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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 8
    ऋषिः - घोषा काक्षीवती देवता - अश्विनौ छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    यु॒वं ह॑ कृ॒शं यु॒वम॑श्विना श॒युं यु॒वं वि॒धन्तं॑ वि॒धवा॑मुरुष्यथः । यु॒वं स॒निभ्य॑: स्त॒नय॑न्तमश्वि॒नाप॑ व्र॒जमू॑र्णुथः स॒प्तास्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । ह॒ । कृ॒शम् । यु॒वम् । अ॒श्वि॒ना॒ । श॒युम् । यु॒वम् । वि॒धन्त॑म् । वि॒धवा॑म् । उ॒रु॒ष्य॒थः॒ । यु॒वम् । स॒निऽभ्यः॑ । स्त॒नय॑न्तम् । अ॒श्वि॒ना॒ । अप॑ । व्र॒जम् । ऊ॒र्णु॒थः॒ । स॒प्तऽआ॑स्यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं ह कृशं युवमश्विना शयुं युवं विधन्तं विधवामुरुष्यथः । युवं सनिभ्य: स्तनयन्तमश्विनाप व्रजमूर्णुथः सप्तास्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम् । ह । कृशम् । युवम् । अश्विना । शयुम् । युवम् । विधन्तम् । विधवाम् । उरुष्यथः । युवम् । सनिऽभ्यः । स्तनयन्तम् । अश्विना । अप । व्रजम् । ऊर्णुथः । सप्तऽआस्यम् ॥ १०.४०.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अश्विना) हे शिक्षित स्त्री-पुरुषों ! (युवम्) तुम दोनों (ह) अवश्य (कृशम्) क्षीण को (शयुम्) असावधान को (युवम्) तुम (विधन्तम्) विधुर-पत्नीरहित को (विधवाम्) पतिहीन स्त्री को (उरुष्यथः) रक्षित करते हो (युवम्) तुम दोनों (सनिभ्यः) ज्ञान का सेवन करनेवाले श्रोताओं के लिए (सप्तास्यं स्तनयन्तम्) सप्तछन्दों-मन्त्रों से युक्त मुखवाले उपदेष्टा (व्रजम्) वर्जनशील अथिति को (अप-ऊर्णुथः) न रोको, जाने दो ॥८॥

    भावार्थ

    सुशिक्षित स्त्री-पुरुषों को चाहिए कि वे क्षीण, असावधान, विधुर और विधवाओं की रक्षा करें तथा वेदवक्ता अथितियों के लिए यत्न-तत्र जाने की सुविधा दें ॥८॥

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    विषय

    सप्तास्य व्रज का अपवारण

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवं ह) = आप ही (कृशम्) = दुर्बल को, दुर्बल को ही क्या ! (युवम्) = आप तो (शयुम्) = जो रोगाकान्त होकर लेट ही गया है उस पुरुष को भी (उरुष्यथः) = रक्षित करते हो । प्राणापान की शक्ति के वर्धन से कृश फिर से मांसल [= बलवान्] हो जाता है और खाट पर पड़ा हुआ भी उठ बैठता है। [२] यह 'कृश' और 'शयु' आपसे रक्षित तभी होते हैं जब ये (विधन्तम्) = प्रभु का उपासन करनेवाले होते हैं । प्रभु की उपासना से इनका मन सबल बना रहता है और मन के सबल होने पर प्राणापानों के लिये शरीर के दोष दूर करने का उत्तम अवसर बना रहता है। प्रभु के उपासन से दूर होकर यदि मन विकल्पों से भर जाए तो फिर उस विकल्पग्रस्त पुरुष के लिये प्राणापान सहायक नहीं हो पाते। [३] (युवम्) = आप दोनों (सनिभ्यः) = संविभागपूर्वक खानेवालों के लिये और इस प्रकार हव्यवृत्ति से प्रभु का उपासन करनेवालों के लिये (स्तनयन्तम्) = गर्जना करते हुए, अर्थात् प्रबल होते हुए (सप्तास्यम्) = सात मुखोंवाले (व्रजम्) = व्यसन समूह को (अप ऊर्णुथः) = दूर ही रोक देते हो [उर्णुः अपवारणे] 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम् ' इस मन्त्र भाग में 'दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख' ये सात ऋषि कहे गये हैं। क्योंकि ये ज्ञान प्राप्ति के साधनभूत हैं । परन्तु जब ये ज्ञान प्राप्ति के स्थान में विषयास्वाद में प्रसित हो जाते हैं तो ये ही 'सप्तास्य' बन जाते हैं। हमारा यह इन्द्रिय-समूह विषयों के भोगने में ही लग जाता है। यह 'सप्तास्य व्रज' प्रबल है, इसे जीत लेना सुगम नहीं। यही भाव 'स्तनयन्तं' शब्द से संकेतित हो रहा है। पर प्राणसाधना करने पर यह सप्तास्य व्रज हमारे से दूर रहता है और हम 'सप्तर्षियों' वाले ही बने रहते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान 'कृश व शयु' को भी प्राणशक्ति सम्पन्न बना देते हैं। ये हमारी इन्द्रियों को विषय-भोग-प्रवण नहीं होने देते ।

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    विषय

    विद्वान् स्त्री पुरुप अचेत, सेवक, विधवा, ज्ञानदाता और उपदेष्टा आदि का पालन करें और अपने इन्द्रियों का दमन करें। (

    भावार्थ

    (युवं ह) हे स्त्री पुरुषो ! विद्वानो ! आप दोनों (कृशम्) कृश, निर्बल की और (युवं शयम्) तुम दोनों सोने वाले, अचेत की और (युवं विधन्तं) तुम दोनों उत्तम सेवा करनेवाले की और (विधवाम्) पतिहीन स्त्री की (उरुष्यथः) सदा रक्षा किया करो। हे (अश्विना) उत्तम विद्वान् स्त्री पुरुषो ! (युवं) आप दोनों (सनिभ्यः) ज्ञान के देने वाले गुरुजनों के लिये (स्तनयन्तम्) स्तनवत् मधुर ज्ञान धारा पिलाने वा उत्तम उपदेश करने वाले के प्रति (सप्तास्यम्) सात मुख वाले (व्रजम्) इन्द्रियगण को (अप ऊर्णुथः) उद्धार करो और उनको व्यसनों से बचा कर रखो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्घोषा काक्षीवती॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:– १, ५, १२, १४ विराड् जगती। २, ३, ७, १०, १३ जगती। ४, ९, ११ निचृज्जगती। ६,८ पादनिचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अश्विना) हे शिक्षितौ स्त्रीपुरुषौ ! (युवम्) युवाम् (ह) खलु (कृशम्) क्षीणम् (शयुम्) असावधानम् (युवम्) युवाम् (विधन्तम्) भ्रान्तम्-सहयोगिनीविहीनम् (विधवाम्) पतिविहीनाम् (उरुष्यथः) रक्षथः “उरुष्यती रक्षाकर्मा” [निरु० ५।२३] (युवम्) युवाम् (सनिभ्यः स्तनयन्तं सप्तास्यं व्रजम्-अप ऊर्णुथः) ज्ञानसम्भक्तृभ्यः श्रोतृभ्यः सप्तास्य सप्तछन्दांसि मन्त्राः-आस्ये मुखे यस्य तं शब्दायमानमुपदेष्टारं व्रजनशीलमतिथिं नावरोधयथः, गमनाय समर्थयथः ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, both of you, pray protect and support the weak, the depressed, the supporter of the weak, and the widow who has lost all support. And, O Ashvins, for the lovers of knowledge and devotees of yajna and divinity, open the seven rousing flood gates of the seven metres of Vedic poetry for chanting and hearing.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सुशिक्षित स्त्री-पुरुषांनी क्षीण, असावधान, विधुर व विधवांचे रक्षण करावे व वेदवक्ते अतिथींसाठी इकडे तिकडे जाण्याची व्यवस्था करावी. ॥८॥

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