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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 6
    ऋषिः - घोषा काक्षीवती देवता - अश्विनौ छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    यु॒वं क॒वी ष्ठ॒: पर्य॑श्विना॒ रथं॒ विशो॒ न कुत्सो॑ जरि॒तुर्न॑शायथः । यु॒वोर्ह॒ मक्षा॒ पर्य॑श्विना॒ मध्वा॒सा भ॑रत निष्कृ॒तं न योष॑णा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । क॒वी इति॑ । स्थः॒ । परि॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । रथ॑म् । विशः॑ । न । कुत्सः॑ । ज॒रि॒तुः । न॒शा॒य॒थः॒ । यु॒वोः । ह॒ । मक्षा॑ । परि॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । मधु॑ । आ॒सा । भ॒र॒त॒ । निः॒ । कृ॒तम् । न । योष॑णा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं कवी ष्ठ: पर्यश्विना रथं विशो न कुत्सो जरितुर्नशायथः । युवोर्ह मक्षा पर्यश्विना मध्वासा भरत निष्कृतं न योषणा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम् । कवी इति । स्थः । परि । अश्विना । रथम् । विशः । न । कुत्सः । जरितुः । नशायथः । युवोः । ह । मक्षा । परि । अश्विना । मधु । आसा । भरत । निः । कृतम् । न । योषणा ॥ १०.४०.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अश्विना युवम्) हे शिक्षित स्त्री-पुरुषों ! तुम (कवी स्थः) ज्ञानी हो (विशः-न रथम्) प्रजाएँ जिस प्रकार रमणीक सुखप्रद राजा को धारण करती हैं-उसकी आज्ञा में चलती हैं (कुत्सः-जरितुः-नशायथः) जो स्तुतिकर्त्ता है, उस स्तुतिकर्त्ता के अभिप्राय या अभीष्ट को तुम पूरा करते हो (युवोः-ह मक्षा) तुम दोनों मधुमक्षिका जैसे (आसा) मुख से (मधु परि भरत) मधु को चारों ओर से लेती है, वैसे ही (योषणा न निष्कृतम्) अथवा गृहिणी जैसे घर को सब ओर से सुसज्जित रखती है, वैसे तुम भी रखो ॥६॥

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुष शिक्षित होकर सुखद राजा के शासन में रहते हुए और परमात्मा की स्तुति करते हुए गृहस्थ जीवन का सुख संचित करें। सद्गृहिणी रहने के स्थान को सुसंस्कृत रखे ॥६॥

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    विषय

    मधु-भरण

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (कवी) = क्रान्तप्रज्ञ, अत्यन्त मेधावी (स्थः) = हो आपकी साधना से ही तीव्र बुद्धि प्राप्त होती है। [२] (अश्विना) = प्राणापानो! आप ही (रथं परिस्थः) = इस शरीर रूप रथ को सब ओर से सुरक्षित करते हो। प्राणापान ही शरीर की रोगादि के आक्रमण से रक्षा करते हैं । उसी प्रकार रक्षा करते हैं, (न) = जैसे (कुत्सः) = [कुत्सयते इति कुत्स, तस्य] बुराई की निन्दा करनेवाले (जरितुः) [जरते = to fraise] = स्तोता (विश:) = पुरुष की (परि नशायथः) = रक्षा के लिये सर्वतः प्राप्त होते हैं । प्राणसाधना के साथ यह आवश्यक है कि- [क] हम अशुभ को अशुभ समझें और उसे अपने से दूर करने के लिये यत्नशील हों [कुत्स्], [ख] तथा अशुभ को दूर करने के लिये ही प्रभु के स्तवन को अपनाएँ [ जरिता] । [३] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (मक्षा) = मक्खी (ह) = निश्चय से (युवो:) = आप दोनों के (आसा) = मुख से (मधु) = शहद को (परि-भरत) = धारण करती है । (न) = उसी प्रकार धारण करती है जैसे कि (योषणा) = एक स्त्री (निष्कृतम्) = परिशुद्ध गृह को धारण करती है। इस उपमा से दो बातें स्पष्ट की गई है कि- [क] मधु कोई उच्छिष्ट वस्तु नहीं, वह तो (निष्कृत) = पूर्ण शुद्ध है। [ख] यह शहद दोषों को दूर करके उत्तमताओं का आधान करनेवाला है [योषणा- यु- मिश्रणा - अमिश्रण]। यह कहने से कि 'मक्खी आपके [प्राणापान के] मुख से शहद को बनाती है' भाव यह है कि शहद प्राणापान का वर्धन करनेवाला है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान जहाँ बुद्धि का वर्धन करते हैं, वहाँ शरीररूप रथ को सुदृढ़ बनाते हैं । शहद प्राणापान का वर्धन करनेवाला है । सम्भवतः इसीलिए यह अश्विनी देवों का भोजन कहलाता है।

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    विषय

    उत्तम स्त्री पुरुषों के शासन कर्त्तव्य। मुख से मधुर बोलें, गृहणीवत् प्रजा-सभा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (कवी) दूरदर्शी विद्वानो ! हे (अश्विना) विद्या आदि में पारंगत जनो ! आप दोनों (कुत्सः न) शत्रुओं के गात्र काटने वाले वज्र के समान (जरितुः विशः) स्तुतिकर्त्ता, प्रजावर्ग के ऊपर (रथं परि स्थः) रथ पर सदा रह कर शासन करो। और (नशायथः प्रजा के दुःखों का नाश किया करो। हे (अश्विना) अश्वादि के स्वामी जनो ! विद्वान् स्त्री पुरुषो ! (युवोः) तुम दोनों के अधीन सभा सेना (मक्षा) मधु-मक्खी के समान (आसा) मुख द्वारा (मधु) मधु तुल्य मधुर वचन और उत्तम अन्न ज्ञान बल (परि भरतं) धारण करो। (योषणा न निष्कृतम्) स्त्री जिस प्रकार गृह को संभालती है उसी प्रकार प्रेमयुक्त प्रजा-सभा वा सेना और उनके पति (निष्कृतम्) देश को वा निष्पादित निर्णय वा ऐश्वर्य को. सप्रेम धारण करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्घोषा काक्षीवती॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:– १, ५, १२, १४ विराड् जगती। २, ३, ७, १०, १३ जगती। ४, ९, ११ निचृज्जगती। ६,८ पादनिचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अश्विना युवम्) हे शिक्षितौ स्थविरौ स्त्रीपुरुषौ ! युवाम् (कवी स्थः) क्रान्तदर्शिनौ ज्ञानिनौ स्थः (विशः न रथम्) प्रजाः-यथा रमणीयं सुखप्रदं राजानं धारयन्ति (कुत्सः जरितुः-नशायथः) यः स्तुतिकर्त्ता “कुत्सः कर्त्ता स्तोमानाम्” [निरु० ३।१२] तस्य स्तुतिकर्त्तुरभिप्रायं प्राप्नुथः “नशत्-व्याप्तिकर्मा” [निघ० २।१८] (युवोः ह मक्षा) युवां मधुमक्षिका यथा ‘विभक्तिव्यत्ययेन प्रथमास्थाने षष्ठी’ (आसा) आस्येन मुखेन (मधु परि भरत) मधु परितो गृह्णाति तद्वत् (योषणा न निष्कृतम्) अथवा गृहिणी सुसंस्कृतं गृहं परितो रक्षति तथा भवतम् ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, you are visionary poetic creators, stay fast on the chariot, go to the people and appreciate their songs of adoration as a creator and maker of songs would. The honey sweets of your creation, the honey bees taste and drink with their mouth as a youthful woman loves the sweet beauty of her new home.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुषांनी शिक्षित बनून सुखद राजाच्या शासनात राहून परमात्म्याची स्तुती करत गृहस्थ जीवनाचे सुख संचित करावे. सद्गृहिणीने राहण्याचे स्थान परिष्कृत करावे. ॥६॥

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