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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 34/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यु॒धेन्द्रो॑ म॒ह्ना वरि॑वश्चकार दे॒वेभ्यः॒ सत्प॑तिश्चर्षणि॒प्राः। वि॒वस्व॑तः॒ सद॑ने अस्य॒ तानि॒ विप्रा॑ उ॒क्थेभिः॑ क॒वयो॑ गृणन्ति॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒धा । इन्द्रः॑ । म॒ह्ना । वरि॑वः । च॒का॒र॒ । दे॒वेभ्यः॑ । सत्ऽप॑तिः । च॒र्ष॒णि॒ऽप्राः । वि॒वस्व॑तः । सद॑ने । अ॒स्य॒ । तानि॑ । विप्राः॑ । उ॒क्थेभिः॑ । क॒वयः॑ । गृ॒ण॒न्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युधेन्द्रो मह्ना वरिवश्चकार देवेभ्यः सत्पतिश्चर्षणिप्राः। विवस्वतः सदने अस्य तानि विप्रा उक्थेभिः कवयो गृणन्ति॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युधा। इन्द्रः। मह्ना। वरिवः। चकार। देवेभ्यः। सत्ऽपतिः। चर्षणिऽप्राः। विवस्वतः। सदने। अस्य। तानि। विप्राः। उक्थेभिः। कवयः। गृणन्ति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 34; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्राजपुरुषविषयमाह।

    अन्वयः

    यो देवेभ्यः शिक्षां प्राप्य सत्पतिश्चर्षणिप्रा इन्द्रो मह्ना युधा येषां कर्मणां वरिवश्चकार तस्याऽस्य तानि विवस्वतः सदन इव कवयो विप्रा उक्थेभिर्गृणन्ति ॥७॥

    पदार्थः

    (युधा) सङ्ग्रामेण (इन्द्रः) ऐश्वर्ययुक्तः (मह्ना) महता (वरिवः) सेवनम् (चकार) कुर्यात् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (सत्पतिः) सतां पालकः (चर्षणिप्राः) यः चर्षणीन्मनुष्यान्सत्यविद्याशिक्षासुशीलैः प्राति प्रपूर्ति सः (विवस्वतः) सवितुः (सदने) मण्डले (अस्य) (तानि) (विप्राः) मेधाविनः (उक्थेभिः) प्रशंसावचनैः (कवयः) विद्वांसः (गृणन्ति) स्तुवन्ति ॥७॥

    भावार्थः

    त एव विद्वांसो धार्मिका विज्ञेया ये राजादीनां मिथ्यास्तुतिं विहाय धर्म्याणि कर्माणि प्रशंसन्ति त एव राजानो भवितुमर्हन्ति ये धर्म्याणि कर्माण्याचरन्ति ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् तथा राजपुरुष के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (देवेभ्यः) विद्वानों से शिक्षा पाके (सत्पतिः) श्रेष्ठ पुरुषों का पालन करने (चर्षणिप्राः) मनुष्यों को सत्य विद्या शिक्षा और उत्तम स्वभाव से पूर्ण करनेवाला (इन्द्रः) राज्य के ऐश्वर्य से युक्त (मह्ना) बड़े (युधा) संग्राम से जिन कर्मों का (वरिवः) सेवन (चकार) करै उस (अस्य) इस राजपुरुष के (तानि) उन कर्मों की (विवस्वतः) सूर्य्य के (सदने) मण्डल में (कवयः) विद्यायुक्त (विप्राः) बुद्धिमान् लोग (उक्थेभिः) प्रशंसा के वचनों से (गृणन्ति) स्तुति करते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    उन्हीं लोगों को विद्वान् और धार्मिक जानना चाहिये कि जो राजा आदिकों की झूठी स्तुति को त्याग के धर्मसम्बन्धी कर्मों की प्रशंसा करते हैं और वे ही राजा होने के योग्य हैं कि जो धर्मयुक्त आचरणों को करते हैं ॥७॥

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    विषय

    युद्ध द्वारा

    पदार्थ

    [१] (सत्पतिः) = सज्जनों के रक्षक (चर्षणिप्राः) = श्रमशील व्यक्तियों का पूरण करनेवाले (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु युधा युद्ध द्वारा और (महा) = [मह पूजायाम्] पूजा द्वारा (देवेभ्यः) = देववृत्तिवाले पुरुषों के लिए (वरिवः चकार) = वरणीय धन प्राप्त कराते हैं। देववृत्तिवालों पुरुषों की दो विशेषताएँ हैं– [क] वे प्रभु का उपासन करते हैं [मह्ना], [ख] वे काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं के साथ संग्राम में प्रवृत्त होते हैं [युधा] । यह संग्राम ही वस्तुतः सात्त्विक संग्राम है। इस द्वारा हमारे में सत्त्वगुण का वर्धन होता है। इस संग्राम को करनेवाले व्यक्ति ही 'सत्' कहाते हैं। वे प्रभु से रक्षित होते हैं। प्रभु इनके लिए आवश्यक धनों को प्राप्त कराते ही हैं । [२] (अस्य) = इस प्रभु के (प्रानि) = उन कर्मों को – [क] सज्जनों के रक्षण, [ख] श्रमशील व्यक्तियों की न्यूनताओं को दूर करना तथा [ग] काम आदि से संग्राम में प्रवृत्त उपासकों के लिये वरणीय धनों को प्राप्त कराना आदि कर्मों को विवस्वतः सदने सूर्य के गृह में, अर्थात् ज्ञान से दीप्त गृह में विप्राः = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले कवयः - ज्ञानी लोग उक्थेभिः = स्तोत्रों द्वारा गृणन्ति प्रशंसित करते हैं, अर्थात् ये विप्र अपने घरों को ज्ञान से दीप्त करते हैं। उन घरों में प्रभु के कर्मों की ही चर्चा करते हैं। इन कर्मों की चर्चा द्वारा प्रभु का स्तवन करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उपासना द्वारा तथा काम-क्रोध आदि से युद्ध द्वारा प्रभु की पूजा होती है । प्रभु इन पुजारियों के योगक्षेम का ध्यान करते हैं ।

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    विषय

    राजा को विद्वान् का उपदेश।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् शत्रुहनन करने में समर्थ पुरुष (देवेभ्यः) विद्वान् एवं ऐश्वर्य देने वाले प्रजाजनों के हित के लिये उनसे ही शिक्षा प्राप्त करके (सत्-पतिः) सज्जनों का पालक और (चर्षणिप्राः) मनुष्यों को विविध ऐश्वर्यों से पूर्ण करने हारा होकर (महा युधा) अपने महान् युद्ध बलसे (वरिवः) बड़ा ऐश्वर्य (चकार) प्राप्त करे। (विप्राः कवयः) विद्वान् मेधावी पुरुष (उक्थेभिः) उत्तम २ प्रशंसनीय वचनों से (तानि) उन २ नाना कर्मों को (विवस्वतः सदने) सूर्य के समान तेजस्वी पद पर विराजने वाले उसको (गृणन्ति) उपदेश करें। और उसके किये कर्मों की स्तुति या साधुवाद करें। (२) परमेश्वर सज्जनों का पालक सबको पूरक, महान् सामर्थ्य से देवों, प्राणों और दानशीलों को ऐश्वर्य देता है। विद्वान्, सूर्य के समान तेजस्वी उस परमेश्वर के रूप में उसके नाना कर्मों का वर्णन करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ११ त्रिष्टुप्॥ ४, ५, ७ १० निचृत्त्रिष्टुप्। ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ६, ८ भुरिक् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    त्याच लोकांना विद्वान व धार्मिक समजले पाहिजे जे राजाच्या खोट्या स्तुतीचा त्याग करून धर्मकर्माची प्रशंसा करतात व तेच राजे होण्यायोग्य असतात जे धर्मयुक्त आचरण करतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lover and favourite of humanity, protector and promoter of truth, reality and the good people, with his fight and force of strength and intelligence does great good deeds for the noble powers of nature and humanity. And those great exploits of his, brilliant poets and scholars celebrate with their songs of homage, the waves and echoes of which rise and resound in the house of the sun.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the learned officers of the State is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The wise and learned sages and Poets glorify acts of Indra (wealthy king or president) and advise in the house of the institutor of the Yajna. Such a person is the protector of the victorious and shines like the sun and is filler of all men with truth, wisdom and education by temperament. He performs with great powers of waging war with the wicked, having received education from the enlightened men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The rulers should be within reach and regard them righteous and learned, who praise the righteous acts of the king and other officers of the State and given up all flattery. They alone can become true rulers who perform only righteous acts.

    Foot Notes

    (र्वारवः) सेवनम् = Observance or performance. (चर्षणिप्राः ) य : चर्षणीन्मनुष्यान्सत्यविद्याशिक्षासुशीलैः प्राति प्रपूर्ति सः । चर्षणयः इति मनुष्यनाम (NG 2,3) He who fills men with truth, wisdom, education and good temperament. (विवस्वत:) सवितु: । सूर्यस्य । विवस्वान् आदित्य: तस्येमा: प्रजा: ( Stph 3, 1, 3, 4 ) अत्र विवस्वान् इव तेजस्वी जन: = Of the sun. Here it means of a person who shines like the sun on account of his virtues. Sayancharya interprets here देवेभ्य: not from Gods but देवनशीलैभ्वः स्तोतुभ्य: = ie praisers or devotees of God. In the house of the institutor of the Yajna who dwells for the performing of the Yajna, But Griffith has translated देवेभ्यः as gods.

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