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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 73/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गौरिवीतिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सना॑माना चिद्ध्वसयो॒ न्य॑स्मा॒ अवा॑ह॒न्निन्द्र॑ उ॒षसो॒ यथान॑: । ऋ॒ष्वैर॑गच्छ॒: सखि॑भि॒र्निका॑मैः सा॒कं प्र॑ति॒ष्ठा हृद्या॑ जघन्थ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सऽना॑माना । चि॒त् । ध्व॒स॒यः॒ । नि । अ॒स्मै॒ । अव॑ । अ॒ह॒न् । इन्द्रः॑ । उ॒षसः॑ । यथा॑ । अनः॑ । ऋ॒ष्वैः । अ॒ग॒च्छः॒ । सखि॑ऽभिः । निऽका॑मैः । सा॒कम् । प्र॒ति॒ऽस्था । हृद्या॑ । ज॒घ॒न्थ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सनामाना चिद्ध्वसयो न्यस्मा अवाहन्निन्द्र उषसो यथान: । ऋष्वैरगच्छ: सखिभिर्निकामैः साकं प्रतिष्ठा हृद्या जघन्थ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सऽनामाना । चित् । ध्वसयः । नि । अस्मै । अव । अहन् । इन्द्रः । उषसः । यथा । अनः । ऋष्वैः । अगच्छः । सखिऽभिः । निऽकामैः । साकम् । प्रतिऽस्था । हृद्या । जघन्थ ॥ १०.७३.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 73; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्रः) राजा (सनामाना चित्) समान नामवाले शासकों के साथ (निध्वसयः) शत्रु को नियन्त्रित करता है-स्वाधीन करता है (अस्मै) इस शत्रु को (अवहन्) हिंसित करता है (उषसः-यथा अनः) सूर्य जैसे उषा के विस्तार को स्वाधीन करता है, फिर नष्ट करता है (ऋष्वैः सखिभिः) महान् सहयोगी शासकों सेनाध्यक्षों (निकामैः-साकम्) स्वार्थहीन प्रजा की कामना तथा राष्ट्र की कामना करनेवालों के साथ (अगच्छः) शत्रु के प्रति जा-आक्रमण कर (प्रतिष्ठा हृद्या जगन्थ) हृदय में होनेवाले सुखफलों को प्राप्त कर ॥६॥

    भावार्थ

    राजा को चाहिए कि अपने ऊँचे अधिकारियों की सहायता से शत्रुओं को नियन्त्रित तथा शासित करे, जो अधिकारी स्वार्थरहित तथा प्रजाहित राष्ट्रहित रखते हों, उनके साथ अपने हार्दिक भावों को सफल करे ॥६॥

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    विषय

    सूर्यवत् राष्ट्रपति के कर्त्तव्य। प्रजापालन और शत्रुनाश।

    भावार्थ

    (इन्द्रः चित्) तेजस्वी सूर्य जिस प्रकार (स-नामाना नि ध्वसयः) समान नाम वाले ‘अश्वी’ अर्थात् दिन रात्रि दोनों का सञ्चालन करता है, उसी प्रकार (इन्द्रः) शत्रुनाशक और ऐश्वर्यवान् राष्ट्र का स्वामी, राजा, (स-नामाना) एक समान नाम वाले शास्य-शासक दोनों वर्गों को (नि ध्वसयः) अपने अधीन नियम व्यवस्था में चलावे। जिस प्रकार (इन्द्रः उषसः अनः अव अहन्) सूर्य प्रभात की दीप्तियुक्त उषा के (अनः) जीवन को (अव अहन्) प्रदान करता है, उसी प्रकार तेजस्वी पुरुष (उषसः) चित्त से चाहने वाली प्रजा के जीवन को प्रदान करे। अथवा जिस प्रकार सूर्य (उषसः अनः) उषा के जीवन अर्थात् कोमल प्रकाश को (अव अहन्) स्वयं उदय होकर तीव्र प्रकाश से लुप्त कर देता है उसी प्रकार तेजस्वी राजा अपने प्रखर तीक्ष्ण प्रताप से (उषसः) प्रजा को दग्ध करने वाले शत्रु के (अनः) रथादि को, वा प्राणों तक को (अव अहनः) विनष्ट करे। वह (ऋष्वैः) बड़े २ महान्, गुणों और पराक्रमों में बड़े (निकामैः सखिभिः साकं) खूब चाहने वाले, अति प्रिय मित्रों के साथ (हद्या) मनोहर, हृदय के प्रिय (प्रतिष्ठा) प्रतिष्ठा, मान, आदर सत्कार को (जघन्थ) प्राप्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौरिवीतिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ९ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु स्मरण व प्राणायाम

    पदार्थ

    [१] (यथा) = जैसे (इन्द्र:) = सूर्य (उषसः अनः) = उषा के शकट को अवाहन नष्ट कर देता हैं, सूर्योदय होता है और उषा की समाप्ति हो जाती है, इसी प्रकार (अस्मा) = गत मन्त्र में वर्णित ऋत के पालन करनेवाले के लिये (सनामाना चित्) = समान नामवाले भी ['काम' यह वासना व प्रभु दोनों का नाम है, इसी प्रकार 'प्रद्युम्न' 'असुर' आदि शब्द भी वासना व प्रभु दोनों के ही वाचक हैं] इन आसुरभावों को (निध्वसयः) = निश्चय से नष्ट करते हैं। [२] इनके नाम के लिये (ऋष्यैः) = गतिशील (निकामैः) = निश्चय से कामना को पूर्ण करनेवाले (सखिभिः) = मरुत् [=प्राण] रूप मित्रों के साथ (अगच्छः) = इन पर आप आक्रमण करते हैं । प्राणसाधना के द्वारा ही तो इनका विनाश होता है । हे प्रभो ! (साकम्) = इस प्राणसाधना के द्वारा आप (हृदि प्रतिष्ठा) = हृदय में दृढमूल हुए- हुए इन कामादि को (आजघन्थ) = सर्वतो विनष्ट कर देते हैं। काम-क्रोध-लोभ के किलों को तोड़कर आप हमारे जीवन में नैर्मल्य व प्रसाद का स्थापन करते हैं । [३] कामादि का ध्वंस प्रभु- स्मरण के द्वारा हमारे जीवनों में इस प्रकार होता है जैसे कि सूर्योदय के होने पर उषा का सूर्योदय हुआ और उषा का नामोनिशान समाप्त हो जाता है, इसी प्रकार प्रभु का स्मरण हुआ और काम का ध्वंस हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु स्मरण व प्राणायाम कामादि आसुर वृत्तियों के संहार के साधन हैं।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रः) राजा (सनामाना चित्) समाननामकैः ‘आकारादेशश्छान्दसः’ खल्वपि शासकैः सह (निध्वसयः) शत्रुं नियमयति स्वाधीनीकरोति (अस्मै) इमं शत्रुम् “द्वितीयार्थे चतुर्थी व्यत्ययेन” (अवहन्) अवहन्ति (उषसः-यथा-अनः) सूर्यो यथा ह्युषसः शकटं विस्तारं स्वाधीनीकरोति पुनश्च नाशयति (ऋष्वैः सखिभिः-निकामैः-साकम्-आगच्छः) महद्भिः शासकैः सेनाध्यक्षैः सह स्वार्थहीनैः प्रजाकामैः राष्टकार्मैः शासकैः सह गच्छ शत्रुं प्रति (प्रतिष्ठा हृद्या जगन्थ) हृद्यानि हृदि भवानि प्रतिष्ठनानि सुखफलानि प्राप्नुयाः ‘जगन्थागच्छ’ [यजु० १८।७१ दयानन्दः] “अन्येषामपि दृश्यते” [अष्टा० ६।३।१३५] इति दीर्घः ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, dispel the darkness of the forces of equal name and power and subdue them with your light like the sun which overtakes the car of the dawns and turns it to day. Move forward with heroic friends who are brilliant and ambitious and with them together win the firmness and stability of your heart’s desire.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने आपल्या उच्च अधिकाऱ्यांच्या साह्याने शत्रूला नियंत्रित व शासित करावे. जे अधिकारी स्वार्थरहित प्रजाहित व राष्ट्रहिताचे रक्षण करतात. त्यांच्याबरोबर राहून आपले हार्दिक भाव सफल करावेत. ॥६॥

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