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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 53/ मन्त्र 8
    ऋषिः - देवाः देवता - अग्निः सौचीकः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अश्म॑न्वती रीयते॒ सं र॑भध्व॒मुत्ति॑ष्ठत॒ प्र त॑रता सखायः । अत्रा॑ जहाम॒ ये अस॒न्नशे॑वाः शि॒वान्व॒यमुत्त॑रेमा॒भि वाजा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्म॑न्ऽवती । री॒य॒ते॒ । सम् । र॒भ॒ध्व॒म् । उत् । ति॒ष्ठ॒त॒ । प्र । त॒र॒त॒ । स॒खा॒यः॒ । अत्र॑ । ज॒हा॒म॒ । ये । अस॑न् । अशे॑वाः । शि॒वान् । व॒यम् । उत् । त॒रे॒म॒ । अ॒भि । वाजा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्मन्वती रीयते सं रभध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखायः । अत्रा जहाम ये असन्नशेवाः शिवान्वयमुत्तरेमाभि वाजान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्मन्ऽवती । रीयते । सम् । रभध्वम् । उत् । तिष्ठत । प्र । तरत । सखायः । अत्र । जहाम । ये । असन् । अशेवाः । शिवान् । वयम् । उत् । तरेम । अभि । वाजान् ॥ १०.५३.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 53; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    पदार्थ

    (सखायः) हे अपने को परमात्मा के सखा माननेवाले मुमुक्षुजनो ! (अश्मन्वती रीयते) विषय पाषाणवाली संसारनदी वेग से गति कर रही है-बह रही है (सं रभध्वम्) संभलो (उत् तिष्ठत) उठो-उद्यम करो (प्रतरत) पार करो (ये-अशेवाः-असन्) जो सुखरहित अकल्याणकर पाप दोष हैं (वयम्-अत्र जहाम) हम यहाँ पर उन्हें छोड़ दें (शिवान् वाजान्-अभि-उत्तरेम) कल्याणकारी अमृतभोगों को लक्षित कर अथवा कल्याणकारी पुण्यरूप नौका आदि के समान तरानेवाले बल प्रयत्नों को प्राप्त करके संसार नदी को तर जाएँ ॥८॥

    भावार्थ

    परमात्मा के साथ मित्रभाव बनानेवाले लोगों को चाहिए कि वे संसारनदी को पार करने के लिए सावधानी के साथ पाप बोझे को त्याग करके शुभकर्मों को करें, जो नौका के समान तरानेवाले हैं ॥८॥

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    विषय

    आओ संसार-नदी को पार करे

    शब्दार्थ

    (सखायः) हे मित्रो ! (अश्मन्वती) पत्थरोंवाली भयंकर नदी (रीयते) बड़े वेगपूर्वक बह रही है । अत: (उत्तिष्ठत) उठो (सं रभध्वम्) संगठित हो जाओ और (प्र तरत) इस भयंकर नदी को पार कर जाओ (ये) जो (अशेवा: असन्) अशिव, अकल्याणकारक दोष एवं दुर्गुण हैं उन्हें (अत्र जहाम) यहीं छोड़ दो और (वयम् शिवान् वाजान्) हम कल्याणकारी शक्तियों और क्रियाओं को (अभि) सम्मुख रखकर (उत् तरेम) इस नदी को पार कर जाएँ ।

    भावार्थ

    वेद में संसार की उपमा कहीं सागर से दी गई है तो कहीं वृक्ष से और कहीं किसी अन्य रूप से । प्रस्तुत मन्त्र में संसार की तुलना एक पथरीली नदी से दी गई है । १. यह संसार एक पथरीली नदी है। इसमें पग-पग पर आनेवाले विघ्न और बाधाएँ ही बड़े-बड़े पत्थर हैं, दुःखरूपी चट्टानें हैं । २. इसका प्रवाह बड़ा भयंकर है। अच्छे-अच्छे व्यक्ति इसमें बह जाते हैं । ३. इस नदी को पार करने के लिए उठो, खड़े हो जाओ, आलस्य और प्रमाद को मारकर परे भगा दो । संगठित हो जाओ, तभी इस नदी को पार किया जा सकेगा । ४. बोझ नदी को पार करने में बड़ा बाधक होता है अतः जो पाप की गठड़ी सिर पर उठाई हुई है, जो दुरित, दुर्गुण, काम, क्रोध, आदि शव दुर्व्यसन हैं उन सबको यही छोड़ दो । ५. जो शिव हैं, उत्तम गुण हैं, धार्मिक तत्त्व हैं, उन्हें अपने जीवन का अङ्ग बनाकर इस नदी को पार कर जाओ ।

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    Bhajan

    अश्मन्वती रीयते संरभध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखाय:।
    अत्रा जहिमो अशिवा ये असन् शिवान् वयमुत्तरेमाभिवाजान्।।
    यजु३५/१०ऋ॰१०.५३.८अथर्व॰१२.२.२६
                 भजन१०९९ वां
                    राग भैरवी
               गायन समय चारों प्रहर
                ताल कहरवा ८ मात्रा
             ‌           भाग १
    माझी रे.....
    विषय और वासना की गहरी धार
    आगे या पीछे सबको जाना है पार

    मनवा कहे पुकार के
    वेग से नदिया धार चले
    नदिया दुस्तर है
    किस विध पार करें?
    मनवा........
    विषय वासना छोड़ दे
    पापों से मुख मोड़ ले
    पुण्य के पथ पे चलें
    बल से आगे बढ़ें
    मनवा........
    भोंगो के तीखे पत्थर
    नदी में डटे हैं
    पांव डगमगा रहे हैं
    गिरे जा रहे हैं(२)
    मनवा........
    ओ माझी रे.......
    बिन पार तो सुख ना शान्ति
    पर वेग विकट करें भ्रान्ति
    प्रयत्न मैं ना है क्रान्ति
    हो.......
    मनवा है असिद्धांति
    अशिवता भान्ति -भान्ति 
    हिम्मत क्यों ना करें?
    मनवा........
    भोग इच्छा वासना है
    पाप है अधर्म है
    ना है संकल्प नीका
    ना निष्काम कर्म है(२)
    मनवा.......
    माझी रे.......
                      भाग २
    मनवा कहे पुकार के 
    वेग से नदिया धार चले 
    नदिया दुस्तर है 
    किस विध पार करें
    विषय वासना छोड़ दे
    पापों से मुख मोड़ ले
    ओढनिया पुण्य के पथ पे चलें
    बल से आगे बढ़ें।।

    ओ मांझी रे........
    कल्याणमयी ये प्रतीक्षा
    हमको तेरे 'वाज' की है
    क्यों ना विषय -भार उतारें
    हो.......
    पुरुषार्थ करें जीवन भर
    नदी पार अबाध करें
    यदि संकल्प करें 
    मनवा.......
    विकट चाहे होवे धारा
    विषय- वाह उत्कट हो
    मनोबल अटूट हो तो
    कल्याण निकट रहे(२)
    मनवा.........
    ओ मांझी रे.........
    ना होवे अशिव का संग्रह
    सह्योग परस्पर पाएं
    विषयों से मन को बचाएं
    बनें एक दूजे का आश्रय
    हो कल्याण प्रेममय
    फिर उस पास तरें
    मनवा........
    विषय........
    पुण्य.....
    मांझी रे.....
                    शब्दार्थ:-
    दुस्तर=कठिन, दुर्घट
    विकट=भयंकर,भयानक
    भ्रांति=भ्रम, अयथार्थ ज्ञान
    क्रान्ति =पूर्ण परिवर्तन
    नीका=योग्य,साफ सुथरा, विचारशील
    वाज=धन ऐश्वर्य बल
    अबाध=बिना रुकावट का
    संकल्प= दृढ़ निश्चय
    वाह=बहाव,
    अशिव= जो कल्याणकारी ना हो

    🕉🧘‍♂️ द्वितीय श्रृंखला का ९2 वां  वैदिक भजन और अबतक का १०९९ वां वैदिक भजन🎧

    🕉🧘‍♂️ वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं🙏

     

    Vyakhya

    नदी के पार
    भाइयों सांसारिकता की नदी बड़े वेग से बह रही है, उसका अपने अभीष्ट सुखों को, सच्चे लोगों को, बलों को,हम इस नदी के पार पहुंच कर ही पा सकते हैं, पर हमें बहाए लिए जाने वाले विषयों के इस भारी प्रभाव को तजना भी आसान कार्य नहीं है यदि,नदी बड़ी विकट है। 
    इस में पड़े हुए भोग्य पदार्थों के बड़े-बड़े और फिसलाने वाले, चिकने पत्थर, हमारे पैरों को जमने नहीं देते। इधर शिलाओं की ठोकर खाकर कदम-कदम पर गिर पड़ने का डर है। उधर नदी का वेग हमें बहाए लिए जाता है, परन्तु पार पहुंचे बिना हमें सुख-शांति भी नहीं मिल सकती।
    अतः भाइयों उठो ! मिलकर एक दूसरे को सहारा देते हुए आगे बढ़ो। हिम्मत करके उठ खड़े हो जाओ और दृढ़ता के साथ प्रबल यत्न करते हुए इस नदी के पार उतर जाओ।
     पर सबसे बड़ी विपत्ति तो यह है कि पहले ही पत्थरों वाली और वेगवती नदी के पार उतरना इतना मुश्किल हो रहा है, ऊपर से हमने अपने बहुत से अशुभ संग्रहों का बोझ भी सिर पर लाद रखा है। भोग इच्छा कुसंस्कार अधर्म की वासना तथा पापों के भारी बोझ से हमने अपने को बोझिल बना रखा है। इसके कारण हमारा पार उतरना असंभव हो रहा है।
     आओ साथियों! भाइयों! पहले हम इन सब अशिव वस्तुओं को यहीं फेंक दें। 
    इन्हें छोड़कर हल्के हो जाएं, जिससे कि हम नदी पार उतरने के लिए आसानी से अपनी पूरी शक्ति लगा सकें।
     जितने शुभ कल्याणकारी 'वाज'हैं
    सच्चे भोग हैं बल हैं, ज्ञान हैं, वे तो हमारे लिए बहुतायत में नदी के पार विद्यमान हैं, हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। 
    तो हम मूर्ख लोग इन अशुभ वस्तुओं को किसलिए उठाए हुए हैं? यह बोझ तो हमें डूबा देने में सहायक होगा।यदि इस बोझ के साथ हम स्वयं डूब मरना या नदी-प्रवाह में हो जाना नहीं चाहते, तो हमें इन सब बुराइयों का तो यही नदी प्रवाह कर देना चाहिए। 
    इन अशिव संग्रहों के बोझ से छुटकारा पाकर हमें एक दूसरे को सहारा देते हुए आगे बढ़ना चाहिए। विषयों के प्रबल प्रभाव से बचने के लिए हम सबको परस्पर एक दूसरे के आश्रय की जरूरत है। हे कल्याण चाहने वालो ! यह नदी चाहे कितनी भी विकट हो पर इसे पार किए बिना कोई चारा नहीं है। 

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    विषय

    नदीवत् आत्मा का वर्णन। उसमें स्नान कर पापों के त्याग का कल्याणमय ज्ञानैश्वर्यों की प्राप्ति का उपदेश।

    भावार्थ

    (अश्मन्वती रीयते) व्यापक आत्म-शक्ति से युक्त नदी के समान यह अनादि प्रवाह बराबर गति कर रहा है। हे विद्वान् पुरुषों ! (सं रभध्वम्) मिलकर एक साथ उद्योग करो। (उत् तिष्ठत) उत्तम स्थिति प्राप्त करो। हे (सखायः) मित्रो ! (ये) जो (अशेवाः) अकल्याण, मल, पाप, एवं दुःखदायी कारण हैं उनको (अत्र) यहां (जहाम) त्याग दें। और (शिवान् वाजान् अभि) कल्याणकारी, सुखदायी ऐश्वर्यों और ज्ञानों को लक्ष्य कर, प्राप्त कर (वयम्) हम (उत् तरेम) उत्तम पद पर पहुंचें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१–३, ६, ११ देवाः। ४, ५ अग्नि सौचिकः॥ देवता-१-३, ६–११ अग्निः सौचीकः। ४, ५ देवाः॥ छन्द:– १, ३, ८ त्रिष्टुप् २, ४ त्रिष्टुप्। ५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ६, ७, ९ निचृज्जगती। १० विराड् जगती। ११ पादनिचृज्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    संसार नदी (अश्मन्वती)

    पदार्थ

    [१] यह संसार - नदी (अश्मन्वती) = पत्थरोंवाली है, इसमें तैरना सुगम नहीं। विविध प्रलोभन ही इसमें पत्थरों के समान हैं उनसे प्रतिक्षण टकराने का यहाँ भय है । (मह रीयते) = निरन्तर चल रही है। संसार में रुकने का काम नहीं, गति ही संसार है, यह संसार नदी निरन्तर प्रवाह में है । [२] देव लोक परस्पर प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि (संरभध्वम्) = परस्पर मिलकर तैयार हो जाओ उत्तिष्ठत-उठ खड़े होवो, (सखायः) = मित्र बनकर, एक दूसरे का हाथ पकड़कर, प्रतरता- इसे तैर जाओ। इस संसार में अकेले में पतन का भय है, एक साथी को चुनकर हम इस नदी में फिसलने से सम्भल जाते हैं। [३] ये (अशेवाः असन्) = जो भी चीज़ें (अशेव) = असुखकर हैं उन्हें हम (अत्रा) = इसी किनारे (जहाम) = छोड़ दें, उनसे बोझल होकर तो हम इस नदी में डूब ही जाएँगे । (वयम्) = हम, इस प्रकार अशेष वस्तुओं के छोड़ने से हलके होकर (शिवान् वाजान् अभि) = कल्याणकर [धनों] की ओर (वाज) = wealth (उत्तरेम) = तैरकर पहुँच जाएँ। यदि इस संसार नदी को हम तैर गये तो फिर कल्याण ही कल्याण है। सारा अशिव इस पार ही है, परले पार तो शिव ही शिव है। नदी में डूबें नहीं । विषयों का बोझ लेकर तो इसे तैरने का सम्भव नहीं ।

    भावार्थ

    भावार्थ—यह संसार- नदी विषयरूप पाषाणों से पूर्ण है, दृढ़ निश्चय करके यदि हम इसे तैर गये तो फिर कल्याण ही कल्याण है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सखायः) हे परमात्मनः सखायमात्मानं मन्यमाना मुमुक्षवो जनाः (अश्मन्वती रीयते) विषयपाषाणवती संसारनदी वेगेन गच्छति “रीयते गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (संरभध्वम्) सावधाना भवत (उत्तिष्ठत) उद्यमं कुरुत (प्रतरत) पारं गच्छत (ये-अशेवाः-असन्) येऽसुखाः सुखरहिता अकल्याणकराः पापदोषाः सन्ति (वयम्-अत्र जहाम) वयमत्रावरस्थाने तान् त्यजामः (शिवान् वाजान्-अभि-उत्तरेम) शिवान् कल्याणकरान्-अमृतभोगान्-अभिलक्ष्य “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै० २।१९३] यद्वा कल्याणकरान् पुण्यरूपान् नौकादिसदृशान् तारकान् बलप्रयत्नान्-अभिप्राप्य संसारनदीमुत्तरेम पारयेम ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The rocky river of life flows on in flood. Hold on fast together, friends, rise and swim to the shore, let us jettison all that is inauspicious here. Let us swim and cross over to attain the trophies of victory.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराबरोबर मैत्री करणाऱ्या लोकांनी संसार नदी पार करण्यासाठी सावधानपूर्वक पापाचे ओझे टाकून देऊन शुभ कर्म करावे. जे नौकेप्रमाणे तरून जाण्यास साह्य करणारे आहे. ॥८॥

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