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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 73/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गौरिवीतिः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मन्द॑मान ऋ॒तादधि॑ प्र॒जायै॒ सखि॑भि॒रिन्द्र॑ इषि॒रेभि॒रर्थ॑म् । आभि॒र्हि मा॒या उप॒ दस्यु॒मागा॒न्मिह॒: प्र त॒म्रा अ॑वप॒त्तमां॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मन्द॑मानः । ऋ॒तात् । अधि॑ । प्र॒ऽजायै॑ । सखि॑ऽभिः । इन्द्रः॑ । इ॒षि॒रेभिः॑ । अर्थ॑म् । आ॒भिः॒ । हि । मा॒याः । उप॑ । दस्यु॑म् । आ । अगा॑त् । मिहः॑ । प्र । त॒म्राः । अ॒व॒प॒त् । तमां॑सि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मन्दमान ऋतादधि प्रजायै सखिभिरिन्द्र इषिरेभिरर्थम् । आभिर्हि माया उप दस्युमागान्मिह: प्र तम्रा अवपत्तमांसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मन्दमानः । ऋतात् । अधि । प्रऽजायै । सखिऽभिः । इन्द्रः । इषिरेभिः । अर्थम् । आभिः । हि । मायाः । उप । दस्युम् । आ । अगात् । मिहः । प्र । तम्राः । अवपत् । तमांसि ॥ १०.७३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 73; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्रः) राजा (मन्दमानः) हर्षित होता हुआ-हर्ष के हेतु (ऋतात्-अधि) सत्यशासन के निमित्त (प्रजायै) प्रजाकल्याणार्थ (इषिरेभिः) प्रगतिशील अधिकारियों के द्वारा (अर्थम्) अर्थनीय कल्याण को साधता है (आभिः) इन प्रजाओं के सहयोग से (मायाः) कार्यबुद्धियों को (उप) उपमन्त्रित करके-विचार कर (दस्युम्-आगात्) क्षयकर्त्ता-शत्रु पर आक्रमण करता है (तम्राः-मिहः प्र) काङ्क्षणीय सुख सींचनेवाली वृष्टियों को प्रारम्भ करता है, प्रवाहित करता है (तमांसि-अवपत्) दुःखज्ञान को नष्ट करता है ॥५॥

    भावार्थ

    राजा को अच्छा शासन करने के लिये राज्य के उच्चाधिकारियों के साथ प्रजा के हितार्थ तथा प्रजाओं के साथ भी मन्त्रणा-विचार कर शत्रु पर आक्रमण करना चाहिए तथा अभीष्ट सुखवृष्टि करता हुआ दुःखाऽज्ञानादि को नष्ट करे ॥५॥

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    विषय

    सेनापति वा सभापति के कर्त्तव्य, न्याय शासन, दुष्ट दमन।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्ता ! तत्वदर्शी राजा वा सेना सभा का पति (प्रजायै अधि) प्रजा के हित के लिये (सखिभिः) समदर्शी समान, अनुरूप वचन बोलने वाले, सर्वस्नेही, सर्वहितैषी (इषिरेभिः) उत्तम इच्छावान्, उत्साही, अन्यों को ठीक मार्ग में लेजाने वाले पुरुषों से (ऋतात् अर्थम् अधि अगात्) सत्य न्याय से ही प्राप्तव्य प्रयोजन को प्राप्त करे और (आभिः) उन समस्त प्रजाओं से (मायाः) नाना प्रकार की बुद्धियों और अनेक पदार्थों को बनाने की नाना बुद्धियों और व्यवसायों को (आ उप अगात्) प्राप्त करे। वह (दस्युम् उप) नाशकारी दुष्ट पुरुष को (उप अवपत्) उखाड़ डाले। और (तम्राः) आकांक्षा करने वाली (मिहः) जलवृष्टियों के तुल्य सब को बढ़ाने वाली वैश्य प्रजाओं को (आगात्) प्राप्त करे और (तमांसि प्र अवपत्) राष्ट्र से सब प्रकार के अन्धकारों को खण्डित कर दूर करे।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौरिवीतिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ९ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    ऋत का पालन और प्राणायाम

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (ऋतात्) = हमारे दैनिक कार्यक्रम को ठीक समय पर करने से अथवा यज्ञों से (अधि- मन्दमानः) = खूब प्रसन्न होते हुए, (इषिरेभिः) = निरन्तर गतिशील (सखिभिः) = मरुत् [=प्राण] रूप मित्रों के द्वारा (प्रजायै) = हम प्रजाओं के लिये अर्थम् वाञ्छनीय वस्तुओं को अवपत्-देते हैं । जिस समय हम [क] सब क्रियाओं को ठीक समय व स्थान पर करते हैं, [ख] जब हमारा जीवन यज्ञमय होता है, [ग] जब हम प्राणसाधना करनेवाले होते हैं, तब प्रभु हमें सब वाञ्छनीय वस्तुएँ देते हैं । वस्तुतः वाञ्छनीय वस्तुएँ तीन ही हैं, शरीर का स्वास्थ्य, मन का नैर्मल्य और बुद्धि की तीव्रता। ये तीनों ही इन मरुतों व प्राणों की साधना से प्राप्त होती हैं । [२] (आभिः) = इन प्रजाओं के हेतु से (हि) = ही प्रभु [क] (मायाः) = असुरों की मायाओं पर तथा (दस्युम्) = [दस्=destroy] उपक्षीण करनेवाली इन काम-क्रोधाति दास्यव वृत्तियों पर उप आगत्-आक्रमण करते हैं। जीव के हित के लिये प्रभु इन वृत्तियों को नष्ट करते हैं । [ख] तमांसि अज्ञानान्धकारों को (अवपत्) = नष्ट करते हैं । 'ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा' इस ऋतम्भरा प्रज्ञा के पोषण के होने पर अज्ञानान्धकार का नामोनिशान नहीं रहता। [ग] (तम्रा:) = [तम् = to wish, desire ] वाञ्छनीय (मिहः) = धर्ममेघ समाधि में होनेवाली आनन्द की वृष्टियों को (अवपत्) = करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ऋत के पालन व प्राणायाम के होने पर [क] सब वाञ्छनीय वस्तुएँ प्राप्त होती हैं, [ख] अन्दर ऋतम्भरा प्रज्ञा का प्रकाश होता है, [ग] समाधिजन्य आनन्द की प्राप्ति होती है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रः) राजा (मन्दमानः) स राजा मन्दयमानो हर्षयन्-हर्षणहेतोः (ऋतात्-अधि) सत्यशासने (प्रजायै) प्रजाकल्याणाय (इषिरेभिः) प्रगतिशीलैरधिकारिभिः (अर्थम्) अर्थनीयं कल्याणं साधयति (आभिः) प्रजाभिः सह (मायाः) बुद्धीः “माया प्रज्ञानाम” [निघ० ३।९] (उप) उपमन्त्रय (दस्युम्-आगात्) क्षयकर्त्तारं शत्रुम्-आगच्छति-आक्राम्यति (तम्राः-मिहः प्र) काङ्क्षणीयाः सुखसेचनीरवृष्टीः प्रक्रमते (तमांसि-अवपत्) दुःखाज्ञानानि नाशयति ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Further, happy and joyous with the rule of inviolable law and dispensation of justice, Indra creates, holds, manages and provides wealth and well being for the people with the cooperation of his friendly and enthusiastic colleagues, and with these very cooperative forces faces the negative elements, negates their mischief and dispels all fog, depression and oppressive darkness from the land, uproots all these.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    चांगले शासन करण्यासाठी राजाला राज्याच्या अधिकाऱ्यांबरोबर प्रजेच्या हितासाठी व प्रजेबरोबरही विचार-विनिमय करून शत्रूवर आक्रमण केले पाहिजे व अभीष्ट सुखाची वृष्टी करत दु:ख, अज्ञान नष्ट केले पाहिजे. ॥५॥

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