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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 47/ मन्त्र 8
    ऋषिः - सप्तगुः देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यत्त्वा॒ यामि॑ द॒द्धि तन्न॑ इन्द्र बृ॒हन्तं॒ क्षय॒मस॑मं॒ जना॑नाम् । अ॒भि तद्द्यावा॑पृथि॒वी गृ॑णीताम॒स्मभ्यं॑ चि॒त्रं वृष॑णं र॒यिं दा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । त्वा॒ । यामि॑ । द॒द्धि । तत् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । बृ॒हन्त॑म् । क्षय॑म् । अस॑मम् । जना॑नाम् । अ॒भि । तत् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । गृ॒णी॒ता॒म् । अ॒स्मभ्य॑म् । चि॒त्रम् । वृष॑णम् । र॒यिम् । दाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्त्वा यामि दद्धि तन्न इन्द्र बृहन्तं क्षयमसमं जनानाम् । अभि तद्द्यावापृथिवी गृणीतामस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । त्वा । यामि । दद्धि । तत् । नः । इन्द्र । बृहन्तम् । क्षयम् । असमम् । जनानाम् । अभि । तत् । द्यावापृथिवी इति । गृणीताम् । अस्मभ्यम् । चित्रम् । वृषणम् । रयिम् । दाः ॥ १०.४७.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 47; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (त्वा) तुझे-तुझसे (यत्-यामि) जो माँगता हूँ या चाहता हूँ (तत्-नः-दद्धि) उसे हमारे लिए प्रदान कर (जनानाम्-असमं क्षयम्) उपासक जनों का अन्यों की अपेक्षा जो विशिष्ट अमरस्थान मोक्ष है, उसे दे (तत्-द्यावापृथिवी-अभि गृणीताम्) उसे माता-पितारूप स्त्री-पुरुष अध्यापिका-अध्यापक, उसका उपदेश करते हैं (अस्मभ्यम्…) पूर्ववत् ॥८॥

    भावार्थ

    उपासकों का अभीष्ट अमरधाम मोक्ष है। उसे प्राप्त करने के लिए परमात्मा से याचना करनी चाहिए। माता-पिता, अध्यापिका-अध्यापक, स्त्री-पुरुष, अपने पुत्रों और शिष्यों को उसकी प्राप्ति करने के यत्न का उपदेश दें ॥८॥

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    विषय

    विशाल - हृदयता

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यत्) = जो (त्वा यामि) = [याचामि ] आप से हम प्रार्थना करते हैं (न:) = हमें (तत्) = वह (दद्धि) = दीजिये । हम चाहते हैं कि आप हमें (बृहन्तं क्षयम्) = एक विशाल निवास-स्थान दें, (जनानां असमम्) = ऐसा विशाल जिसके कि समान औरों का है ही नहीं, यहाँ भौतिक दृष्टिकोण से घर की विशालता का संकेत तो लगता ही है, पर वैदिक साहित्य में इस बाह्य दृष्टि से विशाल घर का इतना महत्त्व नहीं है जितना कि घर में रहनेवाले व्यक्तियों के हृदयों की विशालता का । छठे मन्त्र में 'बृहस्पतिम्' शब्द द्वारा उसका आभास दिया जा चुका है। जिस घर में उदार हृदय पुरुषों का वास है वह घर विशाल ही है । [२] इस प्रकार यह घर उदार हृदयवाले व्यक्तियों से युक्त हो कि (तद्) = उसे (द्यावापृथिवी) = द्युलोक से पृथिवीलोक तक सभी व्यक्ति (अभिगृणीताम्) = स्तुत करें, सभी उस घर की प्रशंसा करें। [३] इस प्रकार विशाल हृदयता को अपनानेवाले (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (रयिं दाः) = उस पुत्राख्य धन को दीजिये जो कि (चित्रम्) = खूब ही ज्ञानी बनकर ज्ञान का देनेवाला बने तथा (वृषणम्) = शक्तिशाली हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे घर विशाल हृदयवाले पुरुषों से युक्त हों जिससे हमारे सन्तान भी उत्तम हों । सूक्त का प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है कि वे प्रभु वसुपति व गोपति हैं, [१] वे हमें क्रियाशील- प्रभु-पूजक सन्तान दें, [२] वह सन्तान जो कि निरभिमान हो, [३] शक्तिशाली व ज्ञानी हो, [४] उत्तम शरीर व इन्द्रियोंवाला हो, [५] सुमेध व विनीत हो, [६] ऐसे सन्तानों की प्राप्ति के लिये हम प्रभु का स्तवन करनेवाले बनें, [७] और विशाल हृदय हों, [८] ऐसा होने पर लोग बुद्धि के दृष्टिकोण से 'वैकुण्ठ' कुण्ठात्व शून्य बुद्धिवाले होंगे [विगता कुण्ठा यस्य] तीव्र बुद्धि होने के साथ वे इन्द्र-शक्तिशाली होंगे। यह 'वैकुण्ठ इन्द्र' ही अग्रिम सूक्त का ऋषि है तथा सर्वमहान् 'वैकुण्ठ इन्द्र" प्रभु ही सूक्त के देवता हैं-

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    विषय

    प्रभु से याचना-विनय और ऐश्वर्य, और रक्षा, स्थानादि की याचना।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (त्वा यत् यामि) मैं तुझ से जिस पदार्थ की याचना करूं, तू (नः तत् दद्धि) हमें वह प्रदान कर। और तू हमें (बृहन्तं क्षयम्) बड़ा भारी ऐश्वर्य, (जनानां असमम्) जो समस्त जनों में सब से अधिक हो, दे। (तत् द्यावा पृथिवी अभि गृणीताम्) उसकी सूर्य और पृथिवी वा माता पिता, राजा, प्रजागण सर्वत्र स्तुति करें। (अस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दाः) हमें सर्वसुखदायक अद्भुत, ज्ञानप्रद, बलयुक्त ऐश्वर्य प्रदान कर। इति चतुर्थो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः सप्तगुः॥ देवता–इन्द्रो वैकुण्ठः॥ छन्द:– १, ४, ७ त्रिष्टुप्। २ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ५, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (त्वा) त्वाम् (यत्-यामि) यत् खलु याचामि याचेऽहम् “यामि याच्ञाकर्मा” [निघ० ३।१९] (तत्-नः-दद्धि) तदस्मभ्यं देहि “दद दाने” [भ्वादिः] ‘लोटि व्यत्ययेन परस्मैपदं बहुलं छन्दसि शपो लुक् च’, तत्किमित्युच्यते (जनानाम्-असमं क्षयम्) उपासकजनानामन्येभ्यो विशिष्टममरस्थानं मोक्षमित्यर्थः (तत्-द्यावापृथिवी-अभिगृणीताम्) तत् खलु मातापितरौ मातापितृभूतौ स्त्रीपुरुषौ, अध्यापिकाध्यापकौ “द्यौर्मे पिता………माता पृथिवी महीयम्” [ऋ० १।१६४।३३] अभ्युपदिशतः (अस्मभ्यम्…) पूर्ववत् ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, what I pray for, graciously grant us, a boundless expansive abode of joy unlike any house of the people on earth. May heaven and earth approve of my prayer and join in the supplication. Indra, lord omnipotent, give us wondrous wealth of the world, creative, abundant, never ending.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उपासकांचे अभीष्ट अमरधाम मोक्ष आहे. त्याला प्राप्त करण्यासाठी परमेश्वराची याचना केली पाहिजे. माता-पिता, अध्यापिका-अध्यापक, स्त्री-पुरुष यांनी आपल्या पुत्रांना व शिष्यांना मोक्षाच्या प्राप्तीचा उपदेश द्यावा. ॥८॥

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