ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 9
ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
भूरीदिन्द्र॑ उ॒दिन॑क्षन्त॒मोजोऽवा॑भिन॒त्सत्प॑ति॒र्मन्य॑मानम् । त्वा॒ष्ट्रस्य॑ चिद्वि॒श्वरू॑पस्य॒ गोना॑माचक्रा॒णस्त्रीणि॑ शी॒र्षा परा॑ वर्क् ॥
स्वर सहित पद पाठभूरि॑ । इत् । इन्द्रः॑ । उ॒त्ऽइन॑क्षन्तम् । ओजः॑ । अव॑ । अ॒भि॒न॒त् । सत्ऽप॑तिः । मन्य॑मानम् । त्वा॒ष्ट्रस्य॑ । चि॒त् । वि॒श्वऽरू॑पस्य । गोना॑म् । आ॒ऽच॒क्रा॒णः । त्रीणि॑ । शी॒र्षा । परा॑ । वर्क् ॥
स्वर रहित मन्त्र
भूरीदिन्द्र उदिनक्षन्तमोजोऽवाभिनत्सत्पतिर्मन्यमानम् । त्वाष्ट्रस्य चिद्विश्वरूपस्य गोनामाचक्राणस्त्रीणि शीर्षा परा वर्क् ॥
स्वर रहित पद पाठभूरि । इत् । इन्द्रः । उत्ऽइनक्षन्तम् । ओजः । अव । अभिनत् । सत्ऽपतिः । मन्यमानम् । त्वाष्ट्रस्य । चित् । विश्वऽरूपस्य । गोनाम् । आऽचक्राणः । त्रीणि । शीर्षा । परा । वर्क् ॥ १०.८.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 9
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सत्पतिः-इन्द्रः) सत्पुरुष स्वोपासक मुमुक्षु का पालक ऐश्वर्यवान् परमात्मा (भूरि-इत्-ओजः-उदिनक्षन्तं मन्यमानम्) स्वोपासकविरोधी, बहुत बल को प्राप्त हुए मन्यमान को (अव-अभिनत्) छिन्न-भिन्न कर देता है-नष्ट कर देता है, अतः (विश्वरूपस्य त्वाष्ट्रस्य चित्) सर्वप्राणिगत वीर्य से उत्पन्न शरीर के भी (गोनाम्-आचक्राणः) पुनर्जन्म में ले जानेवाले रश्मियों-लगामों को आहत करता हुआ (त्रीणि शीर्षा परा वर्क्) तीनों शिररूप स्थूलसूक्ष्मकारणशरीरों को परे अलग कर देता है ॥९॥
भावार्थ
मुमुक्षुजनों का पालक परमात्मा अपने मुमुक्षु उपासकों के विरोधी अपने को बड़ा बलवान् माननेवाले अभिमानी को छिन्न-भिन्न कर देता है। पुनः वीर्य से उत्पन्न प्राणिमात्र को प्राप्त, इस देह की लगामों को-पुनर्जन्म में ले जानेवाली लगामों को नष्ट करता है और तीनों देहों के शिरों को उपासक आत्मा से पृथक् कर उसे मोक्ष में पहुँचा देता है ॥९॥
विषय
वासना विच्छेद व त्रिविध उन्नति
पदार्थ
(सत्पति:) = सदा उत्तम [सत्] कर्मों में लगे रहने के द्वारा अपना रक्षण करनेवाला (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जितेन्द्रिय पुरुष (भूरि ओजः उदिनक्षन्तः) = बहुत अधिक शक्ति को व्याप्त करते हुए अर्थात् अतिशक्ति सम्पन्न होते हुए (मन्यमानं) = अपनी शक्ति के गर्व वाले अथवा प्रचण्ड [ क्रुध्यमानं सा० ] इस काम रूप असुर को (इत्) = निश्चय से (अवाभिनत्) = विदीर्ण करता है । 'काम' को नष्ट करने का सब से सुन्दर उपाय यही है कि 'उत्तम कर्मों में लगे रहना'। इस प्रकार काम को नष्ट करके (चित्) = निश्चय से (त्वाष्ट्रस्य) = उस दिव्यगुणों का निर्माण करनेवाले (विश्वरूपस्य) = व्यापक रूप वाले प्रभु की (गोनाम्) = इन्द्रियों के त्रीणि तीन (शीर्षाणी) = शिखरों को (आचक्राणः) = करने के हेतु से (परावर्क्) = इन आसुर वृत्तियों को सुदूर छिन्न-भिन्न कर देता है । इन्द्रियों के तीन शिखर 'ज्ञान, कर्म व उपासना' हैं। इनके दृष्टिकोण से उन्नत होने के लिए वासनाओं का विच्छेद आवश्यक है। यहाँ 'ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ' इस प्रकार इन्द्रियों की द्विविधता के साथ तीन शिखरों का समन्वय निम्न सूत्र से स्पष्ट हो जाता है- 'ज्ञान+कर्म-उपासना' । ज्ञान पूर्वक कर्म करना ही उपासना है । एवं उपासना भी ज्ञान कर्म के ही अन्तर्गत हो जाती है । एवं द्विविध इन्द्रियों से हम तीन शिखरों का आक्रमण करते हैं। परन्तु यह सब होता तभी है जब कि वासनाओं का हम विच्छेद करनेवाले बनते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - अत्यन्त प्रबल 'काम' रूप शत्रु के नष्ट होने पर ही हम 'त्रिशिराः त्वाष्ट्र' बन पाते हैं। सूक्त का प्रारम्भ 'त्रिशिराः ' की व्याख्या से होता है, इसके मस्तिष्क में ज्ञान है, मन में प्रभु स्मरण, शरीर में रेतः कणों की व्याप्ति, [१] वह सदा प्रसन्न रहता है, कर्ममय जीवनवाला बनकर आनन्दित होता है, [२] यह आरोग्य साधन करके प्रभु उपासन में प्रवृत्त रहता है, [३] अभ्युदय की प्राप्ति के लिये यह 'अन्न-बल-धन- स्वास्थ्य-सन्तान - समयपालन व मित्रभाव रूप सात कदमों को रखता है, [४] प्रभु कृपा से हमारा जीवन ऋतमय बनता है, [५] हम हव्यपदार्थों का सेवन करते हैं, [६] प्रभु स्मरण के होने पर बाह्य अस्त्र हमारे लिये पुनरुक्त व व्यर्थ से हो जाते हैं, [७] हम इन्द्रियों को विषय बन्धन से मुक्त कर पाते हैं, [८] प्रचण्ड कामरूप शत्रु का संहार करते हैं, [९] इस कामरूप शत्रु के संहार रूप महान् कार्य में जलों का समुचित प्रयोग हमारे लिये अतिसहायक होता है-
विषय
शीर्षगत तीन प्रकार के प्राणच्छिद्रों का निर्माण।
भावार्थ
वह (सत्पतिः) सज्जनों, सत् जीवों का पालक परमेश्वर (मन्यमानम्) अभिमान करने वाले (भूरि ओजः) बहुत बल (उद्-इन क्षन्तम्) प्राप्त कराने वाले को (अव अभिनत्) भेद डालता है और वह (विश्व-रूपस्य त्वाष्ट्रस्य) उस देहमय विश्वरूप अर्थात् आत्मा के रूप से युक्त देह की (गोनाम् आचक्राणः) इन्द्रियों के स्थान बनाने की चेष्टा करता हुआ (त्रीणि शीर्षाणि) तीन शिरस्थ प्राणों को (परा वर्क्) छेदन करता है, वह शिर में प्राण, मुख और कान इनके तीन प्रकार के छिद्र बनाता है। इति चतुर्थो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिशिरास्त्वाष्ट् ऋषिः॥ १–६ अग्निः। ७-९ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५–७, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सत्पतिः-इन्द्रः) मुमुक्षुपालकः-ऐश्वर्यवान् परमात्मा (भूरि-इत्-ओजः-उदिनक्षन्तं मन्यमानम्) बहु खलु बलमुद्व्याप्नुवन्तं प्राप्तवन्तमात्मानं मन्यमानं कमपि (अव-अभिनत्) अवभिनत्ति-विनाशयति। सत्पुरुषस्य मुमुक्षोर्विरोधिनमिति यावत् तद्रक्षार्थं (विश्वरूपस्य त्वाष्ट्रस्य चित्) सर्वप्राणिगतस्य वीर्यादुत्पन्नस्य शरीरस्यापि च (गोनाम्-आचक्राणः) पुनर्जन्मनि गमयितॄन् रश्मीन् प्रग्रहानाहतान् कुर्वाणः (त्रीणि शीर्षा परा वर्क्) त्रीणि स्थूलसूक्ष्मकारणशरीराणि परावर्जयति-पृथक्करोति ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, protector and saviour of the pious and true devotees, destroying the mighty lustrous, rising and proud adversaries of the child of cosmic materiality, breaks the bonds of seven fold sense-mind complex, destroys the three headed cover of physicality and sets the soul free.
मराठी (1)
भावार्थ
मुमुक्षू लोकांचा पालक परमात्मा आपल्या मुमुक्षू उपासकाच्या विरोधी असणाऱ्या व स्वत:ला बलवान मानणाऱ्या अभिमानी माणसाला छिन्न भिन्न करतो. पुन्हा वीर्याने उत्पन्न होणाऱ्या शरीरांना, पुनर्जन्मामध्ये घेऊन जाणाऱ्या लगामांना नष्ट करतो व तीन शरीरापासून उपासक आत्म्याला पृथक करून मोक्षात पोचवितो. ॥९॥
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