Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 2
    ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मु॒मोद॒ गर्भो॑ वृष॒भः क॒कुद्मा॑नस्रे॒मा व॒त्सः शिमी॑वाँ अरावीत् । स दे॒वता॒त्युद्य॑तानि कृ॒ण्वन्त्स्वेषु॒ क्षये॑षु प्रथ॒मो जि॑गाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मु॒मोद॑ । गर्भः॑ । वृ॒ष॒भः । क॒कुत्ऽमा॑न् । अ॒स्रे॒मा । व॒त्सः । शिमी॑ऽवान् । अ॒रा॒वी॒त् । सः । दे॒वऽता॑ति । उत्ऽय॑तानि । कृ॒ण्वन् । स्वेषु॑ । क्षये॑षु । प्र॒थ॒मः । जि॒गा॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मुमोद गर्भो वृषभः ककुद्मानस्रेमा वत्सः शिमीवाँ अरावीत् । स देवतात्युद्यतानि कृण्वन्त्स्वेषु क्षयेषु प्रथमो जिगाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मुमोद । गर्भः । वृषभः । ककुत्ऽमान् । अस्रेमा । वत्सः । शिमीऽवान् । अरावीत् । सः । देवऽताति । उत्ऽयतानि । कृण्वन् । स्वेषु । क्षयेषु । प्रथमः । जिगाति ॥ १०.८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ककुद्मान्) महान् अग्नि, प्रशस्त तेजोवीर्यवाला (वृषभः) प्रकाशसुखवर्षक (गर्भः) द्यावापृथिवीमय जगत् के अन्दर स्थित (मुमोद) विकसित होता है या प्राणियों को सुख पहुँचाता है (अत्सः-अस्रेमा) बच्चा अल्प होता हुआ भी क्षीणबलवाला नहीं-बलवान् है (शिमीवान्-अरावीत्) वह कर्म करनेवाला अपने को घोषित करता है (सः-देवताति) वह दिव्य शक्तिवाला (उद्यतानि कृण्वन्) बलवाले कार्यों को करता हुआ (स्वेषु क्षयेषु प्रथमः-जिगाति) अपने स्थानों में-द्युलोक में सूर्यरूप से, अन्तरिक्ष में विद्युद्रूप से, पृथिवी पर अग्निरूप से प्रकृष्टतम-प्रमुख प्राप्त होता है, रहता है ॥२॥

    भावार्थ

    महान् तेजोबल से सम्पन्न द्यावापृथिवीमय जगत् के अन्दर विकसित हुआ प्राणियों को प्रकाशसुख में बसानेवाला है, वह अल्प होता हुआ भी बलपूर्ण है, बड़े-बड़े बलशाली कार्यों को करनेवाला है। द्युलोक में सूर्यरूप से, अन्तरिक्ष में विद्युद्रूप से, पृथिवी पर अग्निरूप से प्रमुखतया वर्तमान है। राजा या विद्वान् को अग्नि से अनेक प्रकार का कार्य लेकर विविध लाभों को प्राप्त करना चाहिये तथा स्वयं भी उसी की भाँति अन्यों के लिये लाभदायी-उपकारक बनना चाहिये ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सब से प्रथम स्थान में

    पदार्थ

    गत मन्त्र में वर्णित 'त्रिशिराः' (मुमोद) = आनन्द को प्राप्त करता है, आनन्दमय स्वभाव वाला होता है । (गर्भः) = प्रभु को अपने अन्दर धारण करनेवाला होता है। (वृषभः) = शक्तिशाली होता है, (ककुद्मान्) = शिखर वाला, अर्थात् शरीर, मन व मस्तिष्क की उन्नति के दृष्टिकोण से उन्नत हुआ- हुआ 'त्रिशिरा: ' अथवा सायण के शब्दों में 'उन्नततेजस्क: 'अत्यन्त तेजस्वी होता है। (अस्त्रेमा) [praiseworthy=प्रशंसनीय] = इसके जीवन में कोई अप्रशस्त आचरण नहीं होता। (वत्सः) = यह प्रभु का प्रिय होता है, अथवा 'वदति' प्रभु के नामों का उच्चारण करता है। और (शिमीवान्) = शान्त भाव से उत्तम कर्मों को करनेवाला होता है। कर्मों में लगाहुआ (अरावीत्) = प्रभु का स्मरण करता है, प्रभु के नामों का जप करता है। प्रभु नाम स्मरण करता हुआ (स) = वह (देवताति) = दिव्यगुणों के विस्तार वाले यज्ञों में (उद्यतानि कृण्वन्) = उत्साहयुक्त कर्मों को करता हुआ (स्वेषु क्षयेषु) = अपने घरों में (प्रथमः) = सर्वोन्नत स्थिति में जिगाति पहुँचता है। मनुष्य का आदर्श यही होना चाहिए कि 'अति समं क्राम' मैं बराबर वालों से आगे लाँघ जाऊँ। आगे बढ़ता हुआ प्रथम स्थान में पहुँच पाऊँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुस्मरण पूर्वक कर्म करते हुए हम निरन्तर आगे बढ़े। कर्ममय जीवनवाले होकर आनन्दित हों ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    महान् और देह गत आत्मा का समान वर्णन

    भावार्थ

    (सः) वह आत्मा (गर्भः) सबको अपने में ग्रहण करने वाला, (वृषभः) मेघवत् समस्त सुखों का वर्षक, बलवान् (ककुद्मान्) सर्वोच्च तेजस्वी, (अस्त्रेमा) सर्वश्रेष्ठ, (वत्सः) स्तुत्य, सब में व्यापक वा उपदेष्टा, (शिमीवान्) कर्मों को करने में कुशल, (अरावीत्) उपदेश करता है। (सः) वह (देवताति) पृथिव्यादि समस्त लोकों और किरणों में सूर्यवत् (स्वेषु क्षयेपु) अपने समस्त ऐश्वर्यों व लोकों में (उद्यतानि कृण्वन्) उत्तम २ व्यवस्थाएं करता हुआ, (प्रथमः) सबसे प्रथम होकर (जिगाति) विराजता व्यापता है। (२) वह जीवात्मा सब में श्रेष्ठ देह-शकट का बलीवर्द, प्रथम गर्भ रूप में जौर फिर वत्सरूप में उत्पन्न होता है, रोता है। वह देव अर्थात् इन्द्रियों के अपने २ स्थानों को स्थापित करता है। वह सबसे मुख्य होकर व्यापता है।

    टिप्पणी

    ‘अस्त्रेमा’ प्रशस्यनामैतत्॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशिरास्त्वाष्ट् ऋषिः॥ १–६ अग्निः। ७-९ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५–७, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ककुद्मान्) तेजोवीर्यं प्रशस्तं यस्मिन् स प्रशस्ततेजोवीर्यवान् “एतद्वीर्यं यत्ककुत्” [तै० स० २।४।११।१] (वृषभः-गर्भः-मुमोद) स सुखवर्षको द्यावापृथिव्योर्द्यावापृथिवीमयजगतोऽन्तस्थः सन् “गर्भः-अन्तस्थः” [ऋ० ३।२९।११ दयानन्दः] विकसितो जातो मोदयति, सुखयति जनान् अन्तर्गतो णिजर्थः “मोदध्वं सुखयत” [यजु० ११।४६ दयानन्दः] (अत्सः-अस्रेमा शिमीवान्-अरावीत्) वत्स इवाल्पः सन् नाक्षयो बलहीनः “अस्रेमाणम्-अक्षयम्” [ऋ० ३।३९।१३ दयानन्दः] कर्मवान् प्रशस्तकर्मशक्तिमान् “शिमी कर्मनाम” [निघ० २।१] स्वात्मानं घोषयतीव (सः-देवताति-उद्यतानि कृण्वन्) स एवाग्निर्देवो दिव्यशक्तिमान् “सर्वदेवात् तातिल्” [अष्टा० ४।४।१४२] स्वार्थे, कार्याण्युद्यतानि बलवन्ति कुर्वन् (स्वेषु क्षयेषु प्रथमः-जिगाति) स्वेषु स्थानेषु द्युलोकेऽन्तरिक्षे पृथिव्यां च सूर्यविद्युदग्निरूपैः प्रतमः प्रकृष्टतमः सन् प्राप्तो भवति, “प्रथम इति मुख्यनाम प्रतमो भवति” [निरु० २।२२] ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni waxes with joyous energy, all pervasive and comprehending, mighty abundant, virile and invigorating, lovely as a child yet perfect and powerful as accomplisher, and expresses itself loud and bold from silence of the night to roar of the winds and thunder of the clouds. Thus does Agni go on, the quintessence of divine powers, raising and energising all presences, as the prime power and presence in its own universal dwellings over and across spaces (as agni, fire and magnetic force on earth, as vayu, electric energy in the middle regions, and as aditya, light in the high heavenly regions).

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    अग्नी हा महान तेजबलाने संपन्न, द्यावापृथ्वीमय जगात विकसित झालेला, प्राण्यांना प्रकाशसुखात ठेवणारा आहे. तो अल्प असूनही बलवान आहे. मोठमोठी कार्ये करणारा आहे. द्युलोकात सूर्यरूपाने, अंतरिक्षात विद्युतरूपाने, पृथ्वीवर अग्निरूपाने मुख्यत: वर्तमान आहे. राजा किंवा विद्वानांनी अग्निद्वारे अनेक कार्ये करावीत व लाभ करून घ्यावेत, तसेच स्वत:ही त्यांनी इतरांसाठी लाभकारी-उपकारक बनले पाहिजे. ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top