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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 7
    ऋषिः - घोषा काक्षीवती देवता - अश्विनौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    यु॒वं ह॑ भु॒ज्युं यु॒वम॑श्विना॒ वशं॑ यु॒वं शि॒ञ्जार॑मु॒शना॒मुपा॑रथुः । यु॒वो ररा॑वा॒ परि॑ स॒ख्यमा॑सते यु॒वोर॒हमव॑सा सु॒म्नमा च॑के ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । ह॒ । भु॒ज्युम् । यु॒वम् । अ॒श्वि॒ना॒ । वश॑म् । यु॒वम् । शि॒ञ्जार॑म् । उ॒शना॑म् । उप॑ । आ॒र॒थुः॒ । यु॒वः । ररा॑वा । परि॑ । स॒ख्यम् । आ॒स॒ते॒ । यु॒वोः । अ॒हम् । अव॑सा । सु॒म्नम् । आ । च॒के॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं ह भुज्युं युवमश्विना वशं युवं शिञ्जारमुशनामुपारथुः । युवो ररावा परि सख्यमासते युवोरहमवसा सुम्नमा चके ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम् । ह । भुज्युम् । युवम् । अश्विना । वशम् । युवम् । शिञ्जारम् । उशनाम् । उप । आरथुः । युवः । ररावा । परि । सख्यम् । आसते । युवोः । अहम् । अवसा । सुम्नम् । आ । चके ॥ १०.४०.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अश्विना युवम्) हे शिक्षित स्त्री-पुरुषों ! तुम (ह भुज्युम्) अवश्य भोगप्रद पालक राजा को (युवं वशम्) तुम दोनों निजवश में वर्तमान नौकर को (युवं शिञ्जारम्) तुम दोनों शान्तवक्ता ब्राह्मण को (उशनाम्) धनधान्य की कामना करनेवाले वैश्य को (उप आरथुः) प्राप्त करते हो (ररावा युवयोः सख्यं परि-आसते) दान करनेवाला तुम दोनों की मित्रता को प्राप्त होता है या आश्रय करता है (अहं युवयोः-अवसा सुम्नम्-आ चके) मैं गृहस्थ तुम दोनों के रक्षण करनेवाले प्रवचन से सुख को चाहता हूँ ॥७॥

    भावार्थ

    शिक्षित स्त्री-पुरुषों को यथासाधन चारों वर्णों को सहयोग देना और उनके सहयोग से सुख की कामना करनी चाहिए ॥७॥

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    विषय

    भुज्यु -वश- शिञ्जार- उशमा - ररावा

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (ह) = निश्चय से (भुज्युम्) = [भुज् - यु] पालन के लिये भोजन करनेवाले को (उपारथुः) = प्राप्त होते हो। दूसरे शब्दों में शरीर-रक्षण के लिये ही भोजन करनेवाला 'प्राणयात्रिक मात्र' पुरुष प्राणापान की शक्ति को प्राप्त करता है। [२] (युवम्) = आप दोनों (वशम्) = अपनी इन्द्रियों को वश में करनेवाले को प्राप्त होते हो । जितेन्द्रिय पुरुष ही प्राणापान की शक्ति का वर्धन करनेवाला होता है । [३] (युवम्) = आप दोनों (शिञ्जारम्) = भूषणों के शब्द की तरह मधुर शब्दों में प्रभु-उपासन करनेवाले को प्राप्त होते हो । प्रभु उपासना जितेन्द्रिय बनने में सहायक होती हैं, और जितेन्द्रिय पुरुष ही प्राणयात्रा के लिये ही, न कि स्वाद के लिये, भोजन करनेवाला होता है। [४] (उशनाम्) = [नि० ६ । १३] सर्वहित की कामना करनेवाले को आप प्राप्त होते हो । द्वेषादि से प्राणापान की शक्ति की क्षीणता होती है। द्वेष से ऊपर उठकर हृदय में सब के भद्र का चिन्तन करने से प्राणापान की शक्ति का वर्धन होता है। सर्वहित की भावना 'शिञ्जार' = प्रभु-भक्त में ही उत्पन्न होती है । [५] (ररावा) = खूब देनेवाला, त्याग की वृत्तिवाला पुरुष, (युवोः) = आप दोनों के (सख्यम्) = मित्रता को परि आसते सर्वथा प्राप्त करता है। स्वार्थ की भावना भी प्राणशक्ति का क्षय करती है। सो (अहम्) = मैं (युवोः अवसा) = आप दोनों के रक्षण से (सुम्नम्) = सुख की (आचके) = कामना करता हूँ । प्राणापान का रक्षण मिलने पर ही मनुष्य का जीवन सुखी होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान की शक्ति 'भुज्यु - वश - शिञ्जार- उशना व ररावा' को प्राप्त होती है । 'भुज्यु' बनने के लिये, 'वश' होने की आवश्यकता है। 'वश' बनने के लिये 'शिञ्जार' बनना सहायक होता है। 'शिञ्जार' अवश्य 'उशना' बनता है और वह 'ररावा' होता है । एवं 'शिञ्जार' केन्द्रीभूत शब्द है। एक ओर वह हमें 'भुज्यु व वश' बनाता है, तो दूसरी ओर हम उससे 'उशना व ररावा' बनते हैं। एवं प्रभु-स्तवन का महत्त्व सुव्यक्त है ।

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    विषय

    सभा सेना के अध्यक्षों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (अश्विना) विद्या में निपुण एवं जितेन्द्रिय ! रथी सारथीवत् स्त्री पुरुषो वा सभा सेना के अध्यक्षो ! (युवं ह) आप दोनों निश्चय से (भुज्युम् उपारथुः) उत्तम पालक को प्राप्त होवो। (युवं) तुम दोनों (वशं) वश करने वाले, कान्तियुक्त तेजस्वी पुरुष को प्राप्त करो (युवं शिंजारं) तुम दोनों उत्तम वचन कहने और उत्तम शब्द करने वालों को प्राप्त करो तुम दोनों (उशनाम्) अपने को चाहने वाले सहयोगी को प्राप्त करो। (युवोः ररावा) तुम दोनों का उत्तम दाता और उपदेष्टा (सख्यं परि आसते) मित्रभाव को प्राप्त करे। और (अहम्) मैं उपदेष्टा वा उपदेष्ट्री भी (अवसा) आप दोनों की रक्षाशक्ति, ज्ञान और स्नेह से (सुम्नम् आ चके) सुख चाहती हूं, वा चाहता हूँ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्घोषा काक्षीवती॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:– १, ५, १२, १४ विराड् जगती। २, ३, ७, १०, १३ जगती। ४, ९, ११ निचृज्जगती। ६,८ पादनिचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अश्विना युवम्) हे शिक्षितस्त्रीपुरुषौ !  युवाम् (ह) अवश्यम् (भुज्युम्) भोगप्रदं पालकं राजानम् (युवं वशम्) युवां वशे वर्तमानं भृत्यं पालनीयं शूद्रम् (युवं शिञ्जारम्) युवां शान्तवक्तारं ब्राह्मणम् “शिञ्जे शब्दं करोति” [निरु० ९।१८] (उशनाम्) धनधान्यं कामयमानं वैश्यम् “उशना कामयमाना” [ऋ० १।१५१।१० दयानन्दः] (उपारथुः) उपगच्छथः-प्राप्नुथः (ररावा युवयोः सख्यं परि-आसते) दानकर्त्ता युवयोः पितृत्वमाश्रयति (अहं युवयोः-अवसा सुम्नम्-आचके) अहं गृहस्थो युवयोः रक्षणकारकेण प्रवचनेन सुखं वाञ्छामि ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, protect the protector and sustainer of the people’s standard of living, protect the dependent and supporter, protect him who appreciates and adores, and protect the poet of love and beauty. Your generous admirer loves to be friends with you, and I too pray for your protection and gift of well being. Pray help all these people to complete their journey of life to self- fulfilment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शिक्षित स्त्री-पुरुषांनी योग्य साधनांद्वारे चारही वर्णांचा सहयोग केला पाहिजे व त्यांच्या सहयोगाने सुखाची कामना केली पाहिजे. ॥७॥

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