ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 23/ मन्त्र 6
किमादम॑त्रं स॒ख्यं सखि॑भ्यः क॒दा नु ते॑ भ्रा॒त्रं प्र ब्र॑वाम। श्रि॒ये सु॒दृशो॒ वपु॑रस्य॒ सर्गाः॒ स्व१॒॑र्ण चि॒त्रत॑ममिष॒ आ गोः ॥६॥
स्वर सहित पद पाठकिम् । आत् । अम॑त्रम् । स॒ख्यम् । सखि॑ऽभ्यः । क॒दा । नु । ते॒ । भ्रा॒त्रम् । प्र । ब्र॒वा॒म॒ । श्रि॒ये । सु॒ऽदृशः॑ । वपुः॑ । अ॒स्य॒ । सर्गाः॑ । स्वः॑ । न । चि॒त्रऽत॑मम् । इ॒षे॒ । आ । गोः ॥
स्वर रहित मन्त्र
किमादमत्रं सख्यं सखिभ्यः कदा नु ते भ्रात्रं प्र ब्रवाम। श्रिये सुदृशो वपुरस्य सर्गाः स्व१र्ण चित्रतममिष आ गोः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठकिम्। आत्। अमत्रम्। सख्यम्। सखिऽभ्यः। कदा। नु। ते। भ्रात्रम्। प्र। ब्रवाम। श्रिये। सुऽदृशः। वपुः। अस्य। सर्गाः। स्वः। न। चित्रऽतमम्। इषे। आ। गोः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मैत्रीकरणविषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् राजन् वा ! ते सखिभ्यो भ्रात्रं सख्यं कदा नु प्र ब्रवामाऽऽत् किममत्रं ते सखिभ्यः प्रब्रवाम। ये सुदृशोऽस्य श्रिये आ गोस्सर्गा वपुरिषे सन्ति तद्विज्ञानं चित्रतमं स्वर्ण वर्त्तत इति प्रब्रवाम ॥६॥
पदार्थः
(किम्) (आत्) आनन्तर्ये (अमत्रम्) सुपात्रम् (सख्यम्) (सखिभ्यः) (कदा) (नु) (ते) तव (भ्रात्रम्) भ्रातुरिदं कर्म्म तद्वद्वर्त्तमानम् (प्र) (ब्रवाम) उपदिशेम (श्रिये) सेवायै धनाय वा (सुदृशः) सुष्ठु द्रष्टव्यस्य (वपुः) सुरूपं शरीरम् (अस्य) (सर्गाः) सृष्टयः (स्वः) सुखम् (न) इव (चित्रतमम्) अतिशयेनाश्चर्य्यरूपम् (इषे) इच्छायै (आ) (गोः) पृथिव्यादेः ॥६॥
भावार्थः
सर्वैर्मनुष्यैराप्तानां विदुषां मित्रता सदैव कार्या यतस्ते सदुपदेशेन सर्वान् सृष्टिविद्याविदो धर्म्मात्मनः सम्पाद्यातीवोत्तमं विज्ञानं दत्वा सुखिनः कुर्य्युरिति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भी मैत्रीकरणविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् वा राजन् ! (ते) आपके (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (भ्रात्रम्) भ्रातृसम्बन्धि कर्म्म के सदृश वर्त्तमान (सख्यम्) मित्रपने वा मित्र के कर्म्म का (कदा) कब (नु) शीघ्र (प्र, ब्रवाम) उपदेश देवें (आत्) इसके अनन्तर (किम्) किस (अमत्रम्) सुपात्र का आपके मित्रों के लिये उपदेश देवें और जो (सुदृशः) उत्तम प्रकार देखने योग्य (अन्य) इसकी (श्रिये) सेवा वा धन के लिये (आ, गोः) पृथिवी से लेकर (सर्गाः) सृष्टियाँ (वपुः) उत्तम रूपयुक्त शरीर की (इषे) इच्छा के लिये हैं, उनका विज्ञान (चित्रतमम्) अत्यन्त आश्चर्य्यरूप (स्वः) सुख के (न) सदृश वर्त्तमान है, ऐसा उपदेश देवें ॥६॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को चाहिये कि यथार्थवक्ता विद्वानों से मित्रता सदा ही करें, जिससे वे उत्तम उपदेश से सब को सृष्टिविद्या के जाननेवाले धर्म्मात्मा करके बहुत ही उत्तम विज्ञान को देकर सुखी करें ॥६॥
विषय
प्रभु की मित्रता में
पदार्थ
[१] (किं आत्) = क्या ही (सखिभ्यः) = हम मित्रों के लिए (सख्यम्) = आपकी मित्रता (अमत्रम्) = शत्रुओं का अभिभव करनेवाली होती है [शत्रूनभिभावुकम् सा०] । (कदा नु) = कब निश्चय से (ते) = आपके (भ्रात्रम्) = भ्रातृत्व को (प्रब्रवाम) = हम कह सकेंगे? [२] (अस्य सुदृश:) इस उत्तम दर्शनीय प्रभु के (सर्गाः) = उद्योग श्रिये हमारी शोभा की वृद्धि के लिए होते हैं । इस (गो:) = सदा गतिशील प्रभु का (स्वः न) = सूर्य के समान (चित्रतमः) = अत्यन्त अद्भुत दीप्तिवाला (वपुः) = शरीर (आ इमे) = समन्तात्, सब से चाहने योग्य होता है। हम जितना जितना प्रभु की प्रेरणा में चलेंगे, उतनाउतना ही अधिक और अधिक शोभावाले बन पाएँगे। हम अपने इस शरीर को प्रभु का शरीर बनाएँ । ऐसा करने से यह सूर्य के समान दीप्तिवाला बनेगा। हृदय में प्रभु को आसीन करते ही यह शरीर प्रभु का शरीर बन जाता है।
भावार्थ
भावार्थ– प्रभु की मित्रता में हम सब शत्रुओं का अभिभव करनेवाले होंगे। हमारा शरीर सूर्य के समान दीप्तिवाला बनेगा ।
विषय
प्रश्नोत्तर से नाना उपदेश ।
भावार्थ
हे विद्वन् ! स्वामिन् ! प्रभो ! (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (आत्) अनन्तर (ते) तेरा (किम् कदा सख्यम्) क्या और कब कैसा और किस समय मित्र भाव और किस समय (भ्रात्रं) भाईपने का सा स्नेह हम (प्र ब्रवाम) बतलावें । उत्तर—(अमत्र) अपने सहवासी की रक्षा करने वाला, शत्रुओं को पीड़ित करने वाला (अमात्रम्) और असीम (अस्य) इस (सुदृशः) शोभन दृष्टि वाले, उत्तम दर्शनीय प्रभु का (वपुः) शरीर (श्रिये) श्री, शोभा और राज्यलक्ष्मी के धारण करने योग्य हों, और (अस्य सर्गाः) इसके सब उद्योग (स्वः सर्गाः न) सूर्य के उत्पादित समान जल का मेघादि के तुल्य हो । और (गोः) सबके गमन करने योग्य, उत्तम पुरुष की वाणी का स्वरूप भी (चित्रतमम्) अति आश्चर्यजनक, (गोः इषे) सूर्य की रश्मि का स्वरूप जिस प्रकार अन्न और वृष्टि के लिये होता है उसी प्रकार (इषे) पृथ्वी पर अन्न की वृद्धि और प्रजाओं की कामना पूर्ण करने के लिये हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ १–७, ११ इन्द्रः । ८, १० इन्द्र ऋतदेवो वा देवता॥ छन्द:– १, २, ३, ७, ८, ६,२ त्रिष्टुप् । ४, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ६ भुरिक् पंक्ति: । ११ निचृत्पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व माणसांनी विद्वान माणसांबरोबर सदैव मैत्री करावी. ज्यामुळे ते उत्तम उपदेश करून सर्वांना सृष्टिविद्येचे ज्ञान देऊन, धर्मात्मा बनवून, उत्तम विज्ञान देऊन सर्वांना सुखी करतील. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O lord, when and how shall we describe your firm and protective love and friendship and your brotherly affection to our friends? The cosmic body of this gracious lord and the various stages of his creation are for the beauty and glory of existence, blissful as heaven, various and most wondrous. So also are the beauties and generosities of the sun for the love and sustenance of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More details of the friendship are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned king! when should we teach your friends about the ideal of brotherhood and friendship? When should we tell them about the deserving friends? Let us teach that the knowledge of the desirable things is the final aim of desires. All the articles from earth to different worlds are the wonderful sources of happiness. They are the means of the service and wealth of the beautiful body.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All must establish and maintain the friendship with the absolutely truthful enlightened persons, because they can make all happy by giving them the knowledge of the Science of creation. They are righteous with their teachings and by imparting knowledge of a high order.
Foot Notes
(अमत्रम् ) सुपात्रम् । = A well deserving person. (श्रिये) सेवाये धनाय वा। = For service and wealth. (सर्गा:) सृष्टयः । = Creation. (इषे) इच्छायें । = For desire.
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