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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 13
    ऋषिः - घोषा काक्षीवती देवता - अश्विनौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    ता म॑न्दसा॒ना मनु॑षो दुरो॒ण आ ध॒त्तं र॒यिं स॒हवी॑रं वच॒स्यवे॑ । कृ॒तं ती॒र्थं सु॑प्रपा॒णं शु॑भस्पती स्था॒णुं प॑थे॒ष्ठामप॑ दुर्म॒तिं ह॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । म॒न्द॒सा॒ना । मनु॑षः । दु॒रो॒णे । आ । ध॒त्तम् । र॒यिम् । स॒हऽवी॑रम् । व॒च॒स्यवे॑ । कृ॒तम् । ती॒र्थम् । सु॒ऽप्र॒पा॒नम् । शु॒भः॒ । प॒ती॒ इति॑ । स्था॒णुम् । प॒थे॒ऽस्थाम् । अप॑ । दुः॒ऽम॒तिम् । ह॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता मन्दसाना मनुषो दुरोण आ धत्तं रयिं सहवीरं वचस्यवे । कृतं तीर्थं सुप्रपाणं शुभस्पती स्थाणुं पथेष्ठामप दुर्मतिं हतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता । मन्दसाना । मनुषः । दुरोणे । आ । धत्तम् । रयिम् । सहऽवीरम् । वचस्यवे । कृतम् । तीर्थम् । सुऽप्रपानम् । शुभः । पती इति । स्थाणुम् । पथेऽस्थाम् । अप । दुःऽमतिम् । हतम् ॥ १०.४०.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 13
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ता मन्दसाना शुभस्पती) हे वे तुम हर्ष देनेवाले, कल्याण के स्वामी कल्याणप्रद ! (मनुषः-दुरोणे) मनुष्य के घर में (वचस्यवे) अपने लिए उपदेश के इच्छुक जन के लिए (सहवीरं रयिम्-आ धत्तम्) पुत्रसहित धनकोष सम्पादन करो (सुप्रपाणं तीर्थं कृतम्) तथा सुन्दर सुख का पान करानेवाले पापतारक गृहस्थाश्रम को बनाओ (पथेष्ठां दुर्मतिं स्थाणुम्-अपहतम्) गृहाश्रम के मार्ग में प्राप्त दुर्वासना और जड़ता को दूर करो ॥१३॥

    भावार्थ

    सुशिक्षित वृद्ध स्त्री-पुरुष नवगृहस्थों को सुख पहुँचानेवाले उसके घर में उपदेश के इच्छुक जन के लिए सन्तति धन की प्राप्ति जिस प्रकार हो सके और गृहस्थाश्रम पापरहित सुख पहुँचानेवाला बन सके, ऐसे उपाय करें और गृहस्थ के मार्ग में आनेवाली दुर्वासना और जड़ता को नष्ट करने का यत्न करें ॥१३॥

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    विषय

    घर तीर्थ बन जाए

    पदार्थ

    [१] (ता) = वे (मन्दसाना) = हर्ष को पैदा करते हुए प्राणापानो! (मनुषः) = विचारपूर्वक कर्म करनेवाले के (सहवीरम्) = वीर पुत्रों से युक्त (रयिम्) = धन को (आधत्तम्) = सर्वथा धारण करो। मैं आपकी कृपा से धन को प्राप्त करूँ और उत्तम सन्तान को प्राप्त करूँ। [२] (शुभस्पती) = सब शुभों के रक्षण करनेवाले आप मेरे घर को (तीर्थं कृतम्) = तीर्थ बना दो। यह हमें 'तारयति' = तैरानेवाला हो, नकि डुबानेवाला हम पति-पत्नी एक दूसरे का हाथ पकड़कर पर्वतीय जलधाराओं की तरह सब अप्रिय वासनाओं को पारकर जाएँ। (सुप्रपाणं कृतम्) = इस घर को आप उत्तम प्रकृष्ट प्याऊ बना दो। हम जल व दुग्ध आदि उत्तम पेयों का ही यहाँ प्रयोग करें। (३) आप इस घर में (स्थाणुम्) = परमात्मा को, जो सदा स्थिर है, सर्वव्यापकता के नाते जिसके हिलने का सम्भव नहीं, उस परमात्मा को इस घर में करो। इस घर में प्रातः सायं प्रभु का ध्यान अवश्य हो । (पथेष्ठाम्) = ये प्रभु ही हमें मार्ग पर स्थित करनेवाले हैं। प्रभु स्मरण हमें मार्गभ्रष्ट नहीं होने देता । हे प्राणापानो ! आप (दुर्मतिम्) = दुर्मति को (अपहतम्) = हमारे से सदा दूर रखो। हम दुर्मति का शिकार न हों। प्राणसाधना से बुद्धि के दोष भी दूर होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारा घर पवित्र, अपेय पदार्थों से रहित और प्रभु स्मरणवाला हो। हमें वीर सन्तान व धन प्राप्त हो ।

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    विषय

    उत्तम अन्न और ज्ञान से तृप्त हों, ऐश्वर्यवान् हों, उत्तम पुरुष को गुरु बनावें। उत्तम आश्रय करें।

    भावार्थ

    हे (शुभस्पती) शोभायुक्त गुणों, पदार्थों और जलों के रक्षा करने वाले स्त्री पुरुषो ! (ता) वे आप दोनों (मनुषः दुरोणे) मननशील विद्वान के गृह में रह कर (मन्दसाना) उत्तम अन्न और ज्ञान से अपने को खूब तृप्त और परिपूर्ण करते हुए, (वचस्यवे) उत्तम वेद-चचन के धारक विद्वान् उपदेष्टा पुरुष के (राये) ऐश्वर्य ज्ञानरूप धन को (आ धत्तम्) अपने में सब प्रकार से धारण करो और (सह-वीरं) वीर पुत्र और विद्वान् पुरुषों से युक्त (रयिं धत्तम्) ऐश्वर्य को भी प्राप्त करो। आप दोनों (शुभस्पती) शोभायुक्त उत्तम गुणों, व्रतों का पालन करते हुए (सु-प्र-पाणं तीर्थं) सुख से उत्तम रीति से जलपान करने योग्य नदी की धारा के समान (सुप्रपाणं तीर्थं) उत्तम रीति से व्रत पालन कराने वाले, जगत् के नाना कष्टों और अज्ञान सागर से पार करने वाले गुरु को (कृतम्) करो। (२) इसी प्रकार (पथेष्ठां स्थाणुम्) मार्ग में स्थित वृक्ष के समान आश्रय देने वाले, सुखद छायाप्रद, आश्रयदाता जन को स्वीकार करो। (दुर्मतिम् अप हतम्) इस प्रकार अपने कुमति, विपरीत ज्ञान को दूर करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्घोषा काक्षीवती॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:– १, ५, १२, १४ विराड् जगती। २, ३, ७, १०, १३ जगती। ४, ९, ११ निचृज्जगती। ६,८ पादनिचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ता मन्दसाना शुभस्पती) हे तौ मोदयमानौ “मदि स्तुतिमोद ……” [भ्वादिः] ‘ततः असानच् प्रत्ययः-औणादिकः’ कल्याणस्य पती कल्याणप्रदौ (मनुषः दुरोणे) मनुष्यस्य गृहे “दुरोण गृहनाम” [निघ० ३।४] (वचस्यवे) आत्मनो वचः-उपदेशवचनमिच्छवे “वचस्युवम्-आत्मनो वचनमिच्छन्तम्” [ऋ० २।१६।७ दयानन्दः] (सहवीरं रयिम्-आधत्तम्) पुत्रसहितं धनपोषं सम्पादयतम् “रयिं देहि पोषं देहि” [काठ० १।७] (सुप्रपाणं तीर्थं कृतम्) सुन्दरसुखप्रपैव पापतारकं गृहस्थाश्रमं कुरुतम् (पथेष्ठां दुर्मतिं स्थाणुम्-अपहतम्) गृहस्थमार्गे प्राप्तां दुर्वासनां जडतां च दूरी कुरुतम् ॥१३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Ashvins, joyous spirits of love and wisdom, prosperity and generosity, to the celebrant of life and divinity, to the house of humanity, bear and bring wealth, honour and excellence with brave progeny worthy of the celebrant. O givers, protectors and promoters of the good and well being of life, establish a happy home life overflowing with food, drink and freedom of holiness. Pray cast away infirmity, rigidity, hatred and negative disposition that may obstruct our path of progress in life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सुशिक्षित वृद्ध स्त्री-पुरुषांनी नवगृहस्थांना सुख देण्यासाठी त्यांच्या घरात उपदेश इच्छुक लोकांसाठी संतती व धर्माची प्राप्ती ज्या प्रकारे होऊ शकेल व गृहस्थाश्रम पापरहित सुख देणारा बनू शकेल असे उपाय करावेत व गृहस्थाच्या मार्गात येणारी दुर्वासना व जडता नष्ट करण्यासाठी यत्न करावा. ॥१३॥

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