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O sun, when you ride your chariot and move on with the radiation of your rays, the earlier darkness of the night does not stay before you, instead it moves on to the other region you left behind, and as you move on, you go forward with your light for another region of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराला न मानणारा नास्तिक पुरुष त्याच्यासमोर टिकू शकत नाही. आपल्या शक्तितरंगांनी त्याने सर्वांना आपल्या अधिकारात ठेवले आहे. नास्तिकांना दु:ख प्राप्त होते. सूर्यासमोर अंधकार टिकू शकत नाही. त्याच्या प्रखर ज्योतींनी त्रस्त झालेला मनुष्य दुसऱ्या एखाद्या स्थानी जातो. त्यासाठी त्या ज्ञानप्रकाशक परमात्म्याला व सूर्याला शरण गेले पाहिजे. ॥३॥
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