ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 73/ मन्त्र 8
ऋषिः - गौरिवीतिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वमे॒तानि॑ पप्रिषे॒ वि नामेशा॑न इन्द्र दधिषे॒ गभ॑स्तौ । अनु॑ त्वा दे॒वाः शव॑सा मदन्त्यु॒परि॑बुध्नान्व॒निन॑श्चकर्थ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ए॒तानि॑ । प॒प्रि॒षे॒ । वि । नाम॑ । ईशा॑नः । इ॒न्द्र॒ । द॒धि॒षे॒ । गभ॑स्तौ । अनु॑ । त्वा॒ । दे॒वाः । शव॑सा । म॒द॒न्ति॒ । उ॒परि॑ऽबुध्नान् । व॒निनः॑ । च॒क॒र्थ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमेतानि पप्रिषे वि नामेशान इन्द्र दधिषे गभस्तौ । अनु त्वा देवाः शवसा मदन्त्युपरिबुध्नान्वनिनश्चकर्थ ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । एतानि । पप्रिषे । वि । नाम । ईशानः । इन्द्र । दधिषे । गभस्तौ । अनु । त्वा । देवाः । शवसा । मदन्ति । उपरिऽबुध्नान् । वनिनः । चकर्थ ॥ १०.७३.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 73; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे राजन् ! (त्वम्) तू (एतानि नाम) इन शत्रुओं को नमानेवाले अपने सैन्यबलों को (वि पप्रिषे) विशेषरूप से सुरक्षित रखता है-रख (ईशानः) इनका स्वामी समर्थ होता हुआ (गभस्तौ) अपने हाथ में भी वज्र को (दधिषे) धारण करता है (देवाः) विजय चाहनेवाले विद्वान् (शवसा) अपने बल से वर्तमान (त्वा) मुझे (अनुमदन्ति) हर्षित करते हैं (उपरिबुध्नान्) उत्कृष्ट दृढ़मूलवाले-बलवानों (वनिनः) हिंसकों को (चकर्थ) तू नष्ट करता है ॥८॥
भावार्थ
राजा शत्रुओं को नमानेवाले अपने सैन्यबलों की रक्षा करे तथा अपने हाथ में भी शस्त्र अस्त्र धारण करता है, तो विजयाकाङ्क्षी विद्वान् भी उसका साथ देते हैं, फिर वह अति-बलवान् शत्रुओं को भी नष्ट करता है ॥८॥
विषय
सूर्यवत् प्रजा-पालक का उदार शासन।
भावार्थ
जिस प्रकार इन्द्र अर्थात् तेजस्वी सूर्य (नाम) अनेक जलों को वृष्टि आदि द्वारा पूर्ण करता है, अन्तरिक्ष को मेघादि से भर देता है उसी प्रकार हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् राजन् ! हे प्रभो ! (त्वम्) तू भी (एतानि नाम पप्रिषे) इतने शत्रुओं के नमाने वाले अनेक बलों को पूर्ण करता है, सबको अपने में धारण करता है। हे प्रभो ! तू (एतानि नाम) इतने अनेक जगतों को वा भूतों, प्राणियों को (पप्रिषे) पाल रहा है। तू (ईशानः) सबका मालिक, सबका स्वामी, सब पर वशकर्त्ता है। (गभस्तौ दधिषे) जिस प्रकार सूर्य अनेक जलों को किरणों के बल पर धारण करता है उसी प्रकार हे राजन् ! प्रभो ! तू भी (एतानि) इन सब बलों को और अनेक जगतों और प्राणिवर्गों को (गभस्तौ दधिषे) अपने ग्रहण-सामर्थ्य में, अपने हाथ में, अपने अधीन, अपने वश में रखता है। (देवाः) समस्त विद्वान्, और समस्त सूर्यादि लोक (शवसा) ज्ञान और तेरे महान् सामर्थ्य से प्रभावित वा वशीभूत होकर (त्वा अनु मदन्ति) तेरे ही अनुकूल रह कर सदा प्रसन्न रहते हैं। (उपरि बुध्नान् वनिनः चकर्थ) जिस प्रकार ऊपर आकाश में मूल आश्रय रखने वाले, जल से पूर्ण मेघों को सूर्य वा विद्युत् वा वायु (चकर्थ) अपने तेज, दीप्ति और आघात युक्त वेग से ताड़ित करता है उसी प्रकार हे राजन् ! तू (उपरि बुध्नान्) ऊपर आकाश में अपना आश्रय साधने वाले (वनिनः) हिंसक शत्रुओं को भी (चकर्थ) दण्डित कर, उनको भी मार, व्योमयानादि से चढ़ाई करने वालों को भी नाश करने का प्रबन्ध और उद्योग कर। (२) इसी प्रकार हे प्रभो ! तू (उपरि बुध्नान्) ऊपर सर्वोपरि ज्ञानवान् वा (उपरि बुध्नान्) ऊपर शिरोभाग में मूल वाले, मस्तकादि में चित्त एकाग्र करने वाले वा सर्वोपरि परमेश्वर में अपना आश्रय लेने वाले (वनिनः) ऐश्वर्य सुख सौभाग्यशील वा ईश्वरभक्ति से युक्त सेवक जनों को (चकर्थ) सुखी सौभाग्यवान् कर देता है। (३) अध्यात्म में—‘देव’ इन्द्रियगण हैं, ‘इन्द्र’ आत्मा है, वह इन समस्त देहों वा रूपों को धारता, पूरता और पालता है, वह अपने ग्रहण सामर्थ्य पर इनको धारण करता है, समस्त प्राणगण उसके ज्ञान और बल से ही प्रसन्न, सुखी होते हैं, वह शिरोदेश में बद्धमूल हुए उनको (वनिनः) विषय ग्राहक रूप से सम्पन्न करता और इन्द्रिय प्रणालिका-रूप से बनाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गौरिवीतिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ९ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
उपरि- बुध्न
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार तत्त्वद्रष्टा प्रभु सब यज्ञों को प्रभु से होता हुआ समझते हैं, इसीलिए उन्हें उन यज्ञों का गर्व नहीं होता। यह गर्व का न होना ही उन्हें विनीत बनाये रखता है । (एतानि विनामा) = इन विविध नामों का उच्चारण करनेवाले प्रभु-भक्तों को हे (ईशान) = सर्वैश्वर्यवाले (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (त्वम्) = आप ही (पप्रिषे) = पूर्ण बनाते हैं, इनकी न्यूनताओं को आप ही दूर करते हैं। इनकी न्यूनताओं को दूर करने के लिये आप इन्हें (गभस्तौ) = ज्ञान-रश्मियों में (दधिषे) = धारण करते हैं। ज्ञान के प्रकाश में ये मार्ग-भ्रष्ट नहीं होते और मार्ग पर चलते हुए देववृत्ति के बनते हैं, आपके समीप और समीप पहुँचते जाते हैं । [२] (त्वा अनु) = आपकी अनुकूलता में चलते हुए (देवाः) = ये देव पुरुष (शवसा) = शक्ति से (मदन्ति) = हर्ष का अनुभव करते हैं । उपासक उपास्य की शक्ति से शक्ति सम्पन्न बनता है । उपासना का मुख्य लाभ ही यह है कि उस प्रभु की शक्ति को हम अपने में भरनेवाले होते हैं। [३] हे प्रभो! आप (वनिनः) = इन उपासकों को [वन संभक्तौ ] (उपरिबुध्नान्) = ऊपर मूलवाला (चकर्थ) = करते हैं। ये अपने जीवन का मूल व आधार प्रकृति को न बनाकर प्रभु को बनाते हैं । इनकी क्रियाएँ प्राकृतिक भोगों को दृष्टिकोण में न रखकर प्रभु प्राप्ति के दृष्टिकोण से होती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु स्मरण करें। प्रभु हमारा पूरण करेंगे, ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करायेंगे। हम प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न होते हुए प्रभु प्राप्ति के उद्देश्य से ही सब क्रियाओं को करेंगे।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र) हे राजन् ! (त्वम्) त्वं खलु (एतानि नाम) इमानि शत्रून् नम्रीकुर्वाणानि स्वसैन्यबलानि (वि पप्रिषे) विशिष्टतया पिपर्षि रक्षसि (ईशानः-गभस्तौ दधिषे) समर्थः स्वामी सन् स्वहस्तेऽपि वज्रं धारयसि (देवाः) विद्वांसो विजयकाङ्क्षिणः (शवसा) स्वबलेन वर्तमानम् (त्वा-अनुमदन्ति) त्वामनुहर्षन्ति (उपरिबुध्नान् वनिनः-चकर्थ) उत्कृष्टमूलान् बलवतोऽपि हिंसकान् शत्रून् नाशय ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, you fill up all these agents of positivity with strength. Ruling and controlling, you hold the rule and justice like the thunderbolt in hand. Consequently all the divinities of nature and humanity rejoice and exalt you with power and joy. Indeed you turn all the clouds above downwards to release the showers of life giving
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने शत्रूला नमविणाऱ्या आपल्या सैन्यबलाचे रक्षण करावे व जेव्हा तो आपल्या हातात अस्त्रशस्त्र धारण करतो तेव्हा विजयाकांक्षी विद्वानही त्याला साथ देतात. मग ते अतिबलवान शत्रूला नष्ट करतात. ॥८॥
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