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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    म॒हो म॒हानि॑ पनयन्त्य॒स्येन्द्र॑स्य॒ कर्म॒ सुकृ॑ता पु॒रूणि॑। वृ॒जने॑न वृजि॒नान्त्सं पि॑पेष मा॒याभि॒र्दस्यूँ॑र॒भिभू॑त्योजाः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हः । म॒हानि॑ । प॒न॒य॒न्ति॒ । अ॒स्य॒ । इन्द्र॑स्य । कर्म॑ । सुऽकृ॑ता । पु॒रूणि॑ । वृ॒जने॑न । वृ॒जि॒नान् । सम् । पि॒पे॒ष॒ । मा॒याभिः॑ । दस्यू॑ँन् । अ॒भिभू॑तिऽओजाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महो महानि पनयन्त्यस्येन्द्रस्य कर्म सुकृता पुरूणि। वृजनेन वृजिनान्त्सं पिपेष मायाभिर्दस्यूँरभिभूत्योजाः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महः। महानि। पनयन्ति। अस्य। इन्द्रस्य। कर्म। सुऽकृता। पुरूणि। वृजनेन। वृजिनान्। सम्। पिपेष। मायाभिः। दस्यून्। अभिभूतिऽओजाः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 34; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजप्रजापुरुषैरनुष्ठेयमाह।

    अन्वयः

    योऽभिभूत्योजा वृजनेन मायाभिर्वृजिनान्दस्यून् संपिपेष यान्यस्य मह इन्द्रस्य पुरूणि महानि सुकृता कर्म पनयन्ति तानि सङ्गृह्णीयात्स एव राजाऽमात्यतामर्हेत् ॥६॥

    पदार्थः

    (महः) महतः (महानि) महान्ति (पनयन्ति) पनायन्ति प्रशंसन्ति। अत्र वाच्छन्दसीति ह्रस्वः। (अस्य) वर्त्तमानस्य (इन्द्रस्य) सकलैश्वर्ययुक्तस्य (कर्म) कर्माणि (सुकृता) शोभनेन धर्मयोगेन कृतानि (पुरूणि) बहूनि (वृजनेन) बलेन (वृजिनान्) पापान् (सम्) (पिपेष) पिष्यात् (मायाभिः) प्रज्ञाभिः (दस्यून्) साहसेन उत्कोचकान् चोरान् (अभिभूत्योजाः) अभिभूतिपराजयकरमोजो बलं यस्य सः ॥६॥

    भावार्थः

    यथा राजप्रजाजनैः सर्वाधीशस्य धर्म्याणि कर्माणि स्वीकर्त्तव्यानि सन्ति तथैव सर्वाऽधिष्ठात्रा राज्ञा सर्वेषामुत्तमान्याचरणानि स्वीकर्त्तव्यानि नेतराणि केनचित् ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा तथा प्रजाजनों के कर्त्तव्य विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    जो (अभिभूत्योजाः) शत्रुपराजय करनेवाले बल से युक्त राजपुरुष (वृजनेन) बल और (मायाभिः) बुद्धियों से (वृजिनान्) पापी (दस्यून्) साहसी चोरों को (सम्) (पिपेष) पीसै और जो (अस्य) इस (महः) श्रेष्ठ (इन्द्रस्य) सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त पुरुष के (पुरूणि) बहुत (महानि) बड़े (सुकृता) उत्तम धर्म के योग से किये गये (कर्म) कार्य्यों की (पनयन्ति) प्रशंसा करते हैं, उनका ग्रहण करै, वही पुरुष राजा का मन्त्री होने योग्य होवे ॥६॥

    भावार्थ

    जैसे राजा और प्रजाजनों को सब लोगों के स्वामी के धर्मयुक्त कर्म स्वीकार करने योग्य हैं, वैसे ही सबके स्वामी राजा को चाहिये कि सब लोगों के उत्तम आचरणों का स्वीकार करै और अनिष्ट आचरणों का स्वीकार कोई न करैं ॥६॥

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    विषय

    प्रभुमहिमा का स्तवन

    पदार्थ

    [१] उपासक लोग (महः) = तेजस्विता के पुञ्ज (अस्य इन्द्रस्य) = इस सर्वशक्तिमान् प्रभु के (महानि) = अत्यन्त महान् (सुकृता) = उत्तमता से किये जानेवाले (पुरूणि) = पालक व पूरक कर्म-कर्मों को (पनयन्ति) = स्तुत करते हैं। प्रभु की एक-एक रचना अद्भुत है। सृष्टि के प्रारम्भ से प्रकाश देता हुआ सूर्य उसी प्रकार दीप्तिवाला है- यह प्रचण्ड सूर्याग्नि जरा भी क्षीण नहीं हो रही । पृथ्वी की उर्वरता उसी प्रकार कायम है। नदियाँ अनन्त काल से समुद्र को भरने में लगी हुई हैं। वस्तुतः एक एक कण में प्रभु की महिमा का दर्शन होता ही है। [२] ये प्रभु (वृजनेन) = बल व शक्ति द्वारा (वृजिनान्) = सब पापों को (संपिपेष) = पीस डालते हैं। उपासक को प्रभु शक्ति प्राप्त कराते हैं। उस शक्ति द्वारा उपासक पापवृत्तियों को कुचलने में समर्थ होता है। ये प्रभु (अभिभूत्योजाः) = शत्रुओं के अभिभावक बलवाले हैं, ये प्रभु (मायाभिः) = प्रज्ञानों द्वारा (दस्यून्) = दस्युओं को पीस डालते हैं। उपासक को प्रभु ज्ञान व शक्ति देते हैं। प्रभु के ज्ञान व शक्ति से ज्ञानी व शक्ति सम्पन्न बनकर यह उपासक सब दस्युओं को समाप्त करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के महान् कर्मों के स्मरण से महान् कर्मों के करने की प्रेरणा प्राप्त होती है । उससे वह शक्ति मिलती है, जिससे कि हम काम आदि दास्यव-वृत्तियों को समाप्त कर पाते हैं।

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    विषय

    पुण्यकर्मा, दुष्टदलक को कीर्त्ति लाभ।

    भावार्थ

    (अस्य) इस (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवान्, शत्रुदलनकारी वीर पुरुष के (पुरुणि) बहुत से (सुकृता) उत्तम रीति से किये गये, धार्मिक (महानि) बड़े २ (कर्मं) करने योग्य कर्त्तव्यों और किये कार्यों को (पनयन्ति) प्रजाजन प्रशंसा करते और उसके गीत गाते हैं। वह राजा (अभिभूत्योजाः) शत्रु पराजय करने वाले पराक्रम से युक्त वीर पुरुष (वृजनेन) बल से और (मायाभिः) विशेष २ अज्ञेय बुद्धि चातुर्यों से (वृजिनान्) पापाचारी (दस्यून्) प्रजाओं के नाशक दुष्ट पुरुषों को (सं पिपेष) एक साथ ही पीस कर निर्मूल कर दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ११ त्रिष्टुप्॥ ४, ५, ७ १० निचृत्त्रिष्टुप्। ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ६, ८ भुरिक् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे सर्वाधीशाचे धार्मिक कर्म राजजनांनी स्वीकार करण्यायोग्य असतात, तसेच सर्वाधीश राजाने सर्व लोकांच्या उत्तम आचरणाचा स्वीकार करावा. अनिष्ट आचरणाचा कोणी स्वीकार करू नये. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Many great and good acts of this mighty Indra, ruler and warrior, are worthy of admiration. Lord of might and splendour, hero of victory, he crushes the guiles and evils of the wicked with his strength, and eliminates the thieves and robbers of society by the force of his tactics and intelligence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should be done by the rulers and the people is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    They admire the great and glorious acts performed with righteousness by the mighty Indra (King, President or possessor of abundant wealth). He in his strength, with all surpassing Prowers and through wondrous wisdom crushes the strong sinners and overcomes the thieves, robbers and bribe-takers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As it is the duty of the officers of the State and the people to accept the righteous acts of the President (of the State), in the same manner, it is the duty of the President or the King to accept the noble acts done by others and none else.

    Foot Notes

    (वुजनेन ) बलेन । वृजनम् इति जलनाम (NG 2,9) वृजिनानि वर्जनीयानि (निरुक्ते यास्काचार्य 10,4,40 ) वर्जनीया निर्मााणी पापानीति यावत् = By strength. (वृजिनान् ) पापान् = Sinners (दस्यून् ) साहसेन उत्कोचकान् चोरान् । = Thieves, robbers, and others bribe takers. ( मावाभि:) प्रज्ञाभि:। = By wisdom. While Griffith has translated मायाभि: with wondrous acts; Prof. Wilson has translated it as by delusions, which is erroneous and misleading. According to the Nighantu माया इति प्रज्ञानाम (NG 3,9 ) i.e. Maya means wisdom. Rishi Dayanand Sarasvati has given the exact interpretation.

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