ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
य॒दार॒मक्र॑न्नृ॒भवः॑ पि॒तृभ्यां॒ परि॑विष्टी वे॒षणा॑ दं॒सना॑भिः। आदिद्दे॒वाना॒मुप॑ स॒ख्यमा॑य॒न्धीरा॑सः पु॒ष्टिम॑वहन्म॒नायै॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठय॒दा । अर॑म् । अक्र॑न् । ऋ॒भवः॑ । पि॒तृऽभ्या॑म् । परि॑ऽविष्टी । वे॒षणा॑ । दं॒सना॑भिः । आत् । इत् । दे॒वाना॑म् । उप॑ । स॒ख्यम् । आ॒य॒न् । धीरा॑सः । पु॒ष्टिम् । अ॒व॒ह॒न् । म॒नायै॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदारमक्रन्नृभवः पितृभ्यां परिविष्टी वेषणा दंसनाभिः। आदिद्देवानामुप सख्यमायन्धीरासः पुष्टिमवहन्मनायै ॥२॥
स्वर रहित पद पाठयदा। अरम्। अक्रन्। ऋभवः। पितृऽभ्याम्। परिऽविष्टी। वेषणा। दंसनाभिः। आत्। इत्। देवानाम्। उप। सख्यम्। आयन्। धीरासः। पुष्टिम्। अवहन्। मनायै ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मातापित्रादिशिक्षाविषयमाह ॥
अन्वयः
ऋभवो यदा पितृभ्यां परिविष्टी वेषणा दंसनाभिर्देवानां सख्यमरमक्रन्नादित्ते धीरासो मनायै बुद्धिमुपायन् पुष्टिमवहन् ॥२॥
पदार्थः
(यदा) (अरम्) अलम् (अक्रन्) कुर्वन्ति (ऋभवः) प्राज्ञाः (पितृभ्याम्) विद्वद्भ्यां जननीजनकाभ्याम् (परिविष्टी) सर्वतो विद्या व्याप्नोति यया तया क्रियया (वेषणा) व्याप्तेन पदार्थेन (दंसनाभिः) उत्तमैः कर्मभिः (आत्) (इत्) एव (देवानाम्) विदुषाम् (उप) (सख्यम्) मित्रभावम् (आयन्) प्राप्नुवन्ति (धीरासः) योगयुक्ता ध्यानवन्तः (पुष्टिम्) सर्वाऽवयवदृढत्वम् (अवहन्) प्राप्नुवन्ति (मनायै) मन्तव्यायै विद्यायै ॥२॥
भावार्थः
ये मनुष्या बाल्यावस्थायामापञ्चमाद् वर्षान्मातृशिक्षामाष्टात् संवत्सरात् पितृशिक्षामष्टाचत्वारिंशाद् वर्षादाचार्य्यशिक्षां च गृह्णन्ति त एव विद्वांसो मेधाविनो धार्मिका चिरञ्जीविनो जगत्कल्याणकरा भवन्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब माता पिता आदि के शिक्षा विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(ऋभवः) बुद्धिमान् जन (यदा) जब (पितृभ्याम्) विद्वान् माता और पिता से (परिविष्टी) सब प्रकार विद्या को व्याप्त होता जिससे उस क्रिया और (वेषणा) व्याप्त पदार्थ से तथा (दंसनाभिः) उत्तम कर्मों से (देवानाम्) विद्वानों के (सख्यम्) मित्रपन को (अरम्) पूरा (अक्रन्) करते हैं (आत्, इत्) तभी वे (धीरासः) योग से युक्त ध्यानवाले (मनायै) मानने योग्य विद्या के लिये बुद्धि को (उप, आयन्) प्राप्त होते और (पुष्टिम्) सम्पूर्ण अवयवों की पुष्टि को (अवहन्) प्राप्त होते हैं ॥२॥
भावार्थ
जो मनुष्य बाल्यावस्था में पाँचवें वर्ष से माता की शिक्षा और आठवें वर्ष से लेकर पिता की शिक्षा को और अड़तालीस वर्ष पर्य्यन्त आचार्य्य की शिक्षा को ग्रहण करते हैं, वे ही विद्वान्, बुद्धिमान्, धार्मिक, बहुत काल पर्य्यन्त जीवने और संसार के कल्याण करनेवाले होते हैं ॥२॥
विषय
सशक्त शरीर, दीप्त मस्तिष्क व प्रशस्त मन
पदार्थ
[१] (यदा) = जब (ऋभवः) = 'ऋभु, विभ्वा और वाज' [ज्ञानदीप्त, विशाल हृदय सशक्त पुरुष ] (पितृभ्याम्) = द्यावापृथिवी के लिए मस्तिष्क व शरीर के लिए, (परिविष्टी) = परिचर्या के द्वारा बड़ों की सेवा के द्वारा, (वेषणा) = [विष् to go against, to encounter] वासनाओं पर आक्रमण के द्वारा तथा (दंसनाभिः) = यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहने के द्वारा (अरं अक्रन्) = पूर्ण पुरुषार्थ करते हैं, अर्थात् जब बड़ों के आदर आदि के द्वारा शरीर व मस्तिष्क दोनों को ही सशक्त व दीप्त बनाते हैं, तो (आत् इत्) = शीघ्र ही ये ऋभु (देवानाम्) = देवों के (सख्यम्) = मित्रत्व को (उप आयन्) = समीपता से प्राप्त होते हैं। देव बनने के लिए आवश्यक है कि हम शारीरिक व बौद्धिक उन्नतियों को करके ब्रह्म व क्षत्र का विकास करनेवाले बनें। [२] ये (धीरास:) = धीर पुरुष (मनायै) = प्रशस्त-मनस्कता के लिए (पुष्टिं अवहन्) = पुष्टि को धारण करते हैं। निर्बलता मन की भी अप्रशस्तता का कारण बनती है।
भावार्थ
भावार्थ- ऋभु, शरीर व मस्तिष्क को सशक्त व ज्ञानदीप्त बनाकर मन को प्रशस्त बनाते हैं।
विषय
वाज, विम्वा ऋभु, इन का रहस्य ।
भावार्थ
(ऋभवः) सत्य ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होने वाले विद्वान् जन (यदा) जब (पितृभ्याम्) माता और पिता से उनकी (परिविष्टी) परिचर्या और (वेषणा) विद्या प्राप्ति की साधना, और (दंसनाभिः) उत्तम कर्मों द्वारा (अरम्) बहुत अधिक (अक्रन्) परिश्रम करते हैं (आत् इत्) तभी वे (देवानाम्) विद्वान्, विद्या आदिदाता गुरु जनों के (सख्यम्) मित्रभाव को प्राप्त करते हैं और वे (धीरासः) बुद्धिमान्, ध्यान धारणा वाले होकर (मनायै) मनन करने योग्य विद्या की (पुष्टिम्) वृद्धि को (अवहन्) धारण करते हैं । (२) अध्यात्म में—‘ऋभु’ प्राण हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ ऋभवो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ११ त्रिष्टुप् । ३, ६, १० निचृत्त्रिष्टुप। ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । ९ स्वराट् पंक्तिः॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे बाल्यावस्थेमध्ये पाचव्या वर्षांपर्यंत आईकडून शिक्षण घेतात, आठव्या वर्षांपर्यंत वडिलांकडून व अठ्ठेचाळीस वर्षांपर्यंत आचार्यांकडून शिक्षण ग्रहण करतात तेच विद्वान, बुद्धिमान, धार्मिक, दीर्घायू बनून जगाचे कल्याण करणारे असतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When the Rbhus, sages and scientists, through service and action, receive instruction from parents and teachers, and have done enough to their own satisfaction and satisfaction of the seniors, they graduate to join the fraternity of the enlightened, and then, constant in study and meditation, bring about maturity and fullness of mind and spirit for independent work.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The parents should arrange education for their children.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The wise men receive all sorts of education from their parents. Because of this education and its essence ingrained in the mind along with ideal action, they prove worthy of the friendship of the scholars. Thereafter, they attain wisdom, which originates from Yogic exercises and become acceptable. All the parts and organs of the body get adequate strength because of the Yogic exercises.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons who receive education at the age of five from their mothers and at the age of eighth from their fathers and later on from their teachers up to the age of forty-eight, they become very learned wise and religious and in order to deliver good to the mankind they live pretty long life.
Foot Notes
(अरम् ) अलम् । = Achieve. (पितृभ्याम्) विद्वद्भ्यांजनीजनकाभ्याम् = From the learned parents-mothers and fathers. (परिविष्टी ) सर्वतो विद्याव्याप्नोति यया तया क्रियया । = Attaining full knowledge. (दंसनाभिः) उत्तमैः कर्मभिः । = With ideal actions. (संख्यम्) मित्रभावम् Friendship. (आयन् ) प्राप्नुवन्ति । = Get. (धीरासः) योगयुक्ता । ध्यानवन्तः । = Constructors because of Yogic exercises. (पुष्टिम् ) सर्वाऽवयवदृढत्वम् । = Adequate strength in the parts of the body. (मनाये) मन्तव्यायै विद्यायै । = To the wisdom.
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