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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 11
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रादिती छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त मा॒ता म॑हि॒षमन्व॑वेनद॒मी त्वा॑ जहति पुत्र दे॒वाः। अथा॑ब्रवीद्वृ॒त्रमिन्द्रो॑ हनि॒ष्यन्त्सखे॑ विष्णो वित॒रं वि क्र॑मस्व ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । मा॒ता । म॒हि॒षम् । अनु॑ । अ॒वे॒न॒त् । अ॒मी इति॑ । त्वा॒ । ज॒ह॒ति॒ । पु॒त्र॒ । दे॒वाः । अथ॑ । अ॒ब्र॒वी॒त् । वृ॒त्रम् । इन्द्रः॑ । ह॒नि॒ष्यन् । सखे॑ । वि॒ष्णो॒ इति॑ । वि॒ऽत॒रम् । वि । क्र॒म॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत माता महिषमन्ववेनदमी त्वा जहति पुत्र देवाः। अथाब्रवीद्वृत्रमिन्द्रो हनिष्यन्त्सखे विष्णो वितरं वि क्रमस्व ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। माता। महिषम्। अनु। अवेनत्। अमी इति। त्वा। जहति।। पुत्र। देवाः। अथ। अब्रवीत्। वृत्रम्। इन्द्रः। हनिष्यन्। सखे। विष्णो इति। विऽतरम्। वि। क्रमस्व ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 11
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सन्तानशिक्षणेन विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे सखे विष्णो पुत्र ! त्वमिन्द्रो वृत्रमिवाऽविद्यां हनिष्यन् वितरं वि क्रमस्वाथ माता त्वा महिषमवेनदेवमुतापि यथा पिताऽब्रवीत्तथा न कुर्य्याश्चेत्तर्ह्यमी देवास्त्वाऽनुजहति ॥११॥

    पदार्थः

    (उत) (माता) जननी (महिषम्) महान्तम् (अनु) (अवेनत्) याचते (अमी) (त्वा) त्वाम् (जहति) (पुत्र) दुःखात्त्रातः (देवाः) विद्वांसः (अथ) (अब्रवीत्) ब्रूते (वृत्रम्) मेघमिवाऽविद्याम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्त्सूर्य्य इव पिता (हनिष्यन्) हननं करिष्यन् (सखे) मित्र (विष्णो) सकलविद्याव्यापिन् (वितरम्) विविधप्रकारेण तरितुं योग्यम् (वि) (क्रमस्व) पुरुषार्थी भव ॥११॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सन्तानानां योग्यतास्ति यथा विद्वांसौ मातापितरौ ब्रह्मचर्य्यादिना विद्याग्रहणं शरीरसुखवर्धनमुपदिशेतां तथैवाऽनुष्ठेयं यानि सुशीलान्यपत्यानि भवन्ति तान्येवाऽऽप्ताऽध्यापका अनुगृह्णन्ति दुर्व्यसनानि त्यजन्ति ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सन्तान शिक्षा से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सखे) मित्र (विष्णो) सम्पूर्ण विद्याओं में व्यापक (पुत्र) दुःख से रक्षा करनेवाले ! आप (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्यवान् सूर्य्य के सदृश पालनकर्त्ता (वृत्रम्) मेघ के समान अविद्या का (हनिष्यन्) नाश करनेवाले हुए (वितरम्) विविध प्रकार तरने योग्य को (वि, क्रमस्व) पुरुषार्थी हूजिये (अथ) इसके अनन्तर (माता) माता (त्वा) आपको (महिषम्) बड़ा (अवेनत्) माँगती है, जो इस प्रकार (उत) भी जैसे पिता (अब्रवीत्) कहता है, वैसे नहीं करे तो (अमी) यह (देवाः) विद्वान् लोग आपका (अनु, जहति) त्याग करते हैं ॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सन्तानों की योग्यता है कि जैसे विद्वान् माता पिता ब्रह्मचर्य आदि से विद्या का ग्रहण और शरीर के सुख के वर्धन का उपदेश करें, वैसे ही करना चाहिये और जो उत्तम शीलयुक्त पुत्र होते हैं, उन्हीं पर यथार्थवक्ता अध्यापक लोग कृपा करते और दुर्व्यसनियों का त्याग करते हैं ॥११॥

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    विषय

    वेदमाता का पुत्र को उपदेश

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (माता) = यह वेदमाता अपने सन्तान को (महिषम्) = [मह पूजायाम्] पूजा की वृत्तिवाला (अन्ववेनत्) = चाहती है। वेद इसे प्रभुप्रवण बनाता है। वेदमाता अपने इस पुत्र को समझाती हुई कहती है कि हे पुत्र अपने को पवित्र बनाकर अपना रक्षण करनेवाले वत्स! (अमी) = वे (देवा:) = देव (त्वा) = तुझे (जहति) = छोड़े चले जा रहे हैं। जितना जितना तू प्रभु से दूर हो रहा है उतनाउतना ही इन देवों से परित्याग हो रहा है। उपासक को ही दिव्यगुण प्राप्त होते हैं । [२] माता के इस उपदेश को सुनकर (अथ) = अब (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (वृत्रं हनिष्यन्) = वासना को नष्ट करने की कामनावाला होता हुआ (अब्रवीत्) = प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (सखे) = मित्र विष्णो सर्वव्यापक प्रभो ! (वितरं विक्रमस्व) = आप अत्यन्त इन वासनाओं पर आक्रमण करनेवाले होइये । आपने ही तो इन वासनाओं को विनष्ट करना है।

    भावार्थ

    भावार्थ– वेदमाता अपने सन्तान को यही उपदेश देती है कि तू प्रभु का उपासक बन । तभी तू दिव्य गुणों का अधिष्ठान बनेगा तथा वासनाओं को विनष्ट कर पाएगा।

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    विषय

    विवेक ।

    भावार्थ

    और (माता) सबको उत्पन्न करने वाली यह माता पृथिवी (महिषम् ) महान् ऐश्वर्य के भोक्ता पुरुष को (अनु अवेनत् ) सदा अनुकूल होकर कामना करे, प्रार्थी हो (त्वा) तुझको देखकर हे (पुत्र) दुखों से त्राण करने वाले राजन् ! (अमीदेवाः) ये सब विजयेच्छुक वीर लोग (त्वा) तुझे ही (जहति) प्राप्त होते हैं। (अथ) अनन्तर (वृत्रम्) बढ़ते हुए शत्रु को (हनिष्यन्) मारने की इच्छा करता हुआ, (इन्द्रः) शत्रुहन्ता पुरुष मित्रगण को (अब्रवीत्) आज्ञा दे ! हे (सखे) मित्रगण ! हे (विष्णो) व्यापक शक्ति से युक्त ! तू (वितरं) अच्छी प्रकार (वि क्रमस्व) विक्रम कर । (२) इसी प्रकार माता ‘प्रकृति’ महान् उस प्रभु को चाहती है ये सब ‘देव’ पृथिवी, प्राण आदि उस आत्मा से भिन्न होकर प्रकट होते हैं। प्रभु जगत् के आवरक अव्यक्त को गति देता हुआ देहप्रवेशी जीव को उपदेश देता है कि तू विविध योनिमार्ग में संक्रमण कर। (३) माता अपने पूज्य गुरुभक्त पुत्र को चाहती है और कहती है कि यदि तू न पढ़ेगा तो विद्वान् जन तुझे त्याग देंगे। वह अज्ञान का नाश करना चाहता हुआ, आचार्य को बोले-हे सुहृद् विद्याव्यापक आचार्य ! तू (वितरं) विशेष रूप से दुःखतारक ज्ञान प्रारम्भ कर, ब्रह्म ज्ञान दे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः । इन्द्रादिती देवत ॥ छन्द:– १, ८, १२ त्रिष्टुप । ५, ६, ७, ९, १०, ११ निचात्त्रष्टुप् । २ पक्तः । ३, ४ भुरिक् पंक्ति: । १३ स्वराट् पक्तिः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वान माता-पिता ब्रह्मचर्याचे पालन करून विद्येचे ग्रहण व शरीराच्या सुखाचा, वर्धनाचा उपदेश करतात तसे संतानांनी वागावे. जे उत्तम शीलयुक्त पुत्र असतात त्यांच्यावरच विद्वान, अध्यापक लोक कृपा करतात व दुर्व्यसनी लोकांचा त्याग करतात. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Then (having given birth to the soul) Mother Nature (inspired with divinity), loving, longing and yearning for the well being of the child, softly speaks, warning the great off-spring: Dear child, the devas, senses, mind and all, are neglecting, forsaking, misleading you (in your state of darkness, ignorance and unawareness). Indra, the born soul, dispelling darkness and destroying Vrtra, demon of ignorance, speaks loud and bold to Vishnu, intelligent spiritual self: Dear friend, arise and act for self redemption (through existence with the devas, senses, mind and the discriminative intelligence).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The teaching of children by capable teachers is mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O friend! well-versed in all sciences, O savior from miseries! be industrious and exert yourself to kill (dispel) ignorance like the sun destroys the cloud. Your mother always prays for your greatness. But if you won't obey your father, the enlightened good teachers will desert you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of of sons and daughters to act in accordance with the teachings of their learned parents regarding the developing and acquiring of knowledge and further promots the pysical happiness by the observance of Brahmcharya. The truthful learned teachers also are kind to the children who are of good character and conduct, but not to those who are used to vices.

    Foot Notes

    (महिषम् ) महान्तम् । महिष इति महन्नाम (NG 3, 3 ) = Great. (अवेनत् ) याचते । = Begs, prays for. (पुत्र) दुःखात् त्रातः । = Savior from miseries. (वृतम् ) मेघमिवाविद्याम् । वृत्र इति मेघनाम (1, 10) यदवृणोत् तद् वृनत्वमिति विज्ञायते । ज्ञानापरकत्वादविद्यापि वृत्रपदाभिधेया | = Ignorance which is like the cloud. (इन्द्रः) परमेश्वर्यंवान्त्सूर्य्य इव पिता । अथ यः स इन्द्रो सोऽसो आदित्यः । ( Stph 8, 5, 3, 2) = The son who is like the sun. (विष्णो ) सकल विद्याव्यापिन् । = Pervading in or well versed in all sciences.

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