ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 4
ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उ॒षौ॑षो॒ हि व॑सो॒ अग्र॒मेषि॒ त्वं य॒मयो॑रभवो वि॒भावा॑ । ऋ॒ताय॑ स॒प्त द॑धिषे प॒दानि॑ ज॒नय॑न्मि॒त्रं त॒न्वे॒३॒॑ स्वायै॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒षःऽउ॑षः । हि । व॒सो॒ इति॑ । अग्र॑म् । एषि॑ । त्वम् । य॒मयोः॑ । अ॒भ॒वः॒ । वि॒भाऽवा॑ । ऋ॒ताय॑ । स॒प्त । द॒धि॒षे॒ । प॒दानि॑ । ज॒नय॑न् । मि॒त्रम् । त॒न्वे॑ । स्वायै॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उषौषो हि वसो अग्रमेषि त्वं यमयोरभवो विभावा । ऋताय सप्त दधिषे पदानि जनयन्मित्रं तन्वे३ स्वायै ॥
स्वर रहित पद पाठउषःऽउषः । हि । वसो इति । अग्रम् । एषि । त्वम् । यमयोः । अभवः । विभाऽवा । ऋताय । सप्त । दधिषे । पदानि । जनयन् । मित्रम् । तन्वे । स्वायै ॥ १०.८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वसो त्वम्) हे स्वप्रकाशतेज से आच्छादन करनेवाले अग्नि ! सूर्यरूप ! तू (उषः उषः-हि) प्रत्येक उषोवेला-प्रति प्रातःकाल-निरन्तर (अग्रम्-एषि) मनुष्यों के सम्मुख प्राप्त होता है-उदय होता है (यमयोः-विभावा-अभवः) युगलरूप दिनरात का प्रकट करनेवाला है (ऋताय स्वायै तन्वे मित्रं जनयन्) यज्ञ-श्रेष्ठ कर्म के लिये अपने स्वरूप से अग्नि को उत्पन्न करनेहेतु (सप्त पदानि दधिषे) सात रङ्गवाली किरणों को धारण करता है ॥४॥
भावार्थ
अग्निरूप सूर्य अपने प्रकाश या तेज से संसार को सुरक्षार्थ आच्छादित करता है, यज्ञादि श्रेष्ठकर्मों के संपादनार्थ अग्नि को पृथिवी पर प्रकट करता है, वह अग्नि सूर्य की सात रङ्गवाली किरणों द्वारा पृथिवी पर प्रकट होती है, सूर्यकान्त मणि के प्रयोग से कुत्रिम ढंग से भी प्रकट होती है। इसी प्रकार विद्वान् तथा राजा भी प्रति प्रातःकाल समाज या राष्ट्र के स्त्री-पुरुषों को बोध दे-सावधान करे। उन्हें उत्तम कार्य करने के लिये सप्तछन्दवाले ज्ञान को तथा सात मर्यादाओं की व्यवस्था को बनाये रखने के लिये प्रेरित करे ॥४॥
विषय
सप्तपदी
पदार्थ
हे (वसो) = अपने निवास को उत्तम बनानेवाले जीव ! तू (हि) = निश्चय से (उष उषः) = प्रत्येक उष:काल में (अग्रम् एषि) = आगे और आगे बढ़ता है। (त्वं) = तू (यमयोः) = परस्पर अवियुक्त-युग्मरूप से रहनेवाले दिन-रात में (विभावा) = विशिष्ट दीप्ति वाला (अभवः) = होता है । गत मन्त्र के अनुसार यह शरीर व मस्तिष्क की उन्नति के शिखर पर पहुँचने का प्रयत्न करता है, सो यह स्वास्थ्य के कारण दीप्त शरीर वाला तथा ज्ञान के कारण दीप्त मस्तिष्क वाला होता है। इसीलिए इसे 'विभावा' = विशिष्ट दीति वाला कहा गया है, इस प्रकार शरीर व मस्तिष्क के दृष्टिकोण से दीप्त हुआ हुआ (ऋताय) = जीवन में यज्ञ की सिद्धि के लिए (सप्त पदानि दधिषे) = सात कदमों को धारण करता है। विवाह संस्कार में ये सात कदम 'सप्तपदी' के रूप में कहे जाते हैं । वस्तुतः सम्पूर्ण अभ्युदय के लिए ये सात कदम आवश्यक ही हैं। '[क] अन्न को जुटाना, [ख] बल व प्राणशक्ति के वर्धक अन्न का सेवन, [ग] धनार्जन, [घ] स्वास्थ्य की स्थिरता, [ङ] उत्तम सन्तान, [च] दिनचर्या का नियम तथा [छ] परस्पर मित्रभाव' इस सात बातों के होने पर जीवन सुन्दर व यज्ञमय बन पाता है। इन सात कदमों को धारण करनेवाला व्यक्ति स्वायै तन्वे इस अपने शरीर से मित्रं उस मित्रभूत प्रभु को जनयन् प्रकट करनेवाला होता है। यह अपने हृदय में प्रभु के प्रकाश को तो देखता ही है, इसके जीवन की क्रियाओं में लोगों को प्रभु की तेजोज्योति का अंश दिखता है । एवं इसके जीवन से प्रभु का प्रकाश होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हमें प्रतिदिन आगे बढ़ना है, विशिष्ट दीप्ति वाला बनना है। यज्ञ की सिद्धि के लिए सात कदमों को रखते हुए हम अपने शरीरों से प्रभु की अभिव्यक्ति करें।
विषय
लोकधारक प्रभु। पक्षान्तर में देह के प्रभु आत्मा और गृह्य अग्नि का वर्णन।
भावार्थ
हे (वसो) सब में बसने हारे आत्मन् ! जिस प्रकार (उषः उषः) प्रत्येक उषा में (त्वम् अग्रम् एषि) तू सर्वप्रथम पद को प्राप्त होता है, तू (यमयोः) दिन रात के जोड़ों में सूर्यवत् (यमयोः) भोग्य-भोक्ता सम्बन्ध से बद्ध युगल जीव और प्रकृति दोनों में (वि-भावा अभवः) विशेष कान्ति और सामर्थ्य से युक्त है। (ऋताय) संचालन करने के लिये ही, तू (सप्त पदानि दधिषे) सातों लोकों को धारण करता है। (स्वायै तन्वे) अपने ही विस्तृत जगत्-मय देह के लिये (मित्रं जनयन्) मित्र, वायु, जल आदि प्राण को भी प्रकट करता है। (२) इसी प्रकार प्राण अपान यम में प्रभु अपने देहार्थ प्राण को प्रकट कर,सात प्राणों को धारता है। (३) इसी प्रकार वाणी से बद्ध होकर विवाह करने वाले स्त्री पुरुषों में ‘विभावा’ विशेष कान्तिमान् पुरुष (सप्त पदानि) सात चरण रखकर ‘ऋत’ यज्ञादि कर्म और अपनी तन्तु-सन्तति की वृद्धि के लिये स्त्री को मित्र बनावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिशिरास्त्वाष्ट् ऋषिः॥ १–६ अग्निः। ७-९ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५–७, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वसो त्वम्) हे स्वप्रकाशेन तेजसा च वासयितः-आच्छादयितः-अग्ने ! सूर्यरूप ! “अग्निर्वै वसुः” [मै० ३।४।२] स एषोऽग्निरत्र वसुः [श० ९।३।२।१] त्वम् (उषः उषः-हि) प्रत्युषोवेलाम्-प्रतिप्रातर्हि-निरन्तरम् (अग्रम्-एषि) जनानां सम्मुखं प्राप्नोषि-उदेषि (यमयोः-विभावा-अभवः) युगलभूतयोरहोरात्रयोः प्रकाशयिता प्रकटयिता भवसि (ऋताय स्वायै तन्वे मित्रं जनयन्) यज्ञाय स्वायाः-तन्वाः “षष्ठ्यर्थे चतुर्थीत्यपि वक्तव्यम्” अग्निं पार्थिवं जनयन्-जननहेतोः “एषः-अग्निः-भवति मित्रः” [श० २।३।२।२] (सप्त पदानि दधिषे) सप्त रश्मीन् धारयसि ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, Vasu, sustainer of life, generating the sun for the manifestation of your self, you rise first with every dawn, illuminate the day and distinguish both day and night, and for conduct of the yajna of existence you bear the seven flames of fire and seven rays of light.
मराठी (1)
भावार्थ
जसे अग्निरूपी सूर्य आपला प्रकाश किंवा तेज याद्वारे जगाला सुरक्षित ठेवण्यासाठी आच्छादित करतो. यज्ञ इत्यादी श्रेष्ठ कर्म करण्यासाठी अग्नीला पृथ्वीवर प्रकट करतो. तो अग्नी सूर्याच्या सात रंगांच्या किरणांद्वारे पृथ्वीवर प्रकट होतो. सूर्यकांत मण्याच्या प्रयोगाने कृत्रिम पद्धतीनेही प्रकट होतो. तसे विद्वान व राजाने प्रत्येक दिवशी प्रात:काळी समाज किंवा राष्ट्रातील स्त्री-पुरुषांना बोध करून सावधान करावे. त्यांना उत्तम कार्य करण्यासाठी सप्तछंदयुक्त ज्ञान व सात मर्यादांची व्यवस्था टिकविण्यासाठी प्रेरित करावे. ॥४॥
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