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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 5
    ऋषिः - घोषा काक्षीवती देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    यु॒वां ह॒ घोषा॒ पर्य॑श्विना य॒ती राज्ञ॑ ऊचे दुहि॒ता पृ॒च्छे वां॑ नरा । भू॒तं मे॒ अह्न॑ उ॒त भू॑तम॒क्तवेऽश्वा॑वते र॒थिने॑ शक्त॒मर्व॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वा । ह॒ । घोषा॑ । परि॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । य॒ती । राज्ञः॑ । ऊ॒चे॒ । दु॒हि॒ता । पृ॒च्छे । वा॒म् । न॒रा॒ । भू॒तम् । मे॒ । अह्ने॑ । उ॒त । भू॒त॒म् । अ॒क्तवे॑ । अश्व॑ऽवते । र॒थिने॑ । शक्त॑म् । अर्व॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवां ह घोषा पर्यश्विना यती राज्ञ ऊचे दुहिता पृच्छे वां नरा । भूतं मे अह्न उत भूतमक्तवेऽश्वावते रथिने शक्तमर्वते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवा । ह । घोषा । परि । अश्विना । यती । राज्ञः । ऊचे । दुहिता । पृच्छे । वाम् । नरा । भूतम् । मे । अह्ने । उत । भूतम् । अक्तवे । अश्वऽवते । रथिने । शक्तम् । अर्वते ॥ १०.४०.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (नरा-अश्विना युवाम्) हे गृहस्थों के नेता स्त्री-पुरुषों ! तुम दोनों (ह) अवश्य (राज्ञः-दुहिता घोषा परि यती) शासक की घोषणा करनेवाली, सब ओर विचरती हुई (ऊचे वां पृच्छे) सभा कहती है तथा पूछती है-प्रार्थना करती है कि (मे-अह्ने-उत-अक्तवे भूतम्) मेरे लिए दिन में तथा रात्रि में राज्यकर्म करने को उद्यत होओ-होते हो (अश्वावते रथिने-अर्वते शक्तं भूतम्) अश्वयुक्त रथ के लिए और रथयुक्त घोड़े के लिए तुम दोनों समर्थ होओ-होते हो, उनके साधने और चलाने में ॥५॥

    भावार्थ

    राज्य के वृद्ध तथा माननीय स्त्री-पुरुषों का सम्पर्क राज्यसभा से होना चाहिये। वह राज्य की घोषणा राज्य के वृद्ध-मान्य स्त्री-पुरुषों में सद्भाव से करती रहे और उसे शिरोधार्य करके यातायात के लिए रथों और घोड़ों की समृद्धि करते रहें ॥५॥

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    विषय

    घोषा-यती- राज्ञः दुहिता

    पदार्थ

    [१] हे (नरा) = जीवनयात्रा में हमारी उन्नति के कारणभूत (अश्विना) = अश्विनी देवो! प्राणापानो (युवाम्) = आप दोनों को (ह) = निश्चय से (राज्ञः दुहिता) = राजा की पुत्री, अर्थात् अपने जीवन को अत्यन्त दीप्त करनेवाली अथवा [ राज्= to reqnlate] अपने जीवन को व्यवस्थित करनेवाली (यती) = क्रियाशील (घोषा) = स्तुति वचनों का आघोष करनेवाली मैं (परि-ऊचे) = सदा कहती आपके ही प्रशंसा - वचनों का उच्चारण करती हूँ और (वां पृच्छे) = आपसे ही यह प्रार्थना करती हूँ, पूछती हूँ कि आप अह्न दिन के लिये मे (भूतम्) = मेरे होइये (उत) = और (अक्तवे) = रात्रि के लिये भी [मे] (भूतम्) = मेरे होइये, अर्थात् आप दिन-रात मेरा कल्याण सिद्ध करनेवाले हों, वस्तुतः दिन में होनेवाले सारे कार्य इन प्राणापानों के द्वारा ही होते हों और रात को भी अन्य सब इन्द्रियों के सो जाने पर ये प्राणापान ही जागते रहते हैं और रक्षण का कार्य करते हैं। रात में ये सारे शरीर का शोधन करके नव शक्ति का सब अंगों में संचार करते हैं और उन्हें अत्यन्त दृढ़ बना देते हैं । [२] हे प्राणापानो! आप (अश्वावते) = उत्तम इन्द्रिय रूप अश्वोंवाले (रथिने) = शरीररूप रथवाले (अर्वते) = [अर्व हिंसायाम्] विघ्नों का हिंसन करनेवाले मेरे लिये (शक्तम्) = शक्ति को देनेवाले होइये । वस्तुतः आपकी कृपा से ही मेरे इन्द्रियाश्व शक्तिशाली बनते हैं, मेरा शरीर रथ ठीक होता है और मैं मार्ग में आनेवाले काम-क्रोधादि, उन्नति के विघ्न-भूत, दोषों को जीतनेवाला बनता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान की साधना की सफलता 'घोषा, यती व राज्ञः दुहिता' बनने से होती है, इस साधना के लिये 'प्रभु-स्तवन, क्रियाशीलता व नियम परायणता' आवश्यक है। इस साधना से दिन-रात उत्तम बीतते हैं, हमारा इन्द्रियाश्व व शरीर रथ दृढ़ होता है, विघ्नों को दूर करने में हम समर्थ होते हैं ।

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    विषय

    सभाओं के नायकों के कर्त्तव्य। वे राष्ट्रहित और हिंसक के नाश के लिये उद्यत रहें।

    भावार्थ

    हे (नरा) सभाओं के उत्तम नायक जनो ! हे (अश्विना) अश्वादि के स्वामी जनो वा विद्यादि में कुशल जनो ! (परि यती) सब से ऊपर वा सब ओर जाती हुई, वा यत्न करती हुई (राज्ञः दुहिता घोषा) तेजस्वी राजा के सब कार्यों को पूर्ण करती हुई, राजा की आज्ञा, घोषणा वा सभा, (वां पृच्छे) तुम दोनों को पूछती, आज्ञा लेती, प्रार्थना करती है, (अन्हः उत अक्तवे) दिन और रात आप दोनों (मे भूतम्) मेरे हित के लिये सदा तैयार रहें, और (अश्वावते रथिने अर्वते शक्तम्) अश्व रथादि से युक्त हिंसक शत्रु के नाश के लिये समर्थ होवो। इत्यष्टादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्घोषा काक्षीवती॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:– १, ५, १२, १४ विराड् जगती। २, ३, ७, १०, १३ जगती। ४, ९, ११ निचृज्जगती। ६,८ पादनिचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (नरा-अश्विना युवाम्) नेतारौ-गृहस्थानां नेतारौ स्त्रीपुरुषौ ! युवाम् (ह) खलु (राज्ञः-दुहिता घोषा परियती-ऊचे वां पृच्छे) शासकस्य घोषयित्री परिचरन्ती सभा वक्ति तथा युवां पृच्छति प्रार्थयते च अत्रोभयत्र पुरुषव्यत्ययः, उत्तमपुरुषो लिटि (मे-अह्ने उत-अक्तवे भूतम्) मह्यं दिनायापि रात्र्यै च राज्यकार्यं कर्त्तुं खलूद्यतौ भवथः (अश्वावते रथिने-अर्वते शक्तं भूतम्) अश्वयुक्ताय रथाय तथा रथयुक्तायाश्वाय च युवां समर्थौ भवथः ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, leading lights of the land, rulers and warriors, this voice of the ruling order like a daughter of the sovereign, going round and knowing every thing of the state, asks you and says : Be up and awake for me day and night and strengthen yourselves and strengthen me to meet the challenges of the forces of horse, chariot and the stormy troopers and thus save me and the social order.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राज्याच्या वृद्ध व माननीय स्त्री-पुरुषांचा संपर्क राज्यसभेशी झाला पाहिजे. राज्यसभेने सद्भावनेने ही घोषणा केली पाहिजे, की राज्याच्या वृद्ध स्त्री-पुरुषांनी राज्यासाठी कार्यतत्पर असावे व ती घोषणा शिरोधार्य मानून राजाने यातायातासाठी रथ व घोडे यांनी राज्याला समृद्ध करावे. ॥५॥

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