ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 47/ मन्त्र 3
ऋषिः - सप्तगुः
देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सु॒ब्रह्मा॑णं दे॒वव॑न्तं बृ॒हन्त॑मु॒रुं ग॑भी॒रं पृ॒थुबु॑ध्नमिन्द्र । श्रु॒तऋ॑षिमु॒ग्रम॑भिमाति॒षाह॑म॒स्मभ्यं॑ चि॒त्रं वृष॑णं र॒यिं दा॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽब्रह्मा॑णम् । दे॒वऽव॑न्तम् । बृ॒हन्त॑म् । उ॒रुम् । ग॒भी॒रम् । पृ॒थुऽबु॑ध्नम् । इ॒न्द्र॒ । श्रु॒तऽऋ॑षिम् । उ॒ग्रम् । अ॒भि॒मा॒ति॒ऽसह॑म् । अ॒स्मभ्य॑म् । चि॒त्रम् । वृष॑णम् । र॒यिम् । दाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुब्रह्माणं देववन्तं बृहन्तमुरुं गभीरं पृथुबुध्नमिन्द्र । श्रुतऋषिमुग्रमभिमातिषाहमस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा: ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽब्रह्माणम् । देवऽवन्तम् । बृहन्तम् । उरुम् । गभीरम् । पृथुऽबुध्नम् । इन्द्र । श्रुतऽऋषिम् । उग्रम् । अभिमातिऽसहम् । अस्मभ्यम् । चित्रम् । वृषणम् । रयिम् । दाः ॥ १०.४७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 47; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सुब्रह्माणम्) शोभन वेदज्ञान के स्वामी (देवयन्तम्) मुमुक्षुओं के चाहनेवाले (बृहन्तम्) सर्वतो महान् (उरुम्) अनन्त (गभीरम्) अपार (पृथुबुध्नम्) सब जगत् के प्रथितमूल (श्रुतऋषिम्) ऋषियों द्वारा श्रवण करने योग्य (उग्रम्) सब के ऊपर विराजमान (अभिमातिषहम्) अभिमानी जनों के दबानेवाले परमात्मा को जानते हैं-मानते हैं (इन्द्र) वह तू इन्द्र ! (अस्मभ्यम्…) पूर्ववत् ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा उत्तम वेदज्ञान का स्वामी है। सबसे महान्, अनन्त, जगत् का आदि कारण, ऋषियों द्वारा श्रवण करने योग्य, सर्वोपरि विराजमान, अभिमानियों का मानमर्दक है। उस परमात्मा को जानना चाहिए, वह हमें निश्चितरूप से धन और सुख से संपन्न कर सकता है ॥३॥
विषय
निरभिमान
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (रयिं दाः) = पुत्र नामक धन को दीजिये । उस पुत्र को जो [क] (सुब्रह्माणम्) = उत्कृष्ट स्तोत्रोंवाला है उत्तम स्तोत्रों के द्वारा प्रभु का स्तवन करनेवाला है। [ख] (देववन्तम्) = उत्तम दिव्यगुणोंवाला है, [ग] (बृहन्तम्) = बढ़ी हुई शक्तियोंवाला है, [घ] (उरुम्) = विशाल हृदय है, [ङ] (गभीरम्) = गम्भीर प्रकृति का है, [च] (पृथुब्रध्नम्) = जो विस्तीर्ण मूलवाला है। धर्मार्थ काम मोक्षों का आरोग्य ही उत्तम मूल है, यह आरोग्य जिसका खूब विस्तृत है, अर्थात् जिसके सब अंग-प्रत्यंग स्वस्थ हैं । [छ] (श्रुतऋषिम्) = जो वेद मन्त्रों का श्रवण करनेवाला है [ऋषि वेदः] ज्ञान की रुचिवाला है । [ज] (उग्रम्) = तेजस्वी है, [झ] (अभिमातिषाहम्) = अभिमान रूप शत्रु का पराभव करनेवाला है, निरभिमान है । [ञ] (चित्रम्) = ज्ञान देनेवाला है और वृषणम् शक्तिशाली है व औरों पर सुखों का वर्षण करनेवाला है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे सन्तान मन्त्र वर्णित ग्यारह विशेषणों से विशिष्ट हों ।
विषय
सर्वज्ञ, सर्वोपरि, सर्वस्वामी।
भावार्थ
हे (इन्द्र) प्रभो ! हे वीर राजन् ! हम तुझे (सु-ब्रह्माणं) उत्तम, महान्, स्वामी, चारों वेदों का जानने वाला, (देववन्तम्) लोकों, दिव्य पदार्थों और देवों, विद्वानों का स्वामी, (बृहन्तम्) महान्, (उरुं) बड़ा भारी, (गभीरं) गंभीर, अगाध, (पृथु-बुध्नम्) विशाल आश्रय वाला (श्रुत-ऋषिम्) ज्ञानदर्शी गुरु, शिष्यों द्वारा श्रवण करने योग्य वा, ऋषिजनों के ज्ञानों का श्रवण करने वाला, बहुश्रुत, (उग्रम्) दुष्टों को भय देने वाला, (अभिमाति-सहम्) अभिमानी, दुष्टों का मद चूर्ण करने वाला जानते हैं। ऐसे २ उक्त विशेषणों से युक्त तुझ को हम सदा पावें। तू (अस्मभ्यं) हमें (चित्रं वृषणं रयिं दाः) ज्ञानप्रद, सुखप्रद धनैश्वर्य दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सप्तगुः॥ देवता–इन्द्रो वैकुण्ठः॥ छन्द:– १, ४, ७ त्रिष्टुप्। २ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ५, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सुब्रह्माणम्) शोभनवेदज्ञानस्वामिनम् (देवयन्तम्) मुमुक्षून् कामयमानम् (बृहन्तम्) सर्वतो महान्तम् (उरुम्) विस्तीर्णमनन्तम् (गभीरम्) अपारम् (पृथुबुध्नम्) सर्वस्य जगतः प्रथितमूलरूपम् श्रुतऋषिम्) श्रुतः श्रोतव्य ऋषिभिस्तथाभूतो यस्तम् (उग्रम्) उद्गूर्णं सर्वत उपरि वर्तमानम् (अभिमातिषहम्) अभिमानिनां परिभावकं त्वामिन्द्रं परमात्मानं विद्म जानीम इति (इन्द्र) स त्वमिन्द्र ! (अस्मभ्यम्…) पूर्ववत् ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
We know you, Indra, lord of divine speech, highest lover of divinities, greatest, boundless, deepest, foundation of the expansive universe, exalted among seers and sages, blazing lustrous, destroyer of opponents. Pray, bear and bring us abundant and wondrous wealth of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उत्तम वेदज्ञानाचा स्वामी आहे. सर्वांत महान, अनंत, जगाचे आदि कारण, ऋषिद्वारे श्रवण करण्यायोग्य, संपूर्णपणे श्रेष्ठरूपाने विराजमान, अभिमानी लोकांचा मानमर्दक, अशा परमेश्वराला जाणले पाहिजे. तो निश्चितपणे धन व सुखाने संपन्न करू शकतो. ॥३॥
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