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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 7
    ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒स्य त्रि॒तः क्रतु॑ना व॒व्रे अ॒न्तरि॒च्छन्धी॒तिं पि॒तुरेवै॒: पर॑स्य । स॒च॒स्यमा॑नः पि॒त्रोरु॒पस्थे॑ जा॒मि ब्रु॑वा॒ण आयु॑धानि वेति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । त्रि॒तः । क्रतु॑ना । व॒व्रे । अ॒न्तः । इ॒च्छन् । धी॒तिम् । पि॒तुः । एवैः॑ । पर॑स्य । स॒च॒स्यमा॑नः । पि॒त्रोः । उ॒पऽस्थे॑ । जा॒मि । ब्रु॒वा॒णः । आयु॑धानि । वे॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्य त्रितः क्रतुना वव्रे अन्तरिच्छन्धीतिं पितुरेवै: परस्य । सचस्यमानः पित्रोरुपस्थे जामि ब्रुवाण आयुधानि वेति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । त्रितः । क्रतुना । वव्रे । अन्तः । इच्छन् । धीतिम् । पितुः । एवैः । परस्य । सचस्यमानः । पित्रोः । उपऽस्थे । जामि । ब्रुवाणः । आयुधानि । वेति ॥ १०.८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अस्य परस्य पितुः) इस उत्कृष्ट पिता पालक परमात्मा की (धीतिम्-इच्छन्-त्रितः) आधारण-उपासना को चाहते हुए-चाहने प्राप्त करने हेतु तीन-स्थूलसूक्ष्मकारण-शरीरों में प्रवेश करनेवाला आत्मा (क्रतुना-अन्तः-वव्रे) अध्यात्मकर्म योगाभ्यास से अपने अन्दर वरता है (पित्रोः-उपस्थे सचस्यमानः जामि ब्रुवाणः) जैसे माता-पिता के आश्रय में सङ्गति को प्राप्त हुआ बालक अपने को पुत्र कहता हुआ और सुरक्षित रहता हुआ (आयुधानि वेति) अध्यात्मबलरूप शस्त्रों को प्राप्त करता है ॥७॥

    भावार्थ

    परमपिता परमात्मा के आश्रयरूप उपासना के हेतु तीन शरीरों में जानेवाले आत्मा को योगाभ्यास करना चाहिये। बन्धन को काटनेवाले अध्यात्मबलरूप शस्त्र ही हैं। जैसे माता-पिता के आश्रय में बालक सुरक्षित रहता है, ऐसे ही आत्मा परमात्मा के आश्रय में बन्धनरहित निर्भय और सुरक्षित हो जाता है ॥७॥

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    विषय

    प्रभु का कारण

    पदार्थ

    (त्रितः) = 'त्रीन् मनोति' धर्म, अर्थ, काम तीनों का उचित रूप में विस्तार करनेवाला अथवा 'त्रीन् तरति’, ‘काम-क्रोध-लोभ' इन तीनों को तैर जानेवाला (क्रतुना) = कर्म-संकल्प व प्रज्ञान के द्वारा (अस्य) = इस प्रभु का (वव्रे) = वरण करता है। प्रभु प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि हम शरीर में कर्मशक्ति सम्पन्न हों, अकर्मण्य को ही अशुभ विचार घेरा करते हैं। मन में उस प्रभु प्राप्ति के लिए दृढ़ संकल्प हो और मस्तिष्क प्रज्ञान से उज्वल हो। ऐसा होने पर ही हम प्रभु को प्राप्त कर पाते हैं । यह व्यक्ति (एवैः) = अपनी सब गतियों व क्रियाओं से (परस्य पितुः) = उस परम पिता प्रभु ही (अन्तः) = [हृदयान्तरिक्ष] अन्त:करण में (धीतिम्) = धारणा को अथवा प्रज्ञा को [नि० १०.४१] (इच्छन्) = चाहता है। इसकी सारी क्रियाएँ इस उद्देश्य से होती हैं कि यह हृदय में प्रभु को धारण कर पाये । यह (पित्रोः) = द्यावापृथिवी के, मस्तिष्क व शरीर के उपस्थे गोद में, मस्तिष्क व शरीर के मध्य, अर्थात् हृदय में (सचस्यमानः) = उस प्रभु से सम्पर्क को प्राप्त करता हुआ [सच् to be associated] (आयुधानि) = तलवार, तोप, बन्दूक आदि अस्त्रों को (जामि) = [needless repetition] व्यर्थ की पुनरुक्ति-सा (ब्रुवाणः) = कहता हुआ (वेति) = इस संसार यात्रा में चलता है। प्रभु के सम्पर्क के होने पर मनुष्य को इतनी शक्ति प्राप्त हो जाती है कि उसके लिए इन बाह्य अस्त्रों की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। वास्तव में तो सर्वत्र प्रभु दर्शन करने पर उसका किसी से वैर विरोध ही नहीं रहता, सो अस्त्रों का कोई उपयोग ही नहीं रह जाता।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने हृदय में प्रभु का वरण करें, क्रियाशीलता के द्वारा हृदय में प्रभु का धारण करें। प्रभु से हमारा इस प्रकार सम्बन्ध हो कि हमारे लिये ये बाह्य अस्त्र निकम्मे हो जाए ।

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    विषय

    इन्द्र परमेश्वर की व्यवस्था में रह कर जीवों का देह-बन्धनों में आना।

    भावार्थ

    (त्रितः) तीनों गुणों से बद्ध जीव (परस्य पितुः) परम पालक पिता, परमेश्वर की (एवैः) नाना ज्ञानों और कर्मों से (धीतिम्) ध्यान, और उपासना की (इच्छन्) कामना करता हुआ (क्रतुना) अपने कर्म द्वारा (अस्य) उसको (अन्तः वव्रे) अपने भीतर अन्तःकरण में वरण करे। (पित्रोः उपस्थे) माता पिता की गोद में बैठे बालक के तुल्य वह जीव भी ब्रह्म और प्रकृति दोनों की (उपस्थे सचस्यमानः) गोद में प्राप्त होकर (जामि ब्रुवाणः) योग्य स्तुति करता हुआ (आयुधानि वेति) वाधक कारणों से युद्ध करने के नाना साधनों को प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशिरास्त्वाष्ट् ऋषिः॥ १–६ अग्निः। ७-९ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५–७, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अस्य परस्य पितुः) एतस्योत्कृष्टस्य पालकस्य पितृभूतस्य परमात्मनः (धीतिम्-इच्छन्-त्रितः) आधारणाम् आश्रयभूतामुपासनाम् “धीङ्-आधारे” [दिवादिः] ततः क्तिन् “धीतिः-धारणा” [ऋ० १।११९।२ दयानन्दः] इच्छन्-वाञ्छन् त्रितः-त्रिस्थानः-त्रिषु स्थानेषु स्थूलसूक्ष्मकारणशरीरेषूत्पत्स्यमानः आत्मा (क्रतुना-अन्तः-वव्रे) अध्यात्मकर्मणा योगाभ्यासेन स्वाभ्यन्तरे वृणोति, यथा (पित्रोः-उपस्थे) मातापित्रोराश्रये (सचस्यमानः) समवैष्यन्-सङ्गच्छमानः (जामि ब्रुवाणः) पुत्र इव जामित्वं पुत्रत्वं कथयन् रक्ष्यमाणः (आयुधानि वेति) अध्यात्मबलरूपाणि शस्त्राणि प्राप्नोति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Trita, the human soul, wearing three body covers of gross, subtle and causal forms in earthly existence, with the desire to win the love of this supreme paternal divinity by concentrative meditation, chooses to meditate on divinity within the self and, thus nestled in the parental presence praying as a child for protection, obtains the arms for defence against internal and external onslaughts of material involvement.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमपिता परमेश्वराच्या आश्रयरूप उपासनेसाठी तीन (सूक्ष्म, स्थूल, कारण) शरीरात जाणाऱ्या आत्म्याने योगाभ्यास केला पाहिजे. बंधन कापणारे अध्यात्मबल हे शस्त्रच आहे. जसे माता पिता यांच्या आश्रयाने बालक सुरक्षित असते, तसेच आत्मा परमात्म्याच्या आश्रयाने बंधनरहित, निर्भय व सुरक्षित असतो. ॥७॥

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