ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 9
अपो॒ ह्ये॑षा॒मजु॑षन्त दे॒वा अ॒भि क्रत्वा॒ मन॑सा॒ दीध्या॑नाः। वाजो॑ दे॒वाना॑मभवत्सु॒कर्मेन्द्र॑स्य ऋभु॒क्षा वरु॑णस्य॒ विभ्वा॑ ॥९॥
स्वर सहित पद पाठअपः॑ । हि । ए॒षा॒म् । अजु॑षन्त । दे॒वाः । अ॒भि । क्रत्वा॑ । मन॑सा । दीध्या॑नाः । वाजः॑ । दे॒वाना॑म् । अ॒भ॒व॒त् । सु॒ऽकर्मा॑ । इन्द्र॑स्य । ऋ॒भु॒क्षाः । वरु॑णस्य । विऽभ्वा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपो ह्येषामजुषन्त देवा अभि क्रत्वा मनसा दीध्यानाः। वाजो देवानामभवत्सुकर्मेन्द्रस्य ऋभुक्षा वरुणस्य विभ्वा ॥९॥
स्वर रहित पद पाठअपः। हि। एषाम्। अजुषन्त। देवाः। अभि। क्रत्वा। मनसा। दीध्यानाः। वाजः। देवानाम्। अभवत्। सुऽकर्मा। इन्द्रस्य। ऋभुक्षाः। वरुणस्य। विऽभ्वा ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
ये क्रत्वा मनसा दीध्याना देवा ह्येषां पदार्थानां कार्य्यसिद्ध्यर्थमपोऽभ्यजुषन्त सुकर्मा देवानामिन्द्रस्य वरुणस्य विभ्वा वाजो देवानां मध्य ऋभुक्षा अभवत् ते स च श्रीमन्तो जायन्ते ॥९॥
पदार्थः
(अपः) विमानादिनिर्माणसाधकं कर्म (हि) यतः (एषाम्) (अजुषन्त) जुषन्ते (देवाः) विद्वांसः (अभि) (क्रत्वा) प्रज्ञया (मनसा) विज्ञानेन (दीध्यानाः) देदीप्यमानाः (वाजः) अन्नादि (देवानाम्) विदुषाम् (अभवत्) भवति (सुकर्मा) शोभनानि कर्माणि यस्य सः (इन्द्रस्य) विद्युदादेः (ऋभुक्षाः) महान्। ऋभुक्षा इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) (वरुणस्य) जलादेः (विभ्वा) व्याप्त्या ॥९॥
भावार्थः
ये मनुष्या इह सृष्टिस्थानां पदार्थानां सुपरीक्षया संयोगविभागाभ्यां श्रेष्ठान् पदार्थान् कर्माणि च निष्पादयन्ति ते विद्वद्वरा धनाढ्यतमाश्च जायन्ते ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (क्रत्वा) बुद्धि और (मनसा) विज्ञान से (दीध्यानाः) प्रकाशमान (देवाः) विद्वान् जन (हि) जिस कारण (एषाम्) इन पदार्थों को कार्य्यसिद्धि के लिये (अपः) विमान आदि के बनाने में साधक कर्म का (अभि, अजुषन्त) सब प्रकार सेवन करते हैं और (सुकर्मा) उत्तम कर्म करनेवाला (देवानाम्) विद्वानों (इन्द्रस्य) बिजुली आदि और (वरुणस्य) जल आदि की (विभ्वा) व्याप्ति से (वाजः) अन्न, आदि विद्वानों के मध्य में (ऋभुक्षाः) बड़ा (अभवत्) होता है, वे और वह श्रीमान् होते हैं ॥९॥
भावार्थ
जो मनुष्य इस संसार में सृष्टिस्थ पदार्थों की उत्तम परीक्षा से संयोग और विभाग के द्वारा श्रेष्ठ पदार्थ और कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वे विद्वानों में श्रेष्ठ और अत्यन्त धनी होते हैं ॥९॥
विषय
'वाज' देवों का, 'ऋभुक्षा' इन्द्र का, 'विभ्वा' वरुण का
पदार्थ
[१] (हि) = निश्चय से (एषाम्) = इन ऋभुओं के (देवा:) = इन्द्रियरूपेण शरीरस्थ देव (अपः) = अपने अपने कर्मों का (अजुषन्त) = प्रीतिपूर्वक सेवन करते हैं। ऋभु लोग ज्ञानेन्द्रियों द्वारा 'सब विषयों का निरूपण करनेवाली' वेदवाणी का सेवन करते हैं और कर्मेन्द्रियों द्वारा इस वेदवाणी से प्रेरणा दिये गये यज्ञों को करनेवाले बनते हैं। [२] इस प्रकार ये ऋभु (क्रत्वा) = यज्ञादि कर्मों से तथा (मनसा) = मनन व ज्ञान से (अभिदीध्याना:) = कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों में उभयत्र दीप्त बनते हैं। [३] (सुकर्मा) = उत्तम कर्मों का करनेवाला (वाजः) = यह शक्ति सम्पन्न पुरुष (देवानां अभवत्) = देवों का होता है-सब देवों का यह सम्बन्धी बनता है इसमें सब दिव्य गुणों का विकास होता है। (ऋभुक्षाः) = उत्कृष्ट ज्योति में निवास करनेवाला ऋभु (इन्द्रस्य) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का होता है। ज्ञानी तो प्रभु को आत्मतुल्य ही प्रतीत होता है। 'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्'। और उदार विशाल हृदयवाला 'विभ्वा' (वरुणस्य) = वरुण का होता है। वरुण 'पाशी' हैं। यह वरुण का बनकर अपने को व्रतों के पाशों में बाँधनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- ऋभु सदा इन्द्रियों से यथोचित्त कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं। ये कर्मों व ज्ञानों से दीप्त होते हैं। शक्तिशाली बनकर दिव्यगुणों को अपनाते हैं। ज्ञानी बनकर प्रभु के प्रिय होते हैं। विशाल व पवित्र हृदयवाले बने रहने के लिए सदा अपने को व्रतों के बन्धन में बाँधते हैं।
विषय
उत्तम शिष्यों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(देवः) दानशील, धनादि देने वाले पुरुष (क्रत्वा) कर्म और (मनसा) ज्ञान से ( दीध्यानः) चमकते हुए (एषाम् ) इन शिल्पी आदि विद्वानों के (अपः) कर्मों को (अभि अजुषन्त) प्रेमपूर्वक स्वीकार करें । (वाजः) बलवान्, ऐश्वर्यवान् और अन्नादिसमृद्ध (सुकर्मा) उत्तम कर्मकुशल पुरुष (देवानाम्) इनकी कामना करने वाले विद्वानों वा प्रजाओं के पालन में (अभवत्) समर्थ हो । और (ऋभुक्षाः) महान् तेजस्वी होकर रहने वाला पुरुष (इन्द्रस्य) शत्रुहन्ता सेनापति वा राजा के पद पर स्थित हो । (विभ्वा) व्यापक शक्ति, विशेष सामर्थ्य से युक्त पुरुष (वरुणस्य) सर्वश्रेष्ठ और दुष्टों के वारण करने के पद पर नियुक्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ ऋभवो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ११ त्रिष्टुप् । ३, ६, १० निचृत्त्रिष्टुप। ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । ९ स्वराट् पंक्तिः॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे या जगात सृष्टीतील पदार्थांची उत्तम परीक्षा करून संयोग व विभाग याद्वारे श्रेष्ठ पदार्थ आणि कार्य सिद्ध करतात ती विद्वानात श्रेष्ठ व अत्यंत श्रीमंत होतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The wonderful acts and products of these Rbhus, exceptional scientists, later, the younger intellectuals, themselves brilliant with their mind and work, honour and apply for further development: thus the food and energy becomes the favourite input for the ‘devas’, following researchers, for higher outputs of finer food and energy, the powerful thunderbolt becomes the arm for Indra, ruler and defender, and the extensive waves of subtle transmission become the perceptive and active agencies of Varuna, the presiding power.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities of good persons are re-stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The intelligent men accomplish their objectives like manufacturing of aircrafts etc. and apply their technical intelligence and scientific knowledge in full measures. Such a man who always performs rightly, generates hydroelectric power for the benefit of learned persons. With it, he produces more food grains and is accepted as a great man among the learned. Consequently, he becomes prosperous.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The person who analyses all the substances scientifically by the process of the combination and diffusion, they succeed in manufacturing nice goods and perform their obligations. Such people are regarded excellent and prosperous among the learned persons.
Foot Notes
(अप:) विमानादिनिर्माणसाधकं कर्म । = Manufacture of aircrafts etc. (ऋत्वा) प्रज्ञया । = With intelligence. (मनसा ) विज्ञानेन । = With scientific knowledge. (इन्द्रस्य) विद्युदादे:। = Of the hydro electric power. (ऋभुक्षा:) महान् । ऋभुक्षा इति महन्नाम (NG 3, 13) = The uphill or great.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal