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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 6
    ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    भुवो॑ य॒ज्ञस्य॒ रज॑सश्च ने॒ता यत्रा॑ नि॒युद्भि॒: सच॑से शि॒वाभि॑: । दि॒वि मू॒र्धानं॑ दधिषे स्व॒र्षां जि॒ह्वाम॑ग्ने चकृषे हव्य॒वाह॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भुवः॑ । य॒ज्ञस्य॑ । रज॑सः । च॒ । ने॒ता । यत्र॑ । नि॒युत्ऽभिः॑ । सच॑से । शि॒वाभिः॑ । दि॒वि । मू॒र्धान॑म् । द॒धि॒षे॒ । स्वः॒ऽसाम् । जि॒ह्वाम् । अ॒ग्ने॒ । च॒कृ॒षे॒ । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भुवो यज्ञस्य रजसश्च नेता यत्रा नियुद्भि: सचसे शिवाभि: । दिवि मूर्धानं दधिषे स्वर्षां जिह्वामग्ने चकृषे हव्यवाहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भुवः । यज्ञस्य । रजसः । च । नेता । यत्र । नियुत्ऽभिः । सचसे । शिवाभिः । दिवि । मूर्धानम् । दधिषे । स्वःऽसाम् । जिह्वाम् । अग्ने । चकृषे । हव्यऽवाहम् ॥ १०.८.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे पार्थिव अग्नि ! तू (जिह्वां स्वर्षां हव्यवाहं चकृषे) अपनी ज्वाला को सुखसुम्भाजन करानेवाली होने योग्य वस्तु को वहन करनेवाली करता है-बनाता है, तो (दिवि मूर्धानं दधिषे) द्युलोक में वर्तमान सूर्य को धारण करता है-आश्रय बनाता है, हव्य पदार्थ को ऊपर ले जाने को-सूर्य की ओर हव्य पदार्थ को प्रेरित करता है (यत्र शिवाभिः-नियुद्भिः-सचसे) जिस देश में कल्याण करनेवाली नियत आहुतियों के साथ सङ्गत होता है, तो (यज्ञस्य रजसः-च नेता भुवः) उस देश में तू यज्ञ का और उस रञ्जनात्मक प्रदेश का नेता-सम्पादक होता है ॥६॥

    भावार्थ

    अग्नि की ज्वाला सुखसम्भाजिका है। वह होमे हुए पदार्थ वहन करके सूर्य तक ले जाती है। नियत आहुतियों से संयुक्त होकर ही अग्नि यज्ञ को और यज्ञ से रञ्जनीय हुए देश या वातावरण को उत्तम बनाती है। ऐसे ही विद्वान् की वाणी मीठी और कल्याणकारी होकर समाज में ऊपर तक पहुँचकर वातावरण को अच्छा बनाती है ॥६॥

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    विषय

    स्वर्षा हव्यवाट् जिह्वा

    पदार्थ

    हे प्रभो! आप हमारे जीवनों में (यज्ञस्य) = यज्ञात्मक कर्मों का तथा (रजसः) = क्रियाशीलता का [रजः कर्मणि] नेता (भुवः) = प्रणयन करनेवाले होते हैं, (यत्रा) = इन यज्ञात्मक कर्मों के निमित्त ही (शिवाभिः) = कल्याणकर (नियुद्भिः) = इन्द्रियाश्वों से हमें (सचसे समवेत) = युक्त करते हैं। प्रभु हमें शुभ कर्मों की ओर झुकाव वाली इन्द्रियों को प्राप्त कराते हैं । 'हम अशुभ कर्मों में न प्रवृत्त हों' इसी उद्देश्य से (मूर्धानम्) = हमारे मस्तिष्क को दिवि प्रकाश में (दधिषे) = हे प्रभो ! आप स्थापित करते हो। हमें प्रभु ज्ञान देते हैं, जिससे कि हमारे कर्मों की पवित्रता बनी रहे । हे अग्ने अग्रेणी प्रभो ! आप हमारी (जिह्वाम्) = जिह्वा को (स्वर्षाम्) = प्रकाशमय प्रभु का सेवन करनेवाली उस ज्ञान ज्योति के पुञ्ज प्रभु का नामोच्चारण करनेवाली तथा (हव्यवाहम्) = हव्य पदार्थों का ही सेवन करनेवाली (चकृषे) = करते हैं । हमारी जिह्वा ज्ञान के शब्दों व प्रभु के नामों का ही उच्चारण करती है और पवित्र यज्ञशेष का ही सेवन करती है।

    भावार्थ

    भावार्थ — [क] हम क्रियाशील हों और यज्ञों में लगे रहें, [ख] इन्द्रियों को शुभ बनाएँ, [ग] ज्ञान को धारण करे, [घ] प्रभु नामोच्चारण करें और हव्य पदार्थों का ही सेवन करें।

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    विषय

    विराट् विश्व-यज्ञ का चालक व्यापक प्रभु सबका शिरोवत् है। वही जगत् को भी प्रलयकाल में लीलता है।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) सर्वव्यापक ! अग्ने ! तू (यज्ञस्य) यज्ञ, विराट् यज्ञ का और (रजसः च) समस्त लोकों का भी (नेता) संचालक (भुवः) है, रहा, और रहेगा। (यत्र) जिनमें तू (शिवाभिः) कल्याणकारक, अन्तः-व्यापक (नि-युद्भिः) प्रेरक शक्तियों से (सचसे) व्याप रहा है। तू ही (दिवि) आकाश में (स्वर्षाम्) तेज को देने वाले सूर्य को (मूर्धानं) शिरोवत् सर्वोपरि (दधिषे) धारण करता है और तू ही (हव्य-वाहम्) ज्ञान प्राप्त कराने वाली (जिह्वाम्) हव्यवाहिनी अग्नि, जिह्वा के तुल्य सत्य प्रकाशक वेदवाणी को वा जगत् के सञ्चालक, प्रलयकाल में जगत् को अपने भीतर ले लेने वाली ज्वाला को (चकृषे) प्रकट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशिरास्त्वाष्ट् ऋषिः॥ १–६ अग्निः। ७-९ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५–७, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे अग्ने ! यदा त्वं (जिह्वां स्वर्षां हव्यवाहं चकृषे) स्वज्वालां सुखसम्भाजिकां “स्वं सुखं सन्ति सम्भजति यया सा स्वर्षा, ताम्” [यजु० १३।१५ दयानन्दः ] “षण सम्भक्तौ” [भ्वादिः] होतुमर्ह्यस्य वोढ्रीं करोषि (दिवि मूर्धानं दधिषे) तदा त्वं द्युलोके वर्तमानं सूर्यम् “एष वै मूर्धा य एष सूर्यः तपति [श० १३।४।१।१३] प्रति धारयसि-आश्रयसि-तद्धव्यं प्रसारयितुम्, उक्तं यथा−“अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठति” [मनु० ३।६७] (यत्र शिवाभिः-नियुद्भिः-सचसे) यत्र देशकल्याणकरीभिः-नियताहुतिभिः “नियुतो नियमनात्” [निरु० ५।२७] सह समवैति (यज्ञस्य रजसः-च नेता भुवः) तत्र त्वं यज्ञस्य तत्फलभूतस्य रञ्जनीयप्रदेशस्य च नेता सम्पादको भवसि ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, you are the leader and carrier of yajnic energies and energiser of the regions through which the energies rise and radiate, where you join and conduct the holy waves of energy onward. In the regions of light you sustain the blissful sun high and on the earth you enjoin your flames of fire to carry the fragrance up and around for the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अग्नीची ज्वाला सुख देणारी आहे. ती होमात टाकलेल्या पदार्थांचे वहन करून सूर्यापर्यंत घेऊन जाते. निश्चित केलेल्या आहुतीने संयुक्त होऊनच अग्नी यज्ञाला व यज्ञाने रक्षणीय झालेल्या देशाला किंवा वातावरणाला उत्तम बनविते. तशीच विद्वानाची वाणी मधुर व कल्याणकारी बनून समाजात वरपर्यंत पोचून वातावरण चांगले करते. ॥६॥

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