ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 14
क्व॑ स्विद॒द्य क॑त॒मास्व॒श्विना॑ वि॒क्षु द॒स्रा मा॑दयेते शु॒भस्पती॑ । क ईं॒ नि ये॑मे कत॒मस्य॑ जग्मतु॒र्विप्र॑स्य वा॒ यज॑मानस्य वा गृ॒हम् ॥
स्वर सहित पद पाठक्व॑ । स्वि॒त् । अ॒द्य । क॒त॒मासु॑ । अ॒श्विना॑ । वि॒क्षु । द॒स्रा । मा॒द॒ये॒ते॒ इति॑ । शु॒भः । पती॒ इति॑ । कः । ई॒म् । नि । ये॒मे॒ । क॒त॒मस्य॑ । ज॒ग्म॒तुः॒ । विप्र॑स्य । वा॒ । यज॑मानस्य । वा॒ । गृ॒हम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्व स्विदद्य कतमास्वश्विना विक्षु दस्रा मादयेते शुभस्पती । क ईं नि येमे कतमस्य जग्मतुर्विप्रस्य वा यजमानस्य वा गृहम् ॥
स्वर रहित पद पाठक्व । स्वित् । अद्य । कतमासु । अश्विना । विक्षु । दस्रा । मादयेते इति । शुभः । पती इति । कः । ईम् । नि । येमे । कतमस्य । जग्मतुः । विप्रस्य । वा । यजमानस्य । वा । गृहम् ॥ १०.४०.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 14
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दस्रा शुभस्पती-अश्विना) हे दर्शनीय कल्याणप्रद सुशिक्षित स्त्री-पुरुषों ! इस समय कहाँ रहते हो (कतमासु विक्षु मादयेते) आप किन मनुष्यप्रजाओं में हर्ष प्राप्त करते हो (कः-ईं नियेमे) कौन गृहस्थ अपने स्थान पर रोकता है या नियम से रखता है। (कतमस्य विप्रस्य वा यजमानस्य वा गृहं जग्मतुः) किस विद्वान् मेधावी के या यजमान के सत्कारार्थ घर को जाते हो, इस प्रकार सभी स्त्री-पुरुषों के अपने घर निमन्त्रित करने की आकाङ्क्षा करनी चाहिए ॥१४॥
भावार्थ
कल्याण का उपदेश देनेवाले सुशिक्षित वृद्ध स्त्री-पुरुषों के पास जाकर पूछना चाहिए कि आप किस घर में उपदेश देते हो, कहाँ तुम सत्कार और हर्ष को प्राप्त करते हो, कौन गृहस्थ आदर से अपने घर रखता है ? इस प्रकार उनसे पूछकर वैसे ही शिष्टाचारपूर्वक बर्ताव कर अपने घर बुलाकर लाभ उठाएँ ॥१४॥
विषय
उल्लास पूरणता व यज्ञशीलता
पदार्थ
[१] प्राणापान का आराधक प्राणसिद्धि को न देखकर आतुरता से कहता है कि हे (दस्त्रा) = सब दोषों का उपक्षय करनेवाले [दस्-उपक्षये] उपक्षय करनेवाले (शुभस्पती) = सब शुभों के रक्षक (अश्विना) = अश्विनी (देवो) = प्राणापानो! (अद्य) = आज आप (क्व स्वित्) = कहाँ हो ! मैं तो आपको प्राप्त नहीं कर रहा। (कतमासु विक्षु) = किन प्रजाओं में (मादयेते) = आप आनन्द का अनुभव कर रहे हो । कौन प्रजाएँ आपकी साधना से आनन्द व तृप्ति का अनुभव कर रही हैं ? (कः) = कौन (ईम्) = सचमुच (नियेमे) = आपका नियमन करता है। आपका नियमन करनेवाला वस्तुतः सुखी [कः] होता है । [२] आप (कतमस्य) = अत्यन्त आनन्दमय मनोवृत्तिवाले (विप्रस्य) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले (वा) = तथा (यजमानस्य) = यज्ञशील पुरुष के (गृहम्) = घर (जग्मतुः) = जाते हैं । अर्थात् प्राणापान की साधना वही कर पाता है जो कि [क] मन में आनन्द व उल्लास को रखे, [ख] अपनी कमियों को दूर करने की भावनावाला हो तथा [ग] यज्ञशील होता है। इसी प्रकार प्राणसाधना से 'उल्लास, पूरणता व यज्ञशीलता' प्राप्त होती है ।
भावार्थ
भावार्थ- मैं प्राणसाधना के लिये आतुर बनूँ । प्राणसाधना करके जीवन को उल्लासमय बनाऊँ, कमियों को दूर कर पाऊँ तथा यज्ञियवृत्तिवाला होऊँ । सूक्त का प्रारम्भ प्रभु रूप रथ के वर्णन से होता है, [१] प्राणों के सहाय से ही यह जीवनयात्रा पूर्ण होती है, [२] प्राणापान शरीर के दोषों को जीर्ण करनेवाले हैं, [३] ये शरीर में सब शुभों का रक्षण करते हैं, [४] प्राणसाधना के लिये प्रभु-स्तवन, क्रियाशीलता व नियमपरायणता आवश्यक है, [५] ये शरीर रूप रथ को सुदृढ़ बनाते हैं, [६] प्राणापान की शक्ति 'भुज्यु, वश, शिञ्जार व उशना' को प्राप्त होती है, [७] ये हमारी इन्द्रियों को विषय-भोग-प्रवण नहीं होने देते, [८] हमें अपनी इन्द्रियों का पति बनना है नकि दास, [९] हम 'प्रभु स्मरण, यज्ञरुचिता व व्रतबन्धन' को अपनाने का प्रयत्न करें, [१०] घर में पति वही ठीक है जो कि अनपढ़ नहीं और कमजोर नहीं, [११] पति न कामातुर हो न कृपण, [१२] हमारा घर तीर्थ बन जाये, [१३] हम उल्लास- पूरणता की प्रवृत्ति, तथा यज्ञशीलता को धारण करें, [१४] प्रातः प्रभु का स्मरण करें-
विषय
प्रसन्न रहें, उत्तम विद्वान् का सत्संग करें।
भावार्थ
हे (अश्विना) उत्तम विद्यावान् पुरुषो ! हे (दस्रा) दुष्टों और दुर्गुणों के नाश करने वाले स्त्री पुरुषो ! (अद्य) आज (क्वस्वित्) कहां और (कतमासु विक्षु) किन विशेष प्रजाओं के बीच (मादयेते) सब को प्रसन्न करो और स्वयं भी प्रसन्न होवो ? हे (शुभस्पती) शुभ-गुणों के पालक जनो ! (ईम् कः नियेमे) इन आप दोनों को कौन बांध वा, नियम में रख सकता है ? और (कतमस्य विप्रस्य) किस विद्वान् पुरुष के (गृहम्) गृह और (कतमस्य यजमानस्य गृहम्) किस धन ज्ञान आदि के दाता, स्वामी के गृह पर (जग्मतुः) जाओ, यह बात ठीक २ विवेक से जानो। इति विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्घोषा काक्षीवती॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:– १, ५, १२, १४ विराड् जगती। २, ३, ७, १०, १३ जगती। ४, ९, ११ निचृज्जगती। ६,८ पादनिचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(दस्रा शुभस्पती-अश्विना) हे दर्शनीयौ “दस् दर्शने” [चुरादिः] औणादिको रक् प्रत्ययः, कल्याणस्वामिनौ कल्याणप्रदौ सुशिक्षितौ स्थविरौ स्त्रीपुरुषौ ! युवाम् (अद्य क्वस्वित्) अद्य कुत्र हि स्थः (कतमासु विक्षु मादयेते) कतमासु मनुष्यप्रजासु हर्षमाप्नुथः (कः ईम्-नियेमे) कः खलु गृहस्थ एवं स्वस्थानेऽवरोधयति यद्वा नियमेन रक्षति (कतमस्य विप्रस्य वा यजमानस्य वा गृहं जग्मतुः) कतमस्य विदुषो मेधाविनो वा यजमानस्य सत्कर्तुं गृहं गच्छथः-जग्मतुः मध्यमस्य स्थाने प्रथमा व्यत्ययेन एतौ-अश्विनौ स्थविरौ स्त्रीपुरुषाविति विचारणा स्वगृहे निमन्त्रणाकाङ्क्षा कार्या ॥१४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, lustrous divinities, wondrous workers, where have you been today? Among which people have you been enjoying yourselves for the day? Who can make you stay for the day? Which sage’s or which yajamana’s home did you visit for the day?
मराठी (1)
भावार्थ
कल्याणाचा उपदेश देणाऱ्या सुशिक्षित वृद्ध पुरुषांजवळ जाऊन विचारले पाहिजे की तुम्ही कोणत्या घरी उपदेश देता? सत्कार व हर्ष कुठून प्राप्त करता? कोण गृहस्थ आदराने आपल्या घरी ठेवतो? या प्रकारे त्यांना विचारून तसेच शिष्टाचारपूर्वक वर्तणूक करून आपल्या घरी बोलावून लाभ घ्यावा. ॥१४॥
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