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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
    ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    भुव॒श्चक्षु॑र्म॒ह ऋ॒तस्य॑ गो॒पा भुवो॒ वरु॑णो॒ यदृ॒ताय॒ वेषि॑ । भुवो॑ अ॒पां नपा॑ज्जातवेदो॒ भुवो॑ दू॒तो यस्य॑ ह॒व्यं जुजो॑षः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भुवः॑ । चक्षुः॑ । म॒हः । ऋ॒तस्य॑ । गो॒पाः । भुवः॑ । वरु॑णः । यत् । ऋ॒ताय॑ । वेषि॑ । भुवः॑ । अ॒पाम् । नपा॑त् । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । भुवः॑ । दू॒तः । यस्य॑ । ह॒व्यम् । जुजो॑षः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भुवश्चक्षुर्मह ऋतस्य गोपा भुवो वरुणो यदृताय वेषि । भुवो अपां नपाज्जातवेदो भुवो दूतो यस्य हव्यं जुजोषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भुवः । चक्षुः । महः । ऋतस्य । गोपाः । भुवः । वरुणः । यत् । ऋताय । वेषि । भुवः । अपाम् । नपात् । जातऽवेदः । भुवः । दूतः । यस्य । हव्यम् । जुजोषः ॥ १०.८.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (महः-ऋतस्य चक्षुः-भव) महान् ब्रह्माण्डरूप या संसाररूप यज्ञ का दर्शक-दिखानेवाला, सूर्यरूप में तू है (गोपाः-भुवः) किरणों का रक्षक है-किरणोंवाला है (ऋताय यत्-वेषि वरुणः) जल के लिए मेघ से जलसम्पादन करने-बरसाने के लिये जब उन्हें प्राप्त करता है, तो वरुण नाम वाला-उन्हें बरसाने, थामने और पुनः गिरानेवाला होने से वरुण होता है (अपाम्-नपात्-भुवः) आकाश में जलसंग्रह को न गिरानेवाला-थामनेवाला या वहाँ से मेघ में विद्युद्रूप से प्रकट होनेवाला-विद्युद्रूप अग्नि होता है (जातवेदः) उत्पन्न होते ही जाना जानेवाला तू (यस्य हव्यं जुजोषः-दूतः-भुवः) जिसके ओषधि आदि भोज्य को तू सेवन करता है या जिसे सेवन कराता है, उस का तू प्रेरक है ॥५॥

    भावार्थ

    सूर्यरूप अग्नि ब्रह्माण्ड को दिखाता या चमकता है। रश्मिमान् होने से रश्मियों द्वारा जलकणों को खींचकर आकाश में मेघों को बनाता और समय पर पुनः बरसाता है और पुनः मेघ में पहुँच कर विद्युद्रूप होकर जलों को थामता है, बरसाता भी है। पृथिवी पर अग्निरूप में ओषधि आदि को प्रेरित कर आहार कराता है। ऐसे ही विद्वान् या राजा समाज और राष्ट्र को उत्तम नीति द्वारा चमकावे, सुख की वर्षा करे और भोज्य पदार्थों को सुखमय बनावे ॥५॥

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    विषय

    ऋत का रक्षण [सप्तपदी की व्याख्या]

    पदार्थ

    गत मन्त्र के अनुसार जब हम अपने शरीरों में प्रभु की अभिव्यक्ति कराते हैं तो हे प्रभो ! आप हमारे लिये (महः चक्षुः) = तेजस्विता से परिपूर्ण चक्षु होते हैं । अथवा प्रभु हमें तेजस्वी भी बनाते हैं और हमारे लिए मार्गदर्शक भी होते हैं, हमें कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान देते हैं। कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान देकर वे (ऋतस्य गोपाः) = ऋत के रक्षक होते हैं। हमारे जीवनों में से अमृत को दूर करके ऋत को परिपुष्ट करते हैं। इस प्रकार (यत्) = जब आप (ऋताय वेषि) = हमारे में ऋत के लिये, ऋत की स्थापना के लिये कामना करते हैं तो (वरुणः भुवः) = द्वेष का निवारण करनेवाले होते हैं । इस द्वेष निवारण के लिये (अपाम्) = [आपः रेतो भूत्वा] रेतःकणों के (न पात्) = न गिरने देनेवाले होते हैं। सुरक्षित वीर्य वाला शूर-वीर पुरुष ही द्वेषादि से ऊपर उठ पाता है। हे प्रभो ! इस द्वेष निवारण के लिये ही उस व्यक्ति के लिये (जातवेदः भुवः) = [ जातं वेदो यस्यात्] उचित धन को प्राप्त करानेवाले होते हैं [वेद: - wealth] । निर्धनता भी कई अशुभ भावनाओं को जन्म देने का कारण बन जाती है। हे प्रभो ! आप (यस्य हव्यं जुजोषः) = जिसके हव्य को सेवन करनेवाले होते हैं उसके लिये (दूतः) = ज्ञान के सन्देश को प्राप्त करानेवाले होते हैं। वस्तुतः एक प्रभु भक्त धन को प्राप्त करके हव्य का सेवन करता है, त्यागपूर्वक यज्ञशेष का ही उपयोग करता है। यह यज्ञशेष का सेवन ही प्रभु का उपासन है 'हविषा विधेम ' उस आनन्द स्वरूप प्रभु का हवि के द्वारा उपासन करते हैं। इन यज्ञशेष का सेवन करने वालों को ही प्रभु का ज्ञान सन्देश प्राप्त होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमारे मार्गदर्शक हैं, हमारे जीवन को ऋतमय वीरतापूर्ण व यज्ञशेष का सेवन करनेवाला बनाते हैं ।

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    विषय

    नेत्रवत् प्रकाशक प्रभु। वह नौकावत् तारक, सर्वश्रेष्ठ है। वह ज्ञानदाता है।

    भावार्थ

    तू (गोपाः) रक्षक, वाणियों, इन्द्रियों का पालक होकर (महः ऋतस्य) इस महान् सत्य ज्ञान एवं मूल प्रकृति वा सत्कारण का (चक्षुः भुवः) आँखवत् द्रष्टा, प्रकाशक है। तू ही (ऋताय वेषि) ऋत, मूलकारण प्रकृति को व्यापता, जगत् को व्यापता, सत्य ज्ञान को प्रकाशित करता, इसी से (वरुणः भुवः) तू ‘वरुण’, सर्वश्रेष्ठ है। हे (जातवेदः) समस्त ऐश्वर्यों और ज्ञानों के स्वामिन् ! तू ही (अपां नपात्) जलों में पाद रहित नौकावत् सबका तारक है, वा जलों के न गिरने देने वाले सूर्य वा मेघवत् समस्त प्रकृति के परमाणुओं, जीवों, लोकों का (नपात्) व्यवस्थापक है। तू (यस्य हव्यं जुजोषः) जिसके हव्य, उपकार-वचन को प्रेम से स्वीकार करता है, तू उसका (दूतः भुवः) दूत व ज्ञान देने वाला होता है। इति तृतीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशिरास्त्वाष्ट् ऋषिः॥ १–६ अग्निः। ७-९ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५–७, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (महः-ऋतस्य चक्षुः-भव) महतः-यज्ञस्य ब्रह्माण्डस्य भुवनज्येष्ठस्य दर्शकः सूर्यरूपेणाग्ने त्वं भवसि (गोपाः-भुवः) गवां-रश्मीनां पाता च भवसि (ऋताय यत्-वेषि वरुणः) उदकाय मेघादुदकसम्पादनाय पातनाय यदा प्राप्नोषि तदा वरुणो-उदकानां वरणाय वरुणो भवसि “स वा एषोऽपः प्रविश्य सूर्यः वरुणो भवति” [कौ० १९/९] (अपाम्-नपात्-भुवः) अपां न पातयिता-आकाशे स्तम्भयिता भवत्युदकानां यद्वा मेघे जायते तत्र विद्युद्रूपेण (जातवेदः) हे जातवेदस्त्वं जातो वेद्यते जनैः (यस्य हव्यं जुजोषः-दूतः-भुवः) यस्य होतव्यं यज्ञं सेवसे यस्य वा ओषध्यादिकं भोज्यं सेवयसि प्रापयसि तस्मै वा त्वं दूतः प्रेरको जीवनप्रेरको भवसि ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    You are the eye and guardian of the mighty yajnic order of the cosmos, and when you proceed for the dynamics of the order you become the great evolutionary force of the process of formative evolution. You are the omnipresent power that sustain the waters and energies of the cosmic evolution against devolution, and you are the inspirer and promoter of the yajamana who offers you the holy inputs of the evolutionary yajaka.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्यरूप अग्नी ब्रह्माडांचे दर्शन करवितो किंवा प्रकाशित करतो. रश्मियुक्त असल्यामुळे रश्मिद्वारे जलकण ओढून आकाशात मेघ बनवितो व योग्य वेळी पुन्हा वर्षाव करतो व पुन्हा मेघात पोचून विद्युतरूपाने जलाला रोखून धरतो व वृष्टीही करवितो. पृथ्वीवर अग्निरूपाने औषधी इत्यादीला प्रेरित करून भोजनही देतो. त्याप्रकारेच विद्वान किंवा राजा यांनी समाज व राष्ट्राला उत्तम नीतीने प्रकाशित करावे, चालवावे. सुखाचा वर्षाव करावा व भोज्य पदार्थांना सुखकारक बनवावे. ।५॥

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