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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 55/ मन्त्र 7
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    न पर्व॑ता॒ न न॒द्यो॑ वरन्त वो॒ यत्राचि॑ध्वं मरुतो॒ गच्छ॒थेदु॒ तत्। उ॒त द्यावा॑पृथि॒वी या॑थना॒ परि॒ शुभं॑ या॒तामनु॒ रथा॑ अवृत्सत ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । पर्व॑ताः । न । न॒द्यः॑ । व॒र॒न्त॒ । वः॒ । यत्र॑ । अचि॑ध्वम् । म॒रु॒तः॒ । गच्छ॑थ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । तत् । उ॒त । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । या॒थ॒न॒ । परि॑ । शुभ॑म् । या॒ताम् । अनु॑ । रथाः॑ । अ॒वृ॒त्स॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न पर्वता न नद्यो वरन्त वो यत्राचिध्वं मरुतो गच्छथेदु तत्। उत द्यावापृथिवी याथना परि शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। पर्वताः। न। नद्यः। वरन्त। वः। यत्र। अचिध्वम्। मरुतः। गच्छथ। इत्। ऊँ इति। तत्। उत। द्यावापृथिवी इति। याथन। परि। शुभम्। याताम्। अनु। रथाः। अवृत्सत ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 55; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मरुतो ! यूयं द्यावापृथिवी गच्छथेत्तदु परि याथना। उत यत्राऽचिध्वं यथा शुभं यातां रथान्ववृत्सत तत्रानुवर्त्तध्वम् यथा सूर्य्यस्य न पर्वता न नद्यो वरन्त तथा वो युष्मान् केऽपि रोद्धुं न शक्नुवन्ति ॥७॥

    पदार्थः

    (न) निषेधे (पर्वताः) मेघाः (न) (नद्यः) (वरन्त) वारयन्ति (वः) (यत्र) (अचिध्वम्) प्राप्नुत गच्छथ (मरुतः) मनुष्याः (गच्छथ) (इत्) एव (उ) (तत्) (उत) अपि (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (याथना) प्राप्नुत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (परि) सर्वतः (शुभम्) (याताम्) (अनु) (रथाः) (अवृत्सत) ॥७॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः पृथिव्यादिविद्यया सृष्टिक्रमतः कार्य्याणि साधयेयुस्तान् दारिद्र्यं कदाचिन्नाप्नुयात् ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) मनुष्यो ! आप लोग (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि को (गच्छथ, इत्) प्राप्त ही हूजिये (तत्) उनको (उ) और भी (परि, याथना) सब ओर से प्राप्त हूजिये (उत) और (यत्र) जहाँ (अचिध्वम्) प्राप्त हूजिये और जैसे (शुभम्) कल्याण को (याताम्) प्राप्त होते हुओं के (रथाः) वाहन (अनु, अवृत्सत) पश्चात् वर्त्तमान हैं, यहाँ वर्त्तमान हूजिये और जैसे सूर्य्य के सम्बन्ध को (न)(पर्वताः) मेघ (न)(नद्यः) नदियाँ (वरन्त) वारण करती हैं, वैसे (वः) आप लोगों को कोई भी रोक नहीं सकते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य पृथिवी आदि की विद्या से तथा सृष्टि के क्रम से कार्य्यों को सिद्ध करें, उनको दारिद्र्य कभी प्राप्त नहीं होवे ॥७॥

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    विषय

    मरुतों,वीरों का वर्णन उनके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( मरुतः ) विद्वान् वीर पुरुषो ! आप लोग ( यत्र ) जहां (अचिध्वं ) पूजा सत्कार प्राप्त करो वा जहां तक जा सको, (तत्) उस स्थान तक ( गच्छथ इत् उ ) अवश्य जाओ ! ( वः ) आप लोगों को ( पर्वताः न वरन्त ) पहाड़ भी न रोक सकें और ( न नद्यः वरन्त ) न नदियें रोक सकें, ये आपके मार्ग में बाधक न हों। ( उत ) और आप लोग ( द्यावा पृथिवी ) आकाश और भूमि दोनों स्थानों पर (परि याथन ) परिभ्रमण करो । ( शुभं याताम् ) उत्तम रीति से जाने वाले आप लोगों के ( रथाः अनु अवृत्सत ) रथ यान विमान आदि अनुकूल रूप से चला करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः । मरुतो देवताः ॥ छन्द:-१, ५ जगती । २, ४, ७, ८ निचृज्जगती । ९ विराड् जगती । ३ स्वराट् त्रिष्टुप । ६, १० निचृत् त्रिष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'अप्रतिहत गतिवाले' सैनिक

    पदार्थ

    [१] हे (मरुतः) = सैनिको ! (न पर्वताः) = न तो पर्वत (न नद्यः) = नां ही नदियाँ (वः) = तुम्हें (वरन्त) = रोक पाती हैं (यत्र) = जहाँ (अचिध्वम्) [जानीथ संकल्पयथ सा० ] = जानते हो, चाहते हो (तत्) = उस स्थान को (गच्छथ इत् उ) = जाते ही हो । इन वीर सैनिकों को उनकी वीरयात्रा में कोई भी रुकावट रोक नहीं पाती। [२] हे मरुतो ! तुम तो (उत) = निश्चय से द्यावापृथिवी (परियाथन) = द्युलोक व पृथिवीलोक में चारों ओर गतिवाले होते हो । सर्वत्र तुम्हारी पहुँच होती है और (शुभं याताम्) = शुभ धर्म्य मार्ग पर गति करते हुए आपके (रथाः) = रथ (अनु अवृत्सत) = अनुकूल वर्तनवाले होते हैं। आपके रथ आपको (यथेष्ट) = स्थान पर पहुँचानेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- धर्म्ययुद्ध में आगे बढ़ते हुए वीर सैनिकों को नदियाँ व पहाड़ भी रोक नहीं पाते। सब विघ्नों को जीतकर इनके रथ आगे ही बढ़ते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे पृथ्वी विद्या व सृष्टिक्रमानुसार कार्य करतात. ती कधी दरिद्री होत नाहीत. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, heroes of the earth and skies, no mountains, nor clouds, nor rivers in flood any way obstruct your course wherever you travel, nor do they disturb the place you reach. Indeed, your course is all over the earth and skies and unto the regions of light across the spaces. Let the chariots roll on with leading lights of the earth and space for the well being of life on earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The ideal life is further narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O thoughtful and mighty men ! go to the sky and the earth and above. As the vehicles accompany the persons treading upon the path of righteousness. So go wherever you like. As neither the clouds nor the rivers can keep back or restrain the sun, so none can restrain you from discharging your duties.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who have the knowledge of the earth and other elements, and the order in the creation of accomplished workers can not suffer from poverty or shortage.

    Foot Notes

    (पर्वताः) मेघाः । पर्वत इति मेघनाम (NG 1, 10 ) । = Clouds. (अचिध्वम् ) प्राप्नुत, गच्छय । अचि-गतौ (भ्वा० ) = Go or get.

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