ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 7
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्रादिती
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
किमु॑ ष्विदस्मै नि॒विदो॑ भन॒न्तेन्द्र॑स्याव॒द्यं दि॑धिषन्त॒ आपः॑। ममै॒तान्पु॒त्रो म॑ह॒ता व॒धेन॑ वृ॒त्रं ज॑घ॒न्वाँ अ॑सृज॒द्वि सिन्धू॑न् ॥७॥
स्वर सहित पद पाठकिम् । ऊँ॒ इति॑ । स्वि॒त् । अ॒स्मै॒ । नि॒ऽविदः॑ । भ॒न॒न्त॒ । इन्द्र॑स्य । अ॒व॒द्यम् । दि॒धि॒ष॒न्ते॒ । आपः॑ । मम॑ । ए॒तान् । पु॒त्रः । म॒ह॒ता । व॒धेन॑ । वृ॒त्रम् । ज॒घ॒न्वान् । अ॒सृ॒ज॒त् । वि । सिन्धू॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
किमु ष्विदस्मै निविदो भनन्तेन्द्रस्यावद्यं दिधिषन्त आपः। ममैतान्पुत्रो महता वधेन वृत्रं जघन्वाँ असृजद्वि सिन्धून् ॥७॥
स्वर रहित पद पाठकिम्। ऊम् इति। स्वित्। अस्मै। निऽविदः। भनन्त। इन्द्रस्य। अवद्यम्। दिधिषन्ते। आपः। मम। एतान्। पुत्रः। महता। वधेन। वृत्रम्। जघन्वान्। असृजत्। वि। सिन्धून् ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मेघविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! ममाऽपत्यस्येन्द्रस्य निविदोऽस्मै मेघाय किमु ष्विद्भनन्तापोऽवद्यं दिधिषन्ते मम पुत्रो महता वधेनैतान् वृत्रञ्च जघन्वान्त्सिन्धून् व्यसृजत् ॥७॥
पदार्थः
(किम्) (उ) (स्वित्) प्रश्ने (अस्मै) मेघाय (निविदः) नितरां विदन्ति याभिस्ता वाचः। निविदिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (भनन्त) वदन्ति (इन्द्रस्य) सूर्य्यस्य (अवद्यम्) गर्ह्यम् (दिधिषन्ते) शब्दयन्ति (आपः) (मम) (एतान्) (पुत्रः) (महता) (वधेन) (वृत्रम्) (जघन्वान्) हतवान् (असृजत्) सृजति (वि) (सिन्धून्) नदीः ॥७॥
भावार्थः
अत्राऽदितिसूर्य्यमेघाऽलङ्कारेण सेनासभाध्यक्षराज्ञां कृत्यं वर्णितमस्ति। यथाऽन्तरिक्षस्य पुत्रवद्वर्त्तमानोऽर्को मेघं हत्वा नदीर्वाहयति तथैव विदुषः सुशिक्षितः पुत्रः सेनाध्यक्षश्शत्रून् हत्वा सेना ऐश्वर्यं प्रापयति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मेघ विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (मम) मुझ पुत्र के (इन्द्रस्य) सूर्यसम्बन्ध की (निविदः) अत्यन्त ज्ञान जिनसे वे वाणी (अस्मै) इस मेघ के लिये (किम्) क्या (उ) और (स्वित्) क्यों (भनन्त) शब्द करती हैं (आपः) जल (अवद्यम्) निन्द्य (दिधिषन्ते) शब्द करते हैं, मेरा (पुत्रः) सन्तान (महता) बड़े (वधेन) वध से (एतान्) इनको और (वृत्रम्) मेघ का (जघन्वान्) नाश किया हुआ सूर्य्य (सिन्धून्) नदियों को (वि, असृजत्) उत्पन्न करता है ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में अदिति, सूर्य्य और मेघ के अलङ्कार से सेना, सभाध्यक्ष और राजा के कृत्य का वर्णन है। जैसे अन्तरिक्ष के पुत्र के समान वर्त्तमान सूर्य्य मेघ का नाश करके नदियों को बहाता है, वैसे ही विद्वान् का उत्तम प्रकार शिक्षित पुत्र सेना का अध्यक्ष शत्रुओं का नाश करके सेनाओं को ऐश्वर्य्य प्राप्त कराता है ॥७॥
विषय
पाप-पुण्य का ज्ञान
पदार्थ
[१] (अस्मै) = इस वेदमाता के पुत्र के लिए वेदानुकूल जीवन बितानेवाले के लिए (निविद:) = ये निश्चयात्मक ज्ञान देनेवाली वेदवाणियाँ (किं उ अवद्यम्) = 'क्या निश्चय से पाप है' इस बात को (स्वित्) = निश्चयपूर्वक (भनन्त) = वह देती हैं- प्रतिपादित कर देती हैं। इस प्रकार पाप का ज्ञान देकर उसे पाप से बचाती हुईं ये (आपः) = व्यापक ज्ञानवाली वेदवाणियाँ (इन्द्रस्य) = इन्द्र का (दिधिषन्ते) = धारण करती हैं। पाप-पुण्य का ज्ञान देनेवाली ये वेदवाणियाँ वस्तुतः पापों से बचाकर हमारा कल्याण करती हैं हमें विनाश से बचाती हैं। [२] वेदमाता कहती है कि (मम पुत्रः) = मेरा यह सन्तान, मेरे द्वारा अपना पवित्रीकरण [पुनाति] व त्राण [त्रायते] रक्षण करनेवाला यह मेरा पुत्र (महता वधेन) = इस महतीय [महान्] ज्ञानरूप वज्र से (वृत्रं जघन्वान्) = वासना को विनष्ट करनेवाला होकर (एतान् सिन्धून्) = इन ज्ञानप्रवाहों को (वि असृजत्) = विशेषरूप से अपने अन्दर उत्पन्न करता है। वासना ही ज्ञानप्रवाह की प्रतिबन्धिका है। इस वासना के विनाश से ज्ञानप्रवाह फिर से ठीक रूप में होने लगता है। यह ज्ञानप्रवाह सब मलों को क्षरित कर देता है।
भावार्थ
भावार्थ- वेदज्ञान हमें पाप-पुण्य का ज्ञान देकर पापों से बचाता हुआ हमारा धारण करता है।
विषय
प्रभु का जगत् सर्जन ।
भावार्थ
(अस्मै) इस (इन्द्रस्य) महान् जगत् के द्रष्टा परमेश्वर के विषय में (निविदः) वेद की वाणियां (किम् उ भनन्त) क्या कहती हैं ? यही कि (आपः) प्रकृति के व्यापक सूक्ष्म परमाणु (अस्मै) इस परमेश्वर के (अवद्यं) न कथन करने योग्य, अलौकिक, अप्रतर्क्य सामर्थ्य को (दिधिषन्त) धारण करते हैं । (मम पुत्रः) मुझ प्रकृति का पुत्र अर्थात् मुझ से प्रकट होने वाला सब जीवों का त्राता परमेश्वर, (महता वधेन) बड़े भारी गतिशील शक्ति से (वृत्रं) सबको आवरण करने वाले कारण रूप ‘तमस् वा सलिल’ को (जघन्वान्) मेघ को विद्युत् के तुल्य ताड़ित करता हुआ, प्रेरित करता हुआ (सिन्धून्) जल प्रवाहों के तुल्य अनवरत वेग से जाने वाले रजः प्रवाहों, निहारिका-नदियों को (असृजत्) रचता और चलाता है । (२) राज्य पक्ष में—इस राजा के समान विशेष ज्ञानी लोग क्या कहते हैं ? इसके अकथनीय रूप को (आपः) आप्त प्रजाएं और विद्वान्गण, मल को जलों के तुल्य स्वयं अपने में धारण करें। और (वृत्रं) बढ़ते शत्रुओं को प्रजा-माता का पुत्र सेनापति बड़े भारी शस्त्र बल से मार कर (सिन्धून्) युक्त सैन्य दलों, प्रजा पुरुषों को सन्मार्ग में चलावे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः । इन्द्रादिती देवत ॥ छन्द:– १, ८, १२ त्रिष्टुप । ५, ६, ७, ९, १०, ११ निचात्त्रष्टुप् । २ पक्तः । ३, ४ भुरिक् पंक्ति: । १३ स्वराट् पक्तिः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात अदिती, सूर्य मेघाच्या अलंकाराद्वारे सेना, सभाध्यक्ष व राजाच्या कृत्याचे वर्णन आहे, जसे अंतरिक्षात पुत्राप्रमाणे वर्तमान असलेला सूर्य मेघाचा नाश करून नद्यांना प्रवाहित करतो, तसेच विद्वान सुशिक्षित पुत्र सेनेचा अध्यक्ष बनून शत्रूचा नाश करून सेनेला ऐश्वर्य प्राप्त करवून देतो. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
What do the ripples, murmurs and songs of excitement of the streams, imaging the immanent power of Indra, say to the mount they hit, the cloud they touch and to this humanity? They speak for Mother Nature, Aditi: My son Indra, breaking the cloud with the mighty thunderbolt of solar energy released the waters and made the streams to flow.
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