ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 73/ मन्त्र 3
ऋषिः - गौरिवीतिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ऋ॒ष्वा ते॒ पादा॒ प्र यज्जिगा॒स्यव॑र्ध॒न्वाजा॑ उ॒त ये चि॒दत्र॑ । त्वमि॑न्द्र सालावृ॒कान्त्स॒हस्र॑मा॒सन्द॑धिषे अ॒श्विना व॑वृत्याः ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒ष्वा । ते॒ । पादा॑ । प्र । यत् । जिगा॑सि । अव॑र्धन् । वाजाः॑ । उ॒त । ये । चि॒त् । अत्र॑ । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । सा॒ला॒वृ॒कान् । स॒हस्र॑म् । आ॒सन् । द॒धि॒षे॒ । अ॒श्विना॑ । आ । व॒वृ॒त्याः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋष्वा ते पादा प्र यज्जिगास्यवर्धन्वाजा उत ये चिदत्र । त्वमिन्द्र सालावृकान्त्सहस्रमासन्दधिषे अश्विना ववृत्याः ॥
स्वर रहित पद पाठऋष्वा । ते । पादा । प्र । यत् । जिगासि । अवर्धन् । वाजाः । उत । ये । चित् । अत्र । त्वम् । इन्द्र । सालावृकान् । सहस्रम् । आसन् । दधिषे । अश्विना । आ । ववृत्याः ॥ १०.७३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 73; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे राजन् ! (ते-ऋष्वा पादा) तेरे सभावर्ग और सेनावर्ग दो महान् पैर हैं (यत्) जिनके द्वारा तू (जिगासि) राष्ट्रकार्य में प्रगति करता है (वाजाः-अवर्धन्) ये ज्ञानी और बलवान् हुए तुझे बढ़ाते हैं (उत-ये चित्-अत्र) और सभावर्ग तथा सेनावर्ग में जो भी जन हैं, (त्वम्) तू (सहस्रं सालावृकान्) बहुत शाला में वर्तमान रक्षक कुत्तों के समान या गतिस्थान मार्गों में कुत्तों के समान अपने सुख के निमित्त तू धारण करता है (अश्विना-आ-ववृत्याः) अपने घोड़ोंवाले दोनों वर्गों को भली-भाँति कार्य में ले ॥३॥
भावार्थ
सभावर्ग और सेनावर्ग राष्ट्रपति के राष्ट्र में प्रगति करने के महान् साधन हैं। इनके अन्दर जो सभासद् या सैनिक होते हैं, वे घर के रक्षक प्रहरी कुत्तों के समान या मार्ग में रक्षक सुख के निमित्त होते हैं, उनसे लाभ लेना चाहिए ॥३॥
विषय
ऐश्वर्यवान् राजा के दो कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (ते) तेरे (पादा) दोनों चरण, आश्रय (ऋष्वा) महान् हैं, (उत ये चित् अत्र वाजाः) जो भी इस राष्ट्र में वेगवान्, बलवान्, वीर जन हैं वे (यत् प्र जिगासि) जब तू आगे बढ़े तब तुझे (प्र अवर्धन्) खूब बढ़ावें। हे (इन्द्र) शत्रुनाशन ! (त्वं) तू (सहस्रं सालावृकान्) सहस्रों सालावृक अर्थात् कुत्तों के समान स्वामिभक्त और ‘साल’ = अर्थात् नगर के प्रकोट पर रहने वाले, शस्त्रास्त्रों से शत्रु को छेदन भेदन करने वाले, तेजस्वी, महास्त्रों और महास्त्रधर वीरों को (आसन् दधिषे) अपने सैन्य के मुख भाग में स्थापित कर। और (अश्विना) वेग से लाने वाले अश्व आदि के नियन्ता वीर पुरुषों के दोनों पक्षों को (आ ववृत्याः) अपने अधीन रख।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गौरिवीतिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ९ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सालावृक-संहार
पदार्थ
[१] (यत्) = जब (प्रजिगासि) = तू प्रकृष्ट गतिवाला होता है, अर्थात् उत्तम मार्ग पर चलता है अथवा प्रभु की ओर चलता है [ प्रकृति की ओर जाना ही नीचे की ओर जाना है, प्रभु की ओर जाना ही उत्कृष्ट मार्ग पर जाना है] तो (ते) = तेरे (पादा) = पाँचों (ऋष्वा) = [great, high, noble] महान् व उत्कृष्ट होते हैं। पाँवों की क्या, (ये चित्) = जो भी (अत्र) = यहां शरीर में (वाजा:) = शक्तियाँ हैं (उत) = और वे भी (अवर्धन्) = वृद्धि को प्राप्त होती हैं । प्रभु की ओर चलने से शक्तियों में वृद्धि होती है, प्रकृति में फँसना ही शक्तियों को जीर्ण करता है। [२] प्रभु की ओर चलता हुआ (इन्द्र) = हे जितेन्द्रिय पुरुष ! (त्वम्) = तू (सहस्त्राम्) = शतश: (सालावृकान्) = [dog, wolf, deer, jaekal cat, monkey] कुत्ते, भेड़िये, हरिण, बिल्ली, गीदड़ व बन्दर आदि की वृत्तियों को (आसन् दधिषे) = जबड़े में धारण करता है, अर्थात् इनको कुचल डालता है। 'उलूकयातुं शुशुलूकयातुं० ' मन्त्र में उलूक आदि की वृत्ति को छोड़ने का उपदेश है। यहाँ 'सालावृक' इस एक शब्द से ही इन सब अशुभ वृत्तियों के त्याग का संकेत हुआ है। कुत्ते की तरह हमें परस्पर वैरी नहीं बनना, भेड़िये की तरह पेटू नहीं बनना, हरिण की तरह श्रवणव्यसनी नहीं होना, बिल्ली की तरह निर्बलों पर अत्याचार में आनन्द नहीं लेना, गीदड़ की तरह छलछिद्रवाला नहीं होना और बन्दर की तरह चञ्चल नहीं बनना । [३] इन वृत्तियों को दूर करने के लिये ही तू (अश्विना) = प्राणापान का (ववृत्याः) = आवर्तन करता है । प्राणायाम के द्वारा तूने इन सब वृत्तियों को दूर करना है। प्राणसाधना से चित्तवृत्ति का निरोध करके तू अपने को इन अशुभ वृत्तियों से बचा सकेगा ।
भावार्थ
भावार्थ- उत्कृष्ट मार्ग पर चलने से शक्तियों का वर्धन होता है । प्रभु-प्रवण व्यक्ति अशुभवृत्तियों का शिकार नहीं होता। इस कार्य में प्राणसाधना इसके लिये सहायक होती है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र) हे राजन् ! (ते-ऋष्वा पादा) तव सभावर्गः सेनावर्गश्च महान्तौ पादौ (यत्) यतः-याभ्यां (जिगासि) त्वङ्गच्छसि-राष्ट्रकार्ये प्रगतिं करोषि (वाजाः-अवर्धन्) त्वां ज्ञानबलवन्तो ज्ञानिनो बलवन्तश्च वर्धयन्ति (उत-ये चित्-अत्र) अत्र पादयोः-सभासेनावर्गयोर्येऽपि सन्ति (त्वम्) त्वं खलु (सहस्रं सालावृकान्-आसन्-दधिषे) बहून् शालायां वर्तमानान् कुक्कुरानिव ‘शकारस्य सकारश्छान्दसः’ यद्वा गतिस्थानेषु मार्गेषु शुन इव “षल गतौ” [भ्वादि०] स्वसुखे धारयसि (अश्विना-आ-ववृत्याः) स्वकीयौ-अश्ववन्तौ तौ वर्गौ-आवर्त्तय ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, great and elevated are the columns and constituents of the system you rule over. When you advance and win your goal, the most eminent leaders, scientists and technologists, warriors and whoever others are here, all praise and exalt you. You appoint and maintain thousands of vigilant guards on the forefronts of the land. Indra, keep the social economy and all subsystems of the order moving, keep the circuit live without relent.
मराठी (1)
भावार्थ
सभा व सेना राजाच्या राज्यात प्रगती करण्याची मोठी साधने आहेत. त्यात जे सभासद किंवा सैनिक असतात ते घराच्या रक्षक पहारेकरी श्वानाप्रमाणे किंवा मार्गाचे रक्षक बनून सुखाचे निमित्त असतात. त्यांच्याकडून लाभ करून घेतला पाहिजे. ॥३॥
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