ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 73/ मन्त्र 2
द्रु॒हो निष॑त्ता पृश॒नी चि॒देवै॑: पु॒रू शंसे॑न वावृधु॒ष्ट इन्द्र॑म् । अ॒भीवृ॑तेव॒ ता म॑हाप॒देन॑ ध्वा॒न्तात्प्र॑पि॒त्वादुद॑रन्त॒ गर्भा॑: ॥
स्वर सहित पद पाठद्रु॒हः । निऽस॑त्ता । पृ॒श॒नी । चि॒त् । एवैः॑ । पु॒रु । शंसे॑न । व॒वृ॒धुः॒ । ते । इन्द्र॑म् । अ॒भिवृ॑ताऽइव । ता । म॒हा॒ऽप॒देन॑ । ध्वा॒न्तात् । प्र॒ऽपि॒त्वात् । उत् । अ॒र॒न्त॒ । गर्भाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्रुहो निषत्ता पृशनी चिदेवै: पुरू शंसेन वावृधुष्ट इन्द्रम् । अभीवृतेव ता महापदेन ध्वान्तात्प्रपित्वादुदरन्त गर्भा: ॥
स्वर रहित पद पाठद्रुहः । निऽसत्ता । पृशनी । चित् । एवैः । पुरु । शंसेन । ववृधुः । ते । इन्द्रम् । अभिवृताऽइव । ता । महाऽपदेन । ध्वान्तात् । प्रऽपित्वात् । उत् । अरन्त । गर्भाः ॥ १०.७३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 73; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(द्रुहः) शत्रुओं के प्रति द्रोह करनेवाले राजा की (पृशनी) स्पर्श करनेवाली-संपृक्त सेना (निषत्ता चित्) नियत हुई भी, तथा (एवैः) उसमें, युद्ध में गमनसमर्थ सैनिक (ते) वे (इन्द्रम्) राजा को (पुरु शंसेन) बहुत प्रशंसन से गुणगान से (वावृधुः) बढ़ाते हैं, (ता गर्भाः) उन गर्भ धारण करनेवाली प्रजाओं को (प्रपित्वात्-ध्वान्तात्) प्राप्त आध्वस्त-नष्ट करनेवाले संकट से (उदरन्त) उठाते हैं (महापदेन) महान् आशय के द्वारा (अभिवृता-इव) अभिरक्षित रहती है ॥२॥
भावार्थ
राजा की सेना में सैनिक जन युद्ध में प्रगतिशील शत्रुनाशक होवें। राजा भी प्रजा को संकट से बचाने के लिये तत्पर रहे, इस प्रकार महान् आश्रय पाने से प्रजा सुख से रहती है ॥२॥
विषय
सेनापति की सेना से बढ़ने वाले वीरभटों के तुल्य माता से उत्पन्न गर्भों का वर्णन।
भावार्थ
(चित्) जिस प्रकार (द्रुहः) शत्रुओं के द्रोही सेनापति के पास (नि-सत्ता) नियम में बद्ध (पृशनी) शस्त्रादि वर्षण करने वाली सेना उसको बढ़ाती है उसी प्रकार वह (एवैः) अपने आगे प्रयाणों अग्रगामी वीर पुरुषों से और (शंसेन) स्तुति वचन वा शत्रुनाशक शस्त्रबल से सभी (पुरु) प्रजाजन (वावृधुः) उसको बढ़ाते हैं। (ते) वे सब (महापदेन अभिवृता-इव) बड़े भारी पद अर्थात् आश्रय वा स्थान से चारों ओर से सुरक्षित के तुल्य (महापदेन) बड़े भारी ज्ञानमय प्रकाश से (अभि-वृता) सब प्रकार से सुरक्षित वा आवृत होकर (प्रपित्वात् ध्वान्तात्) पूर्व प्राप्त हुए ध्वान्त या दूर हुए अन्धकार से ऐसे (उत् अरन्त) ऊपर हो जाते हैं जैसे (प्रपित्वात् ध्वान्तात्) फैले अन्धकारमय नीले मेघ से (गर्भाः) मेघ के बीच में स्थित जल बाहर आ जाते हैं अथवा ध्वान्त अर्थात् अन्धकार रूप गर्भाशय से (गर्भाः) गर्भ स्वयं प्रसव होकर बाहर आ जाते हैं।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गौरिवीतिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ९ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
पञ्चायतन
पदार्थ
[१] गत मन्त्र का माता से प्राप्त कराये गये चरित्रवाला वीर (द्रुहः निषत्ता) = काम, क्रोध, लोभ आदि आन्तरिक जिघांसु शत्रुओं का नाश करनेवाला होता है [सद् = to kill ] । यह (चित्) = निश्चय से (एवैः) = अपनी क्रियाओं के द्वारा (पृशनी) = उस प्रभु से सम्पर्क-पृशनवाला होता है। (ते) = गत मन्त्र में वर्णन किये गये वे मरुत् (इन्द्रम्) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को (पुरुशंसेन) = पालनात्मक व पूरणात्मक उपदेश के द्वारा (वावृधुः) = खूब ही बढ़ाते हैं । [ पुरु- पृ पालनपूरणयोः] । [२] (ता) = वे अपत्य [=सन्तान] (इव) = मानो (महापदेन) = उस महान् गन्तव्य प्रभु से [पद्यते मुनिभिर्यस्मात् तस्मात् पद उदाहृत:] (अभीवृता) = परिवृत से होते हैं। वस्तुतः माता, पिता, आचार्य व अतिथि आदि को निमित्त बनाकर प्रभु ही उनका रक्षण करते हैं। ये व्यक्ति (प्रपित्वात्) = समीप प्राप्त (ध्वान्तात्) = अन्धकार से (उद् अरन्त) = ऊपर उठते हैं, इसलिए ऊपर उठते हैं कि (गर्भाः) = ये माता आदि के गर्भ बनते हैं । ५ वर्ष तक माता की दृष्टि में रहते हुए ये चरित्रवान् बनते हैं । फिर ८ वर्ष तक पितृगर्भ में रहते हुए ये शिष्टाचार की शिक्षा को प्राप्त करते हैं। फिर आचार्य इन्हें गर्भ में करके ज्ञान से परिपूर्ण करता है 'आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः ' । अन्ततः अतिथियों के गर्भ में रहता हुआ गृहस्थ कभी मार्ग भ्रष्ट नहीं होता। अपने जीवन में यह प्रभु के गर्भ में रहने का तो प्रयत्न करता ही है । इसी कारण यह अन्धकार से ऊपर उठ पाता है ।
भावार्थ
भावार्थ- माता, पिता, आचार्य, अतिथि व महापद [प्रभु] के गर्भ में रहते हुए हम अन्धकार से सदा ऊपर उठें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(द्रुहः-पृशनी निषत्ता चित्) शत्रूणां द्रोग्धू राज्ञः स्पर्शयित्री-सम्पृक्ता सेना नियताऽपि तथा (एवैः) तत्र सेनायां एवाः “विभक्तिव्यत्ययः” युद्धे गमनसमर्थाः सैनिकाः (ते-इन्द्रं पुरु शंसेन वावृधुः) ते खलु राजानं बहुप्रकारेण प्रशंसनेन वर्धयन्ति (ता-गर्भाः) ताः ‘जसो लुक्-लिङ्गव्यत्ययश्च’ ‘प्रजा वै पशवोर्गर्भः’ [श० १३।२।८।५] (प्रपित्वात्-ध्वान्तात्-उदरन्त) प्राप्ताद्-आध्वस्तात् सङ्कटात् “ध्वान्तमाध्वस्तम्” [निरु० ४।३] खलूद्गमयन्ति अन्तर्गतो णिजर्थः (महापदेन-अभीवृता-इव) महदाश्रयेणाभिरक्षिता सती-इव पदपूरणो ‘इवोऽपि दृश्यते’ [निरु० १।१०] ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The armies of the enemy of darkness and pride stand round him well ordered and deployed with fighting forces ready for the move, and they abundantly exalt Indra with universal songs of praise. The people safe all round covered with mighty defence and security rise and progress like showers of rain released from the depth of dark and dense expansive clouds.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाच्या सेनेतील सैनिक युद्धात कुशल असून शत्रुनाशक असावेत. राजाच्या प्रजेला संकटातून वाचविण्यासाठी त्यांनी तत्पर असावे. या प्रकारे महान आश्रय प्राप्त करण्याने प्रजा सुखात राहते. ॥२॥
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