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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 23/ मन्त्र 11
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    नू ष्टु॒त इ॑न्द्र॒ नू गृ॑णा॒न इषं॑ जरि॒त्रे न॒द्यो॒३॒॑ न पी॑पेः। अका॑रि ते हरिवो॒ ब्रह्म॒ नव्यं॑ धि॒या स्या॑म र॒थ्यः॑ सदा॒साः ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । स्तु॒तः । इ॒न्द्र॒ । नु । गृ॒णा॒नः । इष॑म् । ज॒रि॒त्रे । न॒द्यः॑ । न । पी॒पे॒रिति॑ पीपेः । अका॑रि । ते॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । ब्रह्म॑ । नव्य॑म् । धि॒या । स्या॒म॒ । र॒थ्यः॑ । सदा॒ऽसाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो३ न पीपेः। अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु। स्तुतः। इन्द्र। नु। गृणानः। इषम्। जरित्रे। नद्यः। न। पीपेरिति पीपेः। अकारि। ते। हरिऽवः। ब्रह्म। नव्यम्। धिया। स्याम। रथ्यः। सदाऽसाः ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 11
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः प्रशंसापरत्वेन पूर्वविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे हरिव इन्द्र ! यस्य ते नव्यम्ब्रह्म येनाऽकारि तस्मै जरित्रे स्तुतो नद्यो नेषं दत्वा नु पीपेः सत्यं गृणानो धर्म्मं प्रापय्य नु पीपेः यथा वयं धिया पुरुषार्थेन रथ्यः सदासाः स्याम तथा त्वं भव ॥११॥

    पदार्थः

    (नु) (स्तुतः) सत्याचारेण प्रशंसितः (इन्द्र) सत्यैश्वर्य्यप्रद (नु) (गृणानः) सत्याचारं स्तुवन् (इषम्) विज्ञानम् (जरित्रे) विद्यामिच्छुकाय (नद्यः) (न) इव (पीपेः) (अकारि) (ते) (हरिवः) (ब्रह्म) बृहद्विद्याधनम् (नव्यम्) (धिया) प्रज्ञया (स्याम) (रथ्यः) (सदासाः) ॥११॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये यथा युष्मासु धर्म्यां नीतिं स्थापयेयुस्तेषां सेवां कृत्वा सखायो भूत्वा सर्वा विद्या विजानीतेति ॥११॥ अत्र प्रश्नोत्तरमैत्रीशत्रुनिवारणसेनोन्नतिसत्याचारोत्कर्षवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥११॥ इति त्रयोविंशतितमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर प्रशंसापरत्व से पूर्व विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (हरिवः) बहुत धनयुक्त (इन्द्र) सत्य ऐश्वर्य्य के देनेवाले जिस (ते) आपका (नव्यम्) नवीन (ब्रह्म) बड़ा विद्यारूप धन जिसने (अकारि) किया उस (जरित्रे) विद्या की इच्छा करनेवाले के लिये (स्तुतः) सत्य आचरण से प्रशंसित (नद्यः) नदियों के (न) सदृश (इषम्) विज्ञान को देकर (नु) शीघ्र (पीपेः) पालन करे और सत्य का (गृणानः) प्रचार करता हुआ धर्म्म को प्राप्त कराय के (नु) निश्चय पालन करो और जैसे हम लोग (धिया) बुद्धि से और पुरुषार्थ से (रथ्यः) रथयुक्त और (सदासाः) दासों के सहित वर्त्तमान (स्याम) होवें, वैसे आप हूजिये ॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो जैसे आप लोगों में धर्म्मयुक्त नीति का स्थापन करें, उनकी सेवा करके मित्र हो के सम्पूर्ण विद्याओं को जानिये ॥११॥ इस सूक्त में प्रश्न उत्तर मैत्री शत्रुओं का निवारण सेना की उन्नति और सत्य आचरण की उत्तमता का वर्णन करने से इस के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥११॥ यह तेईसवाँ सूक्त और दशमा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    स्तुत: गृणान:

    पदार्थ

    मन्त्र की व्याख्या २२.११ पर द्रष्टव्य है । सूक्त का भाव यही है कि वसुओं को प्राप्त कराते हैं' इस वेदज्ञान हमारे जीवन को सुन्दर बनाता है। 'स्तुति किये प्रभु सब भाव से अगले सूक्त का प्रारम्भ होता है -

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    विषय

    ऋत का महत्व ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो पूर्वसूक्त ॥ इति दशमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १–७, ११ इन्द्रः । ८, १० इन्द्र ऋतदेवो वा देवता॥ छन्द:– १, २, ३, ७, ८, ६,२ त्रिष्टुप् । ४, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ६ भुरिक् पंक्ति: । ११ निचृत्पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे तुमच्यामध्ये धर्मयुक्त नीती प्रस्थापित करतात त्यांची सेवा करून मित्र बनून संपूर्ण विद्या जाणा. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, world ruler, omnipotent lord of universal truth and abundance, thus praised and worshipped, bear and bring food, energy, and the sustaining power of life for the celebrant in abundance like the rivers overflowing with life giving waters. This new song of homage and fragrant yajna is offered in worship, O lord of the universal dynamics of nature, in hope with prayer that with vision and intelligence we may be masters of the chariot and dedicated workers in your service of the law of truth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The truthful conduct is admired.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! having many assistants and being praised on account of true conduct, make you grow like the water of the river. It gives you great wealth or wisdom. Impart knowledge only to him who is keen to acquire it, always admires truthful conduct and leads people towards Dharma or righteousness. Be like us, who with our attendants are masters of the chariot (of body) with the help of the intellect and industriousness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you serve those who establish a righteous policy, and be friendly to them who acquire the knowledge of all sciences.

    Foot Notes

    (जरित्रे) विद्यामिच्छुकाय । = For the one, who is keen to acquire knowledge. (इषम् ) विज्ञानम् । = Special knowledge. (ब्रह्म) बृहद्विद्याधनम् । = Great wealth of wisdom.

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