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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 73/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गौरिवीतिः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒म॒ना तूर्णि॒रुप॑ यासि य॒ज्ञमा नास॑त्या स॒ख्याय॑ वक्षि । व॒साव्या॑मिन्द्र धारयः स॒हस्रा॒श्विना॑ शूर ददतुर्म॒घानि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म॒ना । तूर्णिः॑ । उप॑ । या॒सि॒ । य॒ज्ञम् । आ । नास॑त्या । स॒ख्याय॑ । व॒क्षि॒ । व॒साव्या॑म् । इ॒न्द्र॒ । धा॒र॒यः॒ । स॒हस्रा॑ । अ॒श्विना॑ । शू॒र॒ । द॒द॒तुः॒ । म॒घानि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समना तूर्णिरुप यासि यज्ञमा नासत्या सख्याय वक्षि । वसाव्यामिन्द्र धारयः सहस्राश्विना शूर ददतुर्मघानि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समना । तूर्णिः । उप । यासि । यज्ञम् । आ । नासत्या । सख्याय । वक्षि । वसाव्याम् । इन्द्र । धारयः । सहस्रा । अश्विना । शूर । ददतुः । मघानि ॥ १०.७३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 73; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे राजन् ! (समना) संग्राम में (तूर्णिः) शीघ्रकारी होता हुआ (यज्ञम्-उप-आयासि ) सेना के सङ्गम को प्राप्त हो (सख्याय नासत्या वक्षि) मित्रभाव के लिये-सहयोग के लिये असत्यव्यवहाररहितों सभावर्ग, सेनावर्गों को तू प्राप्त होता है (वसाव्यां धारयः) अत्यन्त धनप्राप्ति-विजयप्राप्ति के सम्बन्ध में निश्चय कर (अश्विना) जैसे वे सभावर्ग और सेनावर्ग दोनों तेरे साथ व्याप्त प्राप्त होनेवाले (सहस्रा मघानि) बहुत धनों को (ददतुः) देते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    राजा संग्राम के लिये सभावर्ग और सेनावर्गों के साथ सहमति और संगति प्राप्त करके विजय पाता है ॥४॥

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    विषय

    राजा के शासनार्थ कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुओं को उच्छेद, विनाश और उनका विदारण करने हारे ! उनमें फूट, फोड़ फाड़ कर उनका नाश करने वाले ! राजन् ! तू (तूर्णिः) शत्रुहिंसक सेना को आगे ले चलने हारा होकर (समना) संग्राम-काल में (यज्ञम् उप यासि) सब की संगति, परस्पर प्रेम और दान भाव वा सब से पूजनीय भाव को (उप यासि) प्राप्त कर। और उस समय (सख्याय) मित्र भाव और अपने सम्यग् दर्शन अर्थात् सर्वोपरि अध्यक्षता और अपने समान संकथन अर्थात् आज्ञा देने वा प्रजा में शासन कार्य के लिये ऐसे स्त्री पुरुषों को (आ वक्षि) प्राप्त कर, जो (नासत्या) कभी असत्य भाषण और छल कपट आदि का वर्ताव न करें, परन्तु सदा राजा और प्रजा दोनों के प्रति सत्य-संकल्प और न्यायी हों। तभी हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (सहस्रा) सहस्रों (वसाव्या) वसने वाली प्रजाओं को (धारयः) धारण करने में समर्थ हो सकता है। पूर्वोक्त प्रकार के (अश्विनौ) विद्या आदि में पारंगत सत्य व्यवहारी, जितेन्द्रिय स्त्री पुरुष ही को हे (शूर) दुष्टों के नाशक तू (मघानि ददतुः) अनेक ऐश्वर्य या परहित न्याय-शासन प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौरिवीतिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ९ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    संग्राम द्वारा प्रभु का उपासन

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार प्राणसाधना के द्वारा (समना) = संग्राम में (तूर्णिः) = काम-क्रोधादि शत्रुओं का संहार करता हुआ शूर हे वीर पुरुष ! तू (यज्ञाम्) = उस उपास्य प्रभु को (उपयासि) = समीपता से प्राप्त होता है। इस संग्राम में विजय के लिये ही तू (नासत्या) = प्राणापान को (सख्याय) = मित्रता के लिये (आवक्षि) = सर्वथा धारण करता है। प्राणायाम के द्वारा प्राणापान की साधना ही तो चित्तवृत्ति के निरोध के लिये हमें क्षम बनाती है । [२] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू इस प्राणसाधना से (सहस्त्रा) = अनेकों (वसाव्यम्) = वसु समूहों को (धारयः) = धारण करता है। निवास को उत्तम बनाने के लिये आवश्यक तत्त्व वसु हैं। यह प्राणसाधक इन वसुओं को प्राप्त करता है । [३] हे शूर ! (अश्विना) = ये प्राणापान (मघानि) = सब ऐश्वर्यों को (ददतुः) = देते हैं। शरीर को ये 'स्वास्थ्य' प्रदान करते हैं, मन को 'नैर्मल्य' प्राप्त कराते हैं और बुद्धि में 'तीव्रता' का आधान करते हैं । ये तीन ही महत्त्वपूर्ण ऐश्वर्य हैं, ये ही हमें ईश्वर का रूप बनाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- संग्राम में कामादि का पराभव करके ही हम प्रभु को उपासित करते हैं । प्राणसाधना हमें उन सब वसुओं को प्राप्त कराती है जिनसे कि जीवन सुन्दर बनता है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) राजन् ! (समना) सङ्ग्रामे “समनं सङ्ग्रामनाम” [निघ० २।१७] आकारादेशश्छान्दसः (तूर्णिः) त्वरमाणः सन् (यज्ञम्-उप-आयासि) सेना सङ्गतिं प्राप्नोषि (सख्याय नासत्या वक्षि) सखिभावाय सहयोगाय-असत्यव्यवहाररहितौ सभासेनावर्गौ प्रापयसि (वसाव्यां धारयः) अतिशयेन वसुप्राप्तौ विजयप्राप्तौ निर्धारय निश्चिनुहि (अश्विना सहस्रा मघानि ददतुः) यथा तौ त्वया सह व्याप्नुवन्तौ बहूनि धनानि प्रयच्छतः ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Going fast forward in the struggle of life, you move close by the ways of yajna, holding on to the common creative values of corporate life and bringing all complementary forces of the system together for friendship ever in action for advancement. Indra, brave hero and ruler, hold and manage the wealth of the nation while the Ashvins, complementary forces of the system, create and contribute a thousand forms of honour, wealth and all round prosperity to the commonwealth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा युद्धासाठी सभा व सेनेची सहमती व संगती करून विजय प्राप्त करतो. ॥४॥

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