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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 25/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वसुयव आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यद्वाहि॑ष्ठं॒ तद॒ग्नये॑ बृ॒हद॑र्च विभावसो। महि॑षीव॒ त्वद्र॒यिस्त्वद्वाजा॒ उदी॑रते ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । वाहि॑ष्ठम् । तत् । अ॒ग्नये॑ । बृ॒हत् । अ॒र्च॒ । वि॒भा॒व॒सो॒ इति॑ विभाऽवसो । महि॑षीऽइव । त्वत् । र॒यिः । त्वत् । वाजाः॑ । उत् । ई॒रते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वाहिष्ठं तदग्नये बृहदर्च विभावसो। महिषीव त्वद्रयिस्त्वद्वाजा उदीरते ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। वाहिष्ठम्। तत्। अग्नये। बृहत्। अर्च। विभावसो इति विभाऽवसो। महिषीऽइव। त्वत्। रयिः। त्वत्। वाजाः। उत्। ईरते ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 25; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्निपदवाच्यराजदृष्टान्तेन विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विभावसो ! यद्यं वाहिष्ठमग्नये बृहदर्च तत्तम्महिषीव सेवस्व यस्त्वद्रयिस्त्वद् वाजा उदीरते तान् वयं लभेमहि ॥७॥

    पदार्थः

    (यत्) यम् (वाहिष्ठम्) अतिशयेन वोढारम् (तत्) तम् (अग्नये) राज्ञे (बृहत्) (अर्च) सत्कुरु (विभावसो) स्वप्रकाश (महिषीव) ज्येष्ठा राज्ञीव (त्वत्) (रयिः) धनम् (त्वत्) (वाजाः) अन्नाद्याः (उत्) (ईरते) उत्कृष्टतया जायन्ते ॥७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । यथा पतिव्रता राज्ञी स्वपतिं सततं सत्करोति तस्माज्जातं पुष्कलसुखं लभते तथैव मनुष्या विदुषः संसेव्य तेभ्यो जातां प्रज्ञां प्राप्य सततं सुखयन्तु ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अग्निपदवाच्य राजदृष्टान्त से विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (विभावसो) स्वयं प्रकाशित ! (यत्) जिस (वाहिष्ठम्) अतिशय प्राप्त करनेवाले का (अग्नये) राजा के लिये (बृहत्) बड़ा (अर्च) सत्कार करो (तत्) उसकी (महिषीव) बड़ी अर्थात् पटरानी के सदृश सेवा करो और जो (त्वत्) आपसे (रयिः) धन और (त्वत्) आपसे (वाजाः) अन्न आदि (उत्, ईरते) उत्तमता से उत्पन्न होते हैं, उनको हम लोग प्राप्त होवें ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पतिव्रता रानी अपने पति का निरन्तर सत्कार करती और उससे उत्पन्न हुए अत्यन्त सुख को प्राप्त होती है, वैसे ही मनुष्य विद्वानों का आदर करके उनसे उत्पन्न हुई अर्थात् उनके सम्बन्ध से प्रकट हुई बुद्धि को प्राप्त होकर निरन्तर सुखी हो ॥७॥

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    विषय

    जिम्मेवारी का 'अग्नि' पद ।

    भावार्थ

    भा०—( यद् ) जो भी ( वाहिष्टम् ) सबसे अधिक उत्तरदायित्व को अपने कन्धों पर उठाने वाला पद है ( तत् ) वह सम्मान पदा (अग्नये) अग्नि के तुल्य तेजस्वी नायक को प्रदान किया जाता है । इस लिये हे ( विभावसो) विविध कान्तियों को अपने में ऐश्वर्यवत् धारण करने वाले तेजस्वी पुरुष ! तू ( बृहद्-अर्च ) बड़ा भारी आदर सत्कार प्राप्त कर । (महिषी इव ) रानी के तुल्य ही ( त्वत् ) तुझ से ( रयिः) सुख देने वाला धनैश्वर्यं ( उत् ईरते ) उत्पन्न होता, ( वाजाः ) समस्त बल सैन्यादि भी (त्वत्) तुझ से ही ( उत् ईरते ) उत्पन्न होते और तेरे ही उपभोग में आते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसूयव आत्रेया ऋषयः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १,८ निचृदनुष्टुप । २,५,६,९ अनुष्टुप्, । ३, ७ विराडनुष्टुप् । ४ भुरिगुष्णिक् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभुपूजन व दान

    पदार्थ

    १. (यद् वाहिष्ठम्) = जो भी वस्तु वाहिष्ठ हो- वो दृढ़तम हो- हमें लक्ष्य स्थान पर पहुँचाने के लिए उत्तम हो- (तद्) = उसे (अग्नये) = उस प्रभु के लिए अर्पित करो। हमारे में 'शक्ति धन व ज्ञान' जो भी कुछ उत्कृष्ट रूप में हो, उसे प्रभु के अर्पित करना चाहिए - उसे प्रभुकृपा से प्राप्त समझना चाहिए – उसका गर्व न करना चाहिए । हे (विभावसो) = ज्ञान को धन समझनेवाले उपासक ! तू इस प्रकार वाहिष्ठ वस्तु को प्रभु के अर्पण करता हुआ (बृहद् अर्च) = खूब ही प्रभु का पूजन करनेवाला हो । वस्तुतः प्रभु पूजन यही है कि सब जयों को प्रभु की विजय समझना और उसका अहंकार न करना। २. (महिषी इव) = महिषी की तरह – एक पूजा की वृत्तिवाली गृहपत्नी की तरह (त्वद् रयि) = तेरे से धन (उदीरते) = उद्गत होता है, (त्वद् वाजा:) = तेरे से सब अन्न उद्गत होते हैं। जैसे एक उत्तम गृहपत्नी सबको खिलाकर स्वयं खाती है - आये गये व्यक्तियों के लिए दान देनेवाली होती है, उसी प्रकार विभावसु भी औरों को खिलाकर खानेवाला व दान देनेवाला बनता है। यह सदा यज्ञशेष का सेवन करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञानधन व्यक्ति सब विजयों को प्रभु के अर्पण करता है। खूब ही अन्नों व धनों का देनेवाला बनता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी पतिव्रता राणी आपल्या पतीचा निरंतर सत्कार करते व त्यापासून अत्यंत सुख प्राप्त करते तसाच माणसांनी विद्वानांचा आदर करून त्यांच्या संगतीने उत्पन्न झालेल्या बुद्धिमुळे निरंतर सुखी व्हावे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The fastest transport, fastest communication, lightning adoration is for Agni, lord of light and power. Shine high and wide and intense, blazing power, and as all greatness and grandeur flows from you, so do all wealth, all energy and all victories flow from you.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Agni (a learned person or a ruler) are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O full of splendor ! like a honor and serve like the queen, for the pleasure of the king. A person who confers much happiness upon the ruler, we may also attain that wealth and the food materials which reach from you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a chaste queen constantly serves her husband and gets abundant happiness from him, in the same manner, men having served the enlightened persons and acquire good intellect from them. They also make others happy ceaselessly.

    Foot Notes

    (वाहिष्ठम् ) अतिशयेन वोढारम् । वह प्रापणे (भ्वा० )। = Conveyer of much happiness. (महिषीव ) ज्येष्ठा राज्ञीव । मह-पूजायाम् (भ्वा० ) अविमह्योष्टि षच् (उणादिकोषे १,४५ ) । = Like a venerable principal queen.

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