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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 23/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रऋतदेवो वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ऋ॒तं ये॑मा॒न ऋ॒तमिद्व॑नोत्यृ॒तस्य॒ शुष्म॑स्तुर॒या उ॑ ग॒व्युः। ऋ॒ताय॑ पृ॒थ्वी ब॑हु॒ले ग॑भी॒रे ऋ॒ताय॑ धे॒नू प॑र॒मे दु॑हाते ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तम् । ये॒मा॒नः । ऋ॒तम् । इत् । व॒नो॒ति॒ । ऋ॒तस्य॑ । शुष्मः॑ । तु॒र॒ऽयाः । ऊँ॒ इति॑ । ग॒व्युः । ऋ॒ताय॑ । पृ॒थ्वी इति॑ । ब॒हु॒ले इति॑ । ग॒भी॒रे इति॑ । ऋ॒ताय॑ । धे॒नू इति॑ । प॒र॒मे इति॑ । दु॒हा॒ते॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतं येमान ऋतमिद्वनोत्यृतस्य शुष्मस्तुरया उ गव्युः। ऋताय पृथ्वी बहुले गभीरे ऋताय धेनू परमे दुहाते ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतम्। येमानः। ऋतम्। इत्। वनोति। ऋतस्य। शुष्मः। तुरऽयाः। ऊम् इति। गव्युः। ऋताय। पृथ्वी इति। बहुले इति। गभीरे इति। ऋताय। धेनू इति। परमे इति। दुहाते इति ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथर्त्ताय बहुले गभीरे पृथ्वी यथर्त्ताय परमे धेनू दुहाते तथर्तं ये येमानस्तथर्त्तं यो वनोति तथर्त्तस्य यः शुष्मस्तुरया उ गव्युरस्ति त इत् सदैव पूर्णं सुखं लभन्ते ॥१०॥

    पदार्थः

    (ऋतम्) सत्यम् (येमानः) नियमयन्तः (ऋतम्) (इत्) एव (वनोति) याचते (ऋतस्य) (शुष्मः) बलम् (तुरयाः) शीघ्रतां प्राप्तम् (उ) (गव्युः) य आत्मनो गां पृथ्वीं वाचं वेच्छुः (ऋताय) सत्याय जलाय वा (पृथ्वी) भूम्यन्तरिक्षे (बहुले) बहुपदार्थयुक्ते (गभीरे) गम्भीराश्रये (ऋताय) सत्याय (धेनू) गावाविव वर्त्तमाने (परमे) प्रकृष्टे (दुहाते) प्रातः ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! ये मनुष्यशरीरं प्राप्य नियमेन सत्याचारं सत्ययाञ्चां कृत्या सद्यो धार्मिका जायन्ते भूमिसूर्य्यवत् सर्वेषां कामपूर्तिं कर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (ऋताय) सत्य के लिये (बहुले) बहुत पदार्थों से युक्त (गभीरे) गम्भीर आश्रय में (पृथ्वी) भूमि और अन्तरिक्ष तथा जैसे (ऋताय) सत्य और जल के लिये (परमे) अति उत्तम (धेनू) गौओं के सदृश वर्त्तमान (दुहाते) प्रातःकाल वैसे (ऋतम्) सत्य को जो (येमानः) नियम करते हुए और वैसे (ऋतम्) सत्य की जो (वनोति) याचना करता है तथा (ऋतस्य) सत्य के जो (शुष्मः) बल को (तुरयाः) शीघ्रता को प्राप्त (उ) और (गव्युः) निज सम्बन्धिनी पृथिवी वा वाणी को चाहनेवाला है, वे (इत्) ही सर्वदा पूर्ण सुख को प्राप्त होते हैं ॥१०॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो लोग मनुष्य के शरीर को प्राप्त होकर नियम से सत्य आचार, सत्य याञ्चा करके शीघ्र धार्मिक होते हैं, वे भूमि और सूर्य्य के सदृश सब की कामना की पूर्ति कर सकते हैं ॥१०॥

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    विषय

    वेदज्ञान द्वारा प्रभु का संभजन

    पदार्थ

    [१] (ऋतं येमानः) = सत्य वेदज्ञान को अपने अन्दर धारण करता हुआ [नियच्छन्] (इत्) = निश्चय से (ऋतम्) = उस सत्यस्वरूप प्रभु को (वनोति) = भजता है । इस (ऋतस्य) = सत्यस्वरूप प्रभु का (शुष्म:) = शत्रुशोषक बल (उ) = निश्चय से (तुरया) = शीघ्र ही (गव्युः) = हमारे साथ प्रशस्त इन्द्रियों को जोड़नेवाला है। वेदज्ञान से हम प्रभु का सम्पर्क प्राप्त करते हैं। प्रभुसम्पर्क से प्राप्त शक्ति हमारी इन्द्रियों को प्रशस्त बनाती है । [२] (ऋताय) = इस सत्य वेदज्ञान के लिए (पृथ्वी) = द्यावापृथिवी-मस्तिष्क व शरीर (बहुले) = बहुत उत्तम वसुओं को लानेवाले तथा (गभीरे) = गम्भीर ज्ञानवाले होते हैं। सत्य वेदज्ञान का शरीर पर यह परिणाम होता है कि यह सब वसुओं से परिपूर्ण होता है तथा मस्तिष्क गम्भीर ज्ञानवाला बनता है। (ऋताय) = सत्य वेदज्ञान के लिए ही (धेनू) = ज्ञान व शक्ति से प्रीणित करनेवाले (परमे) = उत्कृष्ट द्यावापृथिवी-मस्तिष्क व शरीर (दुहाते) = प्रपूरण करनेवाले होते हैं। वेदज्ञान को अपनाने से मस्तिष्क व शरीर ज्ञान व शक्ति से परिपूर्ण होकर हमारा प्रीणन करनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वेदज्ञान हमें प्रभु को प्राप्त कराता है। इससे मस्तिष्क ज्ञान से परिपूर्ण होता है, तो शरीर शक्ति से ।

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    विषय

    ऋत का महत्व ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (ऋतं येमानः ऋतम् वनोति) जल को नियन्त्रण में रखने वाला शिल्पी वा कृषक शक्ति वा अन्न को प्राप्त करता है उसी प्रकार (ऋतं) सत्याचरण को (येमानः) नियम पूर्वक पालन करता हुआ (ऋतम् इत्) सत्य बल को ही (वनोति) चाहा करता है । (ऋतस्य शुष्मः) जल वा अन्न का बल जिस प्रकार (तुरया गव्युः) अतिशीघ्र भूमि, इन्द्रिय और वाणी को प्राप्त होता है उसी प्रकार (ऋतस्य शुष्मः) सत्याचरण और धन का बल (तुरया) अति शीघ्र ही (गव्युः) गो अर्थात् वाणी और पार्थिव सम्पदा की वृद्धि करता है । (ऋताय) अन्न और जल के उत्पन्न करने के लिये जिस प्रकार (पृथ्वी) भूमि और आकाश है उसी प्रकार (ऋताय) सत्य न्यायशील राजा के हितार्थ (पृथ्वी) भूमि और आकाश के समान विस्तृत (बहुले) बहुत ऐश्वर्य देने वाली (गभीरे) गम्भीर राजवर्ग और प्रजावर्ग (दुहाते) नाना ऐश्वर्य प्रदान करते हैं । और (ऋताय) यज्ञ के लिये जिस प्रकार (परमे) उत्तम दोनों (धेनू) वाणी और गौ (दुहाते) दूध ज्ञान प्रदान करती हैं उसी प्रकार (ऋताय) जल युक्त, सत्य युक्त पुरुष और यज्ञादियुक्त के लिये दोनों लोक, वाणी क्रिया और (परमे) परम (धेनू इव) गौओं के तुल्य प्रजा और सेना दोनों ही राष्ट्र (दुहाते) सम्पदाएं प्रदान करती हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १–७, ११ इन्द्रः । ८, १० इन्द्र ऋतदेवो वा देवता॥ छन्द:– १, २, ३, ७, ८, ६,२ त्रिष्टुप् । ४, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ६ भुरिक् पंक्ति: । ११ निचृत्पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जी माणसे मनुष्य शरीर प्राप्त करून नियमाने सत्याचरण, सत्य प्रार्थना करून तात्काळ धार्मिक बनतात ती भूमी व सूर्याप्रमाणे सर्वांची कामना पूर्ण करू शकतात. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The pursuant of truth attains to truth. The operation of the eternal law of truth is fast, instantaneous, so fast that it is omnipresent, all operative. The abundant earth, deep interspaces and the high heavens all like the mother cow yield the milk of life in service of the eternal law of truth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The sublimity of truthful conduct is praised.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! there are earth and firmament endowed with many substances and supported by serene Supreme Power, same way the couple of cow and the speech supply milk and knowledge for the true Yajna. In the same manner, those who observe truth with self-control seek for truth only. Those who realize the the great force of truth and who desire persons to have cow, land and noble speech rapidly, they attain perfect happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons having acquired human body become righteous by observing the truthful conduct. Sincere prayers can accomplish the noble desires of all, like the earth and the sun.

    Foot Notes

    (बेमानः ) नियमयन्तः । = Controlling, restraining. (गव्युः) 'य आत्मनो गां पृथ्वीं वाचं वेच्छुः । = Desirous of having his cow, speech or land. (पृथ्वी) भूम्यन्तरिक्षे । = Earth and firmament. (वनोति) याचते । = Begs. (शुष्मः ) बलम्। = Force.

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