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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 53/ मन्त्र 9
    ऋषिः - देवाः देवता - अग्निः सौचीकः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    त्वष्टा॑ मा॒या वे॑द॒पसा॑म॒पस्त॑मो॒ बिभ्र॒त्पात्रा॑ देव॒पाना॑नि॒ शंत॑मा । शिशी॑ते नू॒नं प॑र॒शुं स्वा॑य॒सं येन॑ वृ॒श्चादेत॑शो॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वष्टा॑ । मा॒या । वे॒त् । अ॒पसा॑म् । अ॒पःऽत॑मः । बिभ्र॑त् । पात्रा॑ । दे॒व॒ऽपाना॑नि । शम्ऽत॑मा । शिशी॑ते । नू॒नम् । प॒र॒शुम् । सु॒ऽआ॒य॒सम् । येन॑ । वृ॒श्चात् । एत॑शः । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वष्टा माया वेदपसामपस्तमो बिभ्रत्पात्रा देवपानानि शंतमा । शिशीते नूनं परशुं स्वायसं येन वृश्चादेतशो ब्रह्मणस्पति: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वष्टा । माया । वेत् । अपसाम् । अपःऽतमः । बिभ्रत् । पात्रा । देवऽपानानि । शम्ऽतमा । शिशीते । नूनम् । परशुम् । सुऽआयसम् । येन । वृश्चात् । एतशः । ब्रह्मणः । पतिः ॥ १०.५३.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 53; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अपसाम्-अपस्तमः) प्रशस्त कर्मवालों में अतिशय से प्रशस्त कर्मवाला (एतशः) सर्वव्यापक (ब्रह्मणः-पतिः) ब्रह्माण्ड का पालक स्वामी (त्वष्टा) रचयिता परमात्मा (मायाः-वेत्) मनुष्यों के कर्मों को जानता है (देवपानानि शन्तमा पात्रा बिभ्रत्) मुमुक्षुजन जिनके द्वारा विशिष्ट कल्याणकर आनन्द का पान करते हैं उन साङ्कल्पिक इन्द्रियों को धारण करता है-अपने आनन्द से भरता है (स्वायसं परशुं नूनं शिशीते) शोभन तेजोमय परशु अर्थात् परों-दूसरों-प्रतिकूलों को हिंसित जिससे करता है, उस ज्ञान को प्रखर बनाता है (येन वृश्चात्) जिस ज्ञान के द्वारा उन आनन्दपात्रों को सम्पन्न करता है ॥९॥

    भावार्थ

    समस्त कर्म करनेवाले उत्कृष्ट मानव की अपेक्षा प्रशस्त कर्म करनेवाला परमात्मा है। वह सबके कर्मों को यथावत् जानता है। मुमुक्षुओं के कर्मानुसार मोक्ष में उन्हें साङ्कल्पिक मन श्रोत्र आदिओं आनन्द के पात्रों को सम्पन्न करता है ॥९॥

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    विषय

    सर्वशक्तिमान् परमात्मा का ज्ञानमय परशु से आत्मा के बन्धन- छेदन। औपनिषत् महास्त्र, सुआयस परशु से तुलना।

    भावार्थ

    (अपसाम् अपस्तमः) सब कर्म करने वालों में श्रेष्ठ, सर्वोत्तम कर्म-सम्पादन करने वाला, (त्वष्टा) जगत् का बनाने वाला प्रभु परमेश्वर (मायाः) जगत् निर्माण करने वाली समस्त शक्तियों और बुद्धियों और कर्मों को (वेत्) जानता है। वह ही (देव-पानानि) सूर्य, पृथिवी चन्द्र आदि लोकों, चक्षु आदि इन्द्रियों और विद्वानों को पालन करने वाले नाना (शं-तमा पात्रा) अति शान्तिकारक पालन करने के साधनों, वा उपायों को (बिभ्रत्) धारण करता है। वह ही (ब्रह्मणः पतिः) महान् ब्रह्माण्ड का स्वामी, ब्रह्मज्ञान का पालक ही (सु-आयसम् परशुम् शिशीते) उत्तम लोहसार के बने परशु को विज्ञ शिल्पी के समान (सु-आयसम् परशुम्) सुख प्राप्त कराने वाले, परम पद तक पहुंचाने वाले ज्ञान रूप वज्र को (शिशीते) तीक्ष्ण करता है। (येन) जिससे (एतशः) यह शुक्लकर्मा जीव वा ज्ञानी पुरुष (वृश्चात्) इन समस्त कर्म-बन्धों को काट डालता है। उपनिषदों में जिस प्रकार ओंकार रूप औपनिषद् महास्त्र का वर्णन (मुण्डक उप मु० २। ख० २। मं० ३) में है उसी प्रकार यहां ‘सुआयस परशु’ का वर्णन है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१–३, ६, ११ देवाः। ४, ५ अग्नि सौचिकः॥ देवता-१-३, ६–११ अग्निः सौचीकः। ४, ५ देवाः॥ छन्द:– १, ३, ८ त्रिष्टुप् २, ४ त्रिष्टुप्। ५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ६, ७, ९ निचृज्जगती। १० विराड् जगती। ११ पादनिचृज्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    स्वायस परशु

    पदार्थ

    [१] (त्वष्टा) = वह संसार का निर्माता प्रभु (माया:) = [wisdom = ज्ञान ] सब ज्ञानों को वेद-जानता है और (अपसां अपस्तमः) = सर्वाधिक क्रियाशील है। प्रभु के सब कर्म ज्ञानमूलक होने से निर्दोष हैं, प्रभु की सब कृतियाँ पूर्ण हैं । [२] वे प्रभु ही (पात्रा) = इन शरीर रूप पात्रों को बिभ्रत्-धारण करते हैं, जो पात्र देवपानानि देवों के लिये सोमपान के साधन होते हैं। 'सोम' शरीर में उत्पन्न होनेवाली वीर्यशक्ति है, देव इस शक्ति को शरीर में ही सुरक्षित करते हैं। इस सोम के रक्षण से ही (शन्तमा) = ये शरीर रूप पात्र अत्यन्त शान्ति को लिये हुए होते हैं। इनमें आधि-व्याधियों की अशान्ति नहीं होती। [३] वे प्रभु ही (नूनम्) = निश्चय से (स्वायसम्) = उत्तम लोहे के बने हुए (परशुम्) = शत्रुओं को क्षीण करनेवाले [ परान् श्यति] मन रूप कुल्हाड़े को (शिशीते) = तीव्र बनाते हैं। दृढ़ संकल्पयुक्त होना ही मन का लोहे से बना हुआ होना है। ऐसा व्यक्ति ही 'लोह पुरुष' कहलाता है। यह दृढ़ संकल्पवाला मन सब वासनारूप शत्रुओं को नष्ट करनेवाला बनता है। [४] यह 'स्वायस परशु' वह है (येन) = जिससे (एतशः) = [एते शेते, एत-चित्र] विविध विज्ञानों में निवास करनेवाला (ब्रह्मणस्पतिः) = ज्ञानी पुरुष (वृश्चात्) = सब बुराइयों को छिन्न करता है। बुराइयों को छिन्न करके वह संसारवृक्ष को भी छिन्न करनेवाला बनता है और मोक्ष का लाभ प्राप्त करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ज्ञानी व सर्वोत्तम क्रियाशील हैं। प्रभु ने हमें यह सुन्दर शरीर रूप पात्र दिया है, इसमें दृढ़ संकल्पवाला मन ही वह परशु है जिससे कि हम वासना को छिन्न करके मुक्त हो पाते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अपसाम्-अपस्तमः) कर्मवतामतिशयेन कर्मवान् “अपः कर्मनाम” [निघ० २।१] ‘मतुब्लोपश्छान्दसः’ (एतशः) सर्वस्मिन् जगति प्राप्तो व्याप्तः “सर्वं जगदितः स्वव्याप्त्या प्राप्तः ‘इणस्तशतसुनौ [उणा० ३।१४७। यजु० ११।६ दयानन्दः] (ब्रह्मणः-पति) ब्रह्माण्डस्य पतिः (त्वष्टा) रचयिता परमात्मा (मायाः-वेत्) मनुष्याणां कर्माणि “मायिनाम्-बहुविधं कर्म विद्यते तेषाम्, अत्र भूमि-अर्थे-इनि प्रत्ययः” [ऋ० १।१३२।४ दयानन्दः] वेत्-जानाति (देवपानानि शन्तमा पात्रा बिभ्रत्) देवाः-मुक्ताः पिबन्ति यैस्तानि विशिष्टकल्याणकराणि पात्राणि साङ्कल्पिकेन्द्रियाणि धारयति “शृण्वन् श्रोत्रं भवति…” [श० १४।२।२।१७] (स्वायसं परशुं नूनं शिशीते) शोभनं तेजोमयं “आयसः-तेजोमयः” [ऋ० १।८०।१२ दयानन्दः] परान् प्रतिकूलान् शृणाति हिनस्ति येन तं तेजोमयज्ञानं तीक्ष्णयति (येन वृश्चात्) तानि मोक्षे खल्वानन्दपानपात्राणि तक्षति करोति सम्पादयति ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The cosmic maker Tvashta, supreme expert of the artists of the world, knows the mysteries of karma and the secrets of fortune or misfortune, and most beneficent as he is, he carves and fills the most delicious cups of joy for the holies. The lord of cosmic wisdom also makes and sharpens the golden axe of knowledge, justice and dispensation whereby the man who attains to this prize knowledge cuts at the root of his karmic tree and drinks the nectar of universal sweets of freedom from the divine cup.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कर्म करणाऱ्या उत्कृष्ट मानवापेक्षा प्रशंसनीय कर्म करणारा परमात्मा आहे. तो सर्वांच्या कर्मांना यथावत जाणतो. मुमुक्षूंच्या कर्मानुसार मोक्षात त्यांना ज्ञानपूर्वक सांकल्पिक मन श्रोत्र इत्यादींच्या आनंदाचे पात्र बनवितो. ॥९॥

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