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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 55/ मन्त्र 4
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    आ॒भू॒षेण्यं॑ वो मरुतो महित्व॒नं दि॑द्द॒क्षेण्यं॒ सूर्य॑स्येव॒ चक्ष॑णम्। उ॒तो अ॒स्माँ अ॑मृत॒त्वे द॑धातन॒ शुभं॑ या॒तामनु॒ रथा॑ अवृत्सत ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽभू॒षेण्य॑म् । वः॒ । म॒रु॒तः॒ । म॒हि॒ऽत्व॒नम् । दि॒दृ॒क्षेण्य॑म् । सूर्य॑स्यऽइव । चक्ष॑णम् । उ॒तो इति॑ । अ॒स्मान् । अ॒मृ॒त॒ऽत्वे । द॒धा॒त॒न॒ । शुभ॑म् । या॒ताम् । अनु॑ । रथाः॑ । अ॒वृ॒त्स॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आभूषेण्यं वो मरुतो महित्वनं दिद्दक्षेण्यं सूर्यस्येव चक्षणम्। उतो अस्माँ अमृतत्वे दधातन शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽभूषेण्यम्। वः। मरुतः। महिऽत्वनम्। दिदृक्षेण्यम्। सूर्यस्यऽइव। चक्षणम्। उतो इति। अस्मान्। अमृतऽत्वे। दधातन। शुभम्। याताम्। अनु। रथाः। अवृत्सत ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 55; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मरुतो ! येषां वस्सूर्य्यस्येवाऽऽभूषेण्यं दिदृक्षेण्यं चक्षणं महित्वनमस्ति येनोतो अस्मानमृतत्वे दधातन येषां शुभं यातां रथा अन्ववृत्सत तान् वयं सततं सत्कुर्य्याम ॥४॥

    पदार्थः

    (आभूषेण्यम्) अलङ्कर्त्तव्यम् (वः) युष्माकम् (मरुतः) प्राण इव प्रियाचरणाः (महित्वनम्) (दिदृक्षेण्यम्) द्रष्टुं योग्यम् (सूर्यस्येव) (चक्षणम्) प्रकाशनम् (उतो) अपि (अस्मान्) (अमृतत्वे) अमृतानां नाशरहितानां पदार्थानां भावे वर्त्तमाने (दधातन) (शुभम्) धर्म्यं मार्गम् (याताम्) गच्छताम् (अनु) (रथाः) (अवृत्सत) ॥४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये मनुष्याः सूर्य्यवन्न्यायप्रकाशका अन्यायान्धकारनिरोधका धर्मपथामनुगामिनः स्युस्तान् सदैव यूयं प्रशंसत ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) प्राण के सदृश प्रिय आचरण करनेवालो ! जिन (वः) आप लोगों का (सूर्य्यस्येव) सूर्य्य के सदृश (आभूषेण्यम्) शोभा करने और (दिदृक्षेण्यम्) देखने को योग्य (चक्षणम्) प्रकाश (महित्वनम्) और बड़प्पन है जिससे (उतो) निश्चित (अस्मान्) हम लोगों को (अमृतत्वे) नाशरहित पदार्थों के भाव अर्थात् नित्यपन के वर्त्तमान होने पर (दधातन) धारण कीजिये और जिन (शुभम्) धर्मयुक्त मार्ग को (याताम्) प्राप्त होते हुओं के (रथाः) वाहन (अनु, अवृत्सत) अनुकूल वर्त्तमान हैं, उनका हम लोग निरन्तर सत्कार करें ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो मनुष्य सूर्य्य के सदृश न्याय के प्रकाशक, अन्यायरूपी अन्धकार के रोकनेवाले, धर्ममार्ग के अनुगामी होवें, उनकी सदा ही आप लोग प्रशंसा करो ॥४॥

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    विषय

    मरुतों,वीरों का वर्णन उनके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( मरुतः ) विद्वान् पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों का ( महित्वनं ) महान् सामर्थ्यं ( आ-भूषेण्यम् ) आप लोगों को सब प्रकार से आभूषण के तुल्य शोभाजनक, एवं सर्वत्र, सब ओर कार्य करने में सामर्थ्यप्रद हो । और (वः चक्षणं) आप लोगों का वचन और ज्ञान दर्शन भी (दिद्दक्षेण्यम् ) दर्शनीय और सत्य ज्ञान का दर्शाने वाला, (सूर्यस्य इव चक्षणं ) सूर्य के प्रकाश के तुल्य सत्य हो । (उतो) और आप लोग प्राणों के समान प्रिय होकर ( अस्मान् ) हमें ( अमृतत्वे ) अमृत, नाशरहित, दीर्घायु युक्त परम जीवन एवं मोक्ष सुख में ( दधातन ) स्थापित करो ! ( शुभं याताम् ) सन्मार्ग पर जाने वाले आप लोगों के ( रथाः ) रमणीय आत्मा, रथ के तुल्य रस रूप आनन्दमय आत्मा ( अनु अवृत्सत ) निरन्तर सुखपूर्वक रहें और उन्नति की ओर बढ़े ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः । मरुतो देवताः ॥ छन्द:-१, ५ जगती । २, ४, ७, ८ निचृज्जगती । ९ विराड् जगती । ३ स्वराट् त्रिष्टुप । ६, १० निचृत् त्रिष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    आभूषेण्यं-दिदृक्षेण्यम्

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के वीर क्षत्रियों की तरह प्राण भी इस शरीर में [साकं जाता, साकं उक्षिताः] साथ-साथ ही उत्पन्न हुए हैं और साथ-साथ ही इनके द्वारा शरीर में वीर्य का सेचन हुआ है । हे (मरुतः) = प्राणो ! (वः) = आपकी (महित्वनम्) = महिमा (आभूषेण्यम्) = समन्तात् शरीर को शोभित करनेवाली [स्तुत्य] व शरीर में सामर्थ्य को पैदा करनेवाली है। आपके द्वारा प्राप्त कराया गया (चक्षणम्) = ज्ञानचक्षु सूर्यस्य इव सूर्य की तरह (दिदॄक्षेण्यम्) = दर्शन के योग्य है। प्राण शरीर में शक्ति का संचार करते हैं, तो मस्तिष्क में ज्ञान के सूर्य का उदय करते हैं। [२] (उत) = और (उ) = निश्चय से (अस्मान्) = हमें (अमृतत्वे) = अमृतत्व में, नीरोगता में दधातन धारण करो। प्राणशक्ति ही रोगों को उत्पन्न नहीं होने देती। हे प्राणो! (शुभं याताम्) = शुभ मार्ग की ओर चलते हुए आपके (रथाः) = ये शरीर-रथ (अनु अवृत्सत) = अनुकूल वर्तनवाले हों। अर्थात् यह शरीर-रथ ठीक रहता हुआ निरन्तर शुभ की ओर बढ़नेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राण शरीर को शक्ति सम्पन्न तथा मस्तिष्क को ज्ञान-सम्पन्न बनाते हैं। ये हमें नीरोगता प्राप्त कराते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्याच्या प्रकाशाप्रमाणे न्यायी, अन्याय अंधःकार निवारक, धर्म पथ अनुगामी असतात त्यांची तुम्ही सदैव प्रशंसा करा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Maruts, leading lights of life, graceful is your greatness and grandeur, radiant your form and conduct as light of the sun. With your light and grace, lead us to establish ourselves in the regions of immortality. Let the chariots roll on with the leading lights to the heights of goodness and grace.

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