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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
    ऋषिः - बन्धुः सुबन्धुः श्रुतबन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपयाना लौपयाना वा देवता - अग्निः छन्दः - पूर्वार्द्धस्योत्तरार्द्धस्य च भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    स हि स॒त्यो यं पूर्वे॑ चिद्दे॒वास॑श्चि॒द्यमी॑धि॒रे। होता॑रं म॒न्द्रजि॑ह्व॒मित्सु॑दी॒तिभि॑र्वि॒भाव॑सुम् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । हि । स॒त्यः । यम् । पूर्वे॑ । चित् । दे॒वासः॑ । चि॒त् । यम् । ई॒धि॒रे । होता॑रम् । म॒न्द्रऽजि॑ह्वम् । इत् । सु॒दी॒तिऽभिः॑ । वि॒भाऽव॑सुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स हि सत्यो यं पूर्वे चिद्देवासश्चिद्यमीधिरे। होतारं मन्द्रजिह्वमित्सुदीतिभिर्विभावसुम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। हि। सत्यः। यम्। पूर्वे। चित्। देवासः। चित्। यम्। ईधिरे। होतारम्। मन्द्रजिह्वम्। इत्। सुदीतिऽभिः। विभावसुम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 25; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्निदृष्टान्तेन राजविषयमाह ॥

    अन्वयः

    पूर्वे देवासो यं होतारं मन्द्रजिह्वं सुदीतिभिस्सह वर्त्तमानं चिद् विभावसुमग्निमिव वर्त्तमानं यं राजानं चिदिदीधिरे स हि सत्यो राज्यं कर्त्तुमर्हति ॥२॥

    पदार्थः

    (सः) (हि) (सत्यः) सत्सु साधुः (यम्) (पूर्वे) प्राचीनाः (चित्) अपि (देवासः) विद्वांसः (चित्) (यम्) (ईधिरे) प्रदीपयन्ति (होतारम्) दातारम् (मन्द्रजिह्वम्) मन्द्रा प्रशंसनीया जिह्वा यस्य तम् (इत्) एव (सुदीतिभिः) सुष्ठु दीप्तिभिस्सहितम् (विभावसुम्) प्रकाशयुक्तं वसु धनं यस्य तम् ॥२॥

    भावार्थः

    यं राजानमाप्ताः सत्कुर्युः स एव सततं राज्यं रक्षितुं वर्धितुं योग्यः स्यात् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अग्निदृष्टान्त से राजविषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (पूर्वे) प्राचीन (देवासः) विद्वान् जन (यम्) जिस (होतारम्) देनेवाले (मन्द्रजिह्वम्) प्रशंसनीय जिह्वा से युक्त (सुदीतिभिः) उत्तम प्रकाशों के सहित वर्त्तमान को (चित्) और (विभावसुम्) प्रकाशित धन से युक्त अग्नि के सदृश वर्त्तमान (यम्) जिस राजा को (चित्) निश्चय से (इत्) ही (ईधिरे) प्रकाशित करते हैं (सः, हि) वही (सत्यः) सज्जनों में श्रेष्ठ पुरुष राज्य करने को योग्य है ॥२॥

    भावार्थ

    जिस राजा का यथार्थवक्ता जन सत्कार करें, वही निरन्तर राज्य की रक्षा और वृद्धि करने को योग्य हो ॥२॥

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    विषय

    प्रभु परमेश्वर ओर राजा वा नायक से प्रजाओं की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    भा०- ( देवासः चित् ईधिरे सः सत्यः ) जिस प्रकार किरणगण सूर्य को अति प्रदीप्त करते हैं और वह सदा सत्य है इसी प्रकार ( पूर्वे देवासः ) पूर्व के तेजस्वी, विद्वान्गण और ( देवासः ) सूर्यादि लोक भी (यम्) जिसको ( ईधिरे ) बतलाते और प्रकाशित करते हैं ( सः हि सत्यः ) वह हीं निश्चय से सत्यस्वरूप, सर्वं सत्पदार्थों में व्यापक, उनका आश्रय, सत् पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ है । उस (होतारम् ) सर्वदाता (मन्द्र-जिह्वम् ) आनन्दप्रद वाणी के बोलने हारे, ( सु-दीतिभिः) उत्तम दीप्तियों से युक्त ( विभाव-सुम् ) उत्तम कान्ति युक्त ऐश्वर्य के स्वामी को समस्त देव, विद्वान्, विजयेच्छुक धनार्थी और ज्ञानार्थीजन ( ईधिरे ) प्रकाशित करते हैं । उसका गुण वर्णन करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसूयव आत्रेया ऋषयः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १,८ निचृदनुष्टुप । २,५,६,९ अनुष्टुप्, । ३, ७ विराडनुष्टुप् । ४ भुरिगुष्णिक् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'होता-मन्द्रजिह्व-विभावसु'

    पदार्थ

    १. (सः) = वे प्रभु (हि) = ही (सत्यः) = सत्यस्वरूप हैं, (यम्) = जिनको (पूर्वे) = अपना पालन व पूरक करनेवाले लोग (चित्) = ही (ईधिरे) = अपने हृदयों में दीप्त करते हैं। (यम्) = जिनको (देवासः) = देववृत्तिवाले लोग-ज्ञान से अपने हृदयों को प्रकाशमय बनानेवाले लोग-(चित्) = ही अपने में समिद्ध करते हैं। २. उस परमात्मा को ये पूर्व तथा देव समिद्ध करते हैं, जोकि (होतारम्) = सब-कुछ देनेवाले हैं (मन्द्रजिह्वम्) [मंदनजिह्वं, मोदमानजिह्वं वा नि० ६.२३] = प्रशंसनीय व आनन्दप्रद वाणीवाले हैं-जिनसे उच्चरित वेदज्ञान स्तुत्य व सुखद है। (इत्) = निश्चय से (सुदीतिभिः) = उत्तम ज्ञानदीप्तियों से (विभावसुम्) = ज्ञानधनवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपना पालन व पूरण करते हुए देववृत्तिवाले बनकर हृदयों में प्रभु के प्रकाश को देखने का प्रयत्न करें। वे प्रभु 'होता-मन्द्रजिह्व व विभावसु' हैं। हमारे लिए भी वे प्रशंसनीय आनन्दप्रद ज्ञानधन को प्राप्त कराएँगे ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या राजाचा आप्त विद्वान लोक सत्कार करतात तोच सतत राज्याचे रक्षण व वृद्धी करण्यायोग्य असतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That alone is true, unquestionable and inviolable whom the seniors and brilliant sages kindle and install on the vedi, the leader and ruler, liberal giver and host of yajna, sweet and serious of tongue and commander of wealth and splendour by virtue of his innate light and flames of holy fire.$(Swami Dayananda applies this mantra to the choice and investiture of a ruler.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the duties of Agni (ruler) are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That truthful and noble king alone is fit to rule whom even the old (experienced) scholars enkindle or enlighten, because he is a liberal donor, sweet-tongued, and endowed with glorious wealth and holy splendor.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That king alone is able to protect the people and make the state prosperous who is honored on account of his virtues accepted even by absolutely truthful enlightened person.

    Foot Notes

    (सुदीतिभिः) सुष्ठु दीप्तिभिस्स हितम् । सु +दीप्तिभि: वर्णलोप:। = Endowed with holy splendors. ( विभावसुम् ) प्रकाशयुक्त वसु धनं यस्य तम् । वि + भा + वसु भा दीप्तौ (अदा) । = Possessor of glorious wealth.

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