ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 73/ मन्त्र 7
ऋषिः - गौरिवीतिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वं ज॑घन्थ॒ नमु॑चिं मख॒स्युं दासं॑ कृण्वा॒न ऋष॑ये॒ विमा॑यम् । त्वं च॑कर्थ॒ मन॑वे स्यो॒नान्प॒थो दे॑व॒त्राञ्ज॑सेव॒ याना॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । जा॒घ॒न्थ॒ । नमु॑चिम् । म॒ख॒स्युम् । दास॑म् । कृ॒ण्वा॒नः । ऋष॑ये । विऽमा॑यम् । त्वम् । च॒क॒र्थ॒ । मन॑वे । स्यो॒नान् । प॒थः । दे॒व॒ऽत्रा । अञ्ज॑साऽइव । याना॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं जघन्थ नमुचिं मखस्युं दासं कृण्वान ऋषये विमायम् । त्वं चकर्थ मनवे स्योनान्पथो देवत्राञ्जसेव यानान् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । जाघन्थ । नमुचिम् । मखस्युम् । दासम् । कृण्वानः । ऋषये । विऽमायम् । त्वम् । चकर्थ । मनवे । स्योनान् । पथः । देवऽत्रा । अञ्जसाऽइव । यानान् ॥ १०.७३.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 73; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(त्वम्) हे राजन् ! तू (मखस्युम्) यज्ञ को नष्ट करने के इच्छुक (नमुचिम्) पापीजन को तथा (मनवे ऋषये) तेरे मननीय द्रष्टा उपास्य (विमायम्) मायारहित छलरहित तुझ को (दासं) भृत्य के समान (कृण्वानः) करता हुआ है, उसे (त्वं जगन्थ) तू हनन करता है, (स्योनान् पथः) सुखकारक मार्गों को (देवत्रा) देवों में-विद्वानों में (अञ्जसा-चकर्थ) यथार्थरूप से करता है, बनाता है ॥७॥
भावार्थ
मननीय उपास्य द्रष्टा परमात्मा के लिए तुझ छलरहित के प्रति दासभावना करता है, हीनभावना रखता है, इस श्रेष्ठकर्म को नष्ट करनेवाले को तू दण्ड देता है तथा विद्वानों का मार्ग परिष्कृत करता है ॥७॥
विषय
उसका दुष्ट-दमन का कार्य।
भावार्थ
हे (इन्द्र) राजन् ! (स्वं) तू (वि-मायम्) विविध छलकपट पूर्ण अनेक माया करने वाले (नमुचिम्) अपने हठ, दुराग्रह और दुष्ट कर्म को न छोड़ने वाले दुष्ट पुरुष को (जघन्थ) विनाश कर। और (वि-मायम्) माया, छल कपट से रहित वा (वि-मायम्) विविध प्रकार के शिल्प कार्यों को करने में समर्थ शक्ति वा बुद्धि वाले (मखस्युम्) धनाकांक्षी जन को (दासं कृण्वानः) अपना नृत्य करता हुआ उनको वेतन पर कार्य में लगाता हुआ (त्वम्) तू (मनवे) मनुष्य मात्र के उपकार के लिये और (ऋषये) ज्ञानदर्शी विद्वान् जनों के हित के लिये (पथः स्योनान् चकर्थ) समस्त मार्गों को सुखप्रद, निर्भय और उदर पोषण के अनेक सुखदायी मार्गों को बना। और (देवत्रा) विद्वानों, ज्ञान, धन, कर आदि देने वाले प्रजाजनों और विजिगीषु वीर जनों के बीच (अञ्जसा इव) अपने तेज से ही मानो (यानान् चकर्थ) प्रयाणों या रथों को कर, वा बना।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गौरिवीतिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ९ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
नम्रता व सरलता
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप ही (नमुचिम्) = [न+मुच्] अन्त तक पीछा न छोड़नेवाली अभिमानवृत्ति को (जघन्थ) = नष्ट करते हैं । प्रभु स्मरण से मनुष्य को सब यज्ञों के कर्तृत्व का अहंकार नहीं होता, सब यज्ञ प्रभु-शक्ति से पूर्ण होते हुए दृष्टिगोचर होते हैं । प्रभुभक्त सब यज्ञों को प्रभु के अर्पण करता है, स्वयं कर्तृत्व के अहंकार से रहित हो जाता है। एवं प्रभु स्मरण अहंकार को नष्ट करनेवाला है। [२] हे प्रभो ! आप उस नमुचि को नष्ट कर डालते हो जो (मखस्युम्) = सब यज्ञों का अन्त करनेवाला है [ षोऽन्तकर्मणि] । अहंकार से यज्ञ का यज्ञत्व नष्ट हो जाता है, वह यज्ञ असुरों का 'नामयज्ञ' ही रह जाता है 'यजन्ते नाम यज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्' । हे प्रभो ! आप (ऋषये) = तत्त्वद्रष्टा के लिये (दासम्) = [दसु उपक्षये] इस उपक्षय के कारणभूत अहंकार को (विमायम्) = माया व शक्ति से रहित (कृण्वानः) = करते हैं । प्रभु की कृपा से अहंकार की माया को समाप्त करके यह तत्त्वद्रष्टा पुरुष निरभिमान बनता है । [३] हे प्रभो! आप ही (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिये (पथः) = मार्गों को (स्योनान्) = सुखकर चकर्थ करते हैं । (देवत्रा) = देवों में (अञ्जसा इव) = सब प्रकार की कुटिलता से रहित ही यानान् मार्गों को आप बनाते हैं। देववृत्ति के पुरुषों को अकुटिल व सरल मार्ग से आप ले चलते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-भक्त सब उत्तम कर्मों को अहंकार रहित होकर करते हैं, ये कभी कुटिल मार्ग से नहीं चलते। 'नम्रता व सरलता' इनके जीवन को भूषित करती हैं।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(त्वम्) त्वं हे राजन् ! (मखस्युं नमुचिम्) परस्य मखं यज्ञं नाशयितुमिच्छन्तं “मखं यज्ञनाम” [निघ० २।१७] नमुचिं पापिनम् “पाप्मा वै नमुचिः” [श० १२।७।३।१] (मन्यवे ऋषये विमायं दासं कृण्वानः-त्वम्-जगन्थ) मननीयाय द्रष्ट्र उपास्याय मायारहितं छलरहितं त्वं भृत्यमिव कुर्वन् त्वं यस्तं हंसि (स्योनान् पथः-देवत्रा यानान्-अञ्जसा चकर्थ) सुखमयान् देवेषु गन्तव्यान् मार्गान् देवयानान् तत्त्वतः “अञ्जसा तत्त्वशीघ्रार्थयोः” [अव्ययार्थनिबन्धनम्] करोषि ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
You subdue the miserly hoarder and the negative, destructive clever trickster and convert him to be a lover of yajna and social generosity, living a simple natural life for the advancement of the seer. You make the paths of human progress peaceful and enjoyable, holy, simple and natural to follow for the pilgrims of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
उपासना करणारा व छलरहित राजाकडे जो पापी हीन भावनेने व उपेक्षेने पाहतो, तसेच श्रेष्ठ कर्म नष्ट करतो, अशा लोकांना परमात्मा व राजा दंड देतो व विद्वानांचा मार्ग परिष्कृत होतो. ॥७॥
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