ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 23/ मन्त्र 8
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्रऋतदेवो वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ऋ॒तस्य॒ हि शु॒रुधः॒ सन्ति॑ पू॒र्वीर्ऋ॒तस्य॑ धी॒तिर्वृ॑जि॒नानि॑ हन्ति। ऋ॒तस्य॒ श्लोको॑ बधि॒रा त॑तर्द॒ कर्णा॑ बुधा॒नः शु॒चमा॑न आ॒योः ॥८॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तस्य॑ । हि । शु॒रुऽधः॑ । सन्ति॑ । पू॒र्वीः । ऋ॒तस्य॑ । धी॒तिः । वृ॒जि॒नानि॑ । ह॒न्ति॒ । ऋ॒तस्य॑ । श्लोकः॑ । ब॒धि॒रा । त॒त॒र्द॒ । कर्णा॑ । बु॒धा॒नः । शु॒चमा॑नः । आ॒योः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतस्य हि शुरुधः सन्ति पूर्वीर्ऋतस्य धीतिर्वृजिनानि हन्ति। ऋतस्य श्लोको बधिरा ततर्द कर्णा बुधानः शुचमान आयोः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठऋतस्य। हि। शुरुधः। सन्ति। पूर्वीः। ऋतस्य। धीतिः। वृजिनानि। हन्ति। ऋतस्य। श्लोकः। बधिरा। ततर्द। कर्णा। बुधानः। शुचमानः। आयोः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सत्याचरणोत्तमताविषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यस्यर्त्तस्य सत्याचारस्य पूर्वीः शुरुधः सन्ति यस्यर्त्तस्य धीतिर्वृजिनानि प्राप्य शत्रून् हन्ति यस्यर्त्तस्य श्लोको बधिरा कर्णा ततर्द योऽन्यान् बुधानः शुचमान आयोर्जीवनस्योपायानुपदिशति तं हि गुरुवत् सत्कुर्य्याः ॥८॥
पदार्थः
(ऋतस्य) सत्यस्य (हि) यतः (शुरुधः) याः शु सद्यो रुन्धन्ति ताः स्वसेनाः। शुरुध इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.३) (सन्ति) (पूर्वीः) प्राचीनाः (ऋतस्य) यथार्थस्य (धीतिः) धारणावती प्रज्ञा (वृजिनानि) बलानि। वृजिनमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (हन्ति) (ऋतस्य) सत्यस्य (श्लोकः) वाक्। श्लोक इति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (बधिरा) बधिराणि (ततर्द) हिनस्ति (कर्णा) कर्णानि (बुधानः) बोधयन् (शुचमानः) पवित्रः पवित्रयन् (आयोः) जीवनस्य ॥८॥
भावार्थः
हे अध्यापक राजन् वा ! ये जितेन्द्रिया दुष्टाचारस्य निरोधकाः सत्यस्य प्रचारकाः सत्यवाचो बधिरवद्वर्त्तमानाज्ञान् बोधयन्तो ब्रह्मचर्य्याद्युपदेशेन दीर्घायुषः सम्पादयन्तः क्लेशानां शत्रूणाञ्च हन्तारः स्युस्त एव स्वात्मवन्माननीयाः स्युः ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सत्याचरणोत्तमता विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥८॥
पदार्थ
हे राजन् ! जिस (ऋतस्य) सत्य आचार की (पूर्वीः) प्राचीन (शुरुधः) शीघ्र रोकनेवाली अपनी सेना (सन्ति) हैं जिस (ऋतस्य) सत्य की (धीतिः) धारणा करनेवाली बुद्धि (वृजिनानि) बलों को प्राप्त होकर शत्रुओं का (हन्ति) नाश करती है और जिसे (ऋतस्य) सत्य की (श्लोकः) वाणी (बधिरा) बधिर (कर्णा) कर्णों का (ततर्द) नाश करती है और जो अन्य जनों को (बुधानः) जनाता और (शुचमानः) पवित्र होकर पवित्र करता हुआ (आयोः) जीवन के उपायों का उपदेश देता है, उसका (हि) जिससे गुरु के सदृश सत्कार करो ॥८॥
भावार्थ
हे अध्यापक वा राजन् ! जो जितेन्द्रिय दुष्ट आचार के रोकने और सत्य के प्रचार करनेवाले सत्यवाणीयुक्त और बधिर के सदृश वर्त्तमान अज्ञ पुरुषों को बोध देते हुए ब्रह्मचर्य्य आदि उपदेश से अधिक अवस्थावाले करते हुए क्लेश और शत्रुओं के नाश करनेवाले होवें, वे ही अपने आत्मा के सदृश आदर करने योग्य होवें ॥८॥
विषय
बोध व पवित्रता देनेवाला वेदज्ञान
पदार्थ
[१] (ऋतस्य) = सत्य वेदज्ञान की (पूर्वी:) = पालन व पूरण करनेवाली सनातन वाणियाँ (हि) = निश्चय से (शुरुध:) = [शुग् रुधः] हमारे सब शोकों को दूर करनेवाली (सन्ति) = हैं। हमारे जीवनों को उत्तम बनाकर ये हमारे शोकों को दूर करती हैं। (ऋतस्य धीतिः) = सत्य वेदज्ञान का धारण (वृजिनानि) = हमारे सब पापों को (हन्ति) = नष्ट करता है। यह ज्ञान हमें पवित्र बनाता है। [२] (ऋतस्य श्लोकः) = इस सत्य वेदज्ञान की स्तुतिरूप वाणी (बधिरा कर्णा) = बहिरे कानों को भी (ततर्द) = छेद डालती है यह सब पर उत्तम प्रभाव पैदा करती है। यह (आयो:) = मनुष्य का (बुधान:) = ज्ञान बढ़ानेवाली व (शुचमानः) = उसे शुचि जीवनवाला बनानेवाली है।
भावार्थ
भावार्थ- सत्य वेदज्ञान सृष्टि के आरम्भ में दिया गया है। यह हमारे जीवन को बोधमय व पवित्र बनाता है।
विषय
वेद वाणी का महत्व । राजा की आज्ञा, न्याय व्यवस्था का वर्णन ।
भावार्थ
(ऋतस्य) सत्य ज्ञान वेद की (शुरुधः) अज्ञान को शीघ्र ही रोकने वाली (पूर्वीः) सनातन से चली आई, एवं ज्ञान से पूर्ण वाणियें (सन्ति) हैं । (ऋतस्य धीतिः) सत्य ज्ञान, वेद का अध्ययन, धारण और मनन (वृजिनानि) समस्त पापों को (हन्ति) नाश करता है । (ऋतस्य) सत्य ज्ञान की (श्लोकः) वेद वाणी, (शुचमानः) पवित्र करती हुई और स्वयं पवित्र, (बुधानः) उत्तम बोध प्रदान कराती हुई (आयोः) मनुष्य के (बधिरा कर्णौ) बहरे कानों को भी (ततर्द) छेद देती है और उनमें भी प्रवेश करती है अथवा (वधिरा कर्ण) बध, बन्धन कराने वाले शस्त्रादि साधनों को भी नाश करती है । (२) ‘ऋत’ का अर्थ सत्य, न्याय, यज्ञ और परमेश्वर है । न्याय के उपलक्षण से न्यायाधिपति राजा भी ‘ऋत’ इस प्रकार न्यायवान् राजा की (शुरुधः पूर्वीः सन्ति) शत्रु को शीघ्र रोकने वाली सेनायें बहुत सी हों। उसकी (धीतिः) राष्ट्र धारण की शक्ति और प्रज्ञा पापों का नाश करे, उसकी वाणी, न्याय शासन सबको विज्ञापित करती हुई, सबको पवित्र करती हुई बहरे कानों के भी भीतर प्रवेश करे । ‘शुरुधः’ इति पढ़नाम । आशुरोधनात्, शुग्रोधनाद्वा ॥ ‘ऋत’ सत्य स्वरूप परमेश्वर की सनातन शक्तियां हैं, उसका ध्यान पापनाशक है उसकी वाणी और स्तुति वधिरों को भी ज्ञान प्रदान करती हैं। अथवा—‘ऋतम्’ इत्यन्ननाम । अन्न की क्षुधा निवारक और पालक बहुत सी शक्तियां हैं । अन्न का धारण पाप नाशक है, भूखे पाप करते हैं अन्न से समृद्ध जनों में पाप नहीं आते । अन्न की वार्ता ही (वधिरा) बध करने वाले वा बंधन करने वाले (कर्णा) साधनों को भी (ततर्द) नाश करती हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ १–७, ११ इन्द्रः । ८, १० इन्द्र ऋतदेवो वा देवता॥ छन्द:– १, २, ३, ७, ८, ६,२ त्रिष्टुप् । ४, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ६ भुरिक् पंक्ति: । ११ निचृत्पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे अध्यापक किंवा राजा! जे जितेन्द्रिय, दुष्ट आचरण रोखणारे, सत्याचा प्रचार करणारे, सत्य बोलणारे, बद्ध अज्ञानी लोकांना बोध करविणारे, ब्रह्मचर्याच्या उपदेशाने दीर्घायुषी करणारे. क्लेश व शत्रूंचा नाश करणारे, असतात तेच आपल्या आत्म्याप्रमाणे आदर करण्यायोग्य असतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The protective forces of truth are everlasting. The vision and understanding rooted in truth removes all hurdles and breaks the clouds of darkness. The word and message of truth clears up the ears of the deaf, awakening and brightening up the man who hears, giving him the light of Divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The sublimity of truthful conduct is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! you should honor the man of truthful conduct like your Guru (preceptor). His long established armies are capable to stop the enemies, because his understanding of truth is strong and he destroys enemies. His truthful speech removes the obstacles, is pure, as well as purifier. While teaching. others, he tells the means to ennoble life.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O teacher or king! you should honor and regard the men like yourselves, who are self-controlled, check evil conduct, speak and propagate truth, teach the ignorant persons because they are like the deaf. In fact, they like men long lived by preaching Brahmacharya, and thus destroy miseries and enemies.
Translator's Notes
Dayananda Sarasvati gave in his commentary that the removal of deafness is meant here the removal of ignorance and prejudice. These make a man deaf to the words of truth.
Foot Notes
(शुरुधः ) या शु सद्या रुन्धन्ति ताः स्वसेनाः । शुरुध इति पदनाम (NG 4, 3) = Own armies which soon stop the enemies. (वृजिनानि) बलानि । वृजिनमिति बलनाम (NG 2, 9 ) = The strength. (श्लोकः ) वाक् । श्लोक इति बाङ्नाम (NG 1, 11) = The speech. (ततर्द ) हिनस्ति । = Kills, destroys.
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