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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 55/ मन्त्र 6
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    यदश्वा॑न्धू॒र्षु पृष॑ती॒रयु॑ग्ध्वं हिर॒ण्यया॒न्प्रत्यत्काँ॒ अमु॑ग्ध्वम्। विश्वा॒ इत्स्पृधो॑ मरुतो॒ व्य॑स्यथ॒ शुभं॑ या॒तामनु॒ रथा॑ अवृत्सत ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अश्वा॑न् । धूः॒ऽसु । पृष॑तीः । अयु॑ग्ध्वम् । हि॒र॒ण्यया॑न् । प्रति॑ । अत्का॑न् । अमु॑ग्ध्वम् । विश्वाः॑ । इत् । स्पृधः॑ । म॒रु॒तः॒ । वि । अ॒स्य॒थ॒ । शुभ॑म् । या॒ताम् । अनु॑ । रथाः॑ । अ॒वृ॒त्स॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदश्वान्धूर्षु पृषतीरयुग्ध्वं हिरण्ययान्प्रत्यत्काँ अमुग्ध्वम्। विश्वा इत्स्पृधो मरुतो व्यस्यथ शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। अश्वान्। धूःऽसु। पृषतीः। अयुग्ध्वम्। हिरण्ययान्। प्रति। अत्कान्। अमुग्ध्वम्। विश्वाः। इत्। स्पृधः। मरुतः। वि। अस्यथ। शुभम्। याताम्। अनु। रथाः। अवृत्सत ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 55; मन्त्र » 6
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मरुतो ! यथा शुभं यातां रथा अन्ववृत्सत तथा धूर्षु यद्धिरण्ययान् प्रत्यत्कान् पृषतीरश्वान् यूयमयुग्ध्वममुग्ध्वम्। तैर्विश्वाः स्पृध इद् व्यस्यथ ॥६॥

    पदार्थः

    (यत्) यान् (अश्वान्) अग्न्यादीन् (धूर्षु) विमानादियानावयवकोष्ठेषु (पृषतीः) वायुजलगतीः (अयुग्ध्वम्) संयोजयत (हिरण्ययान्) ज्योतिर्मयान् (प्रति) (अत्कान्) व्यक्तान् (अमुग्ध्वम्) मुञ्चत (विश्वाः) समग्राः (इत्) एव (स्पृधः) याः स्पर्ध्यन्ते ताः सङ्ग्रामा वा (मरुतः) वायुवद्वेगबलयुक्ताः (वि) विशेषेण (अस्यथ) प्रचालयत (शुभम्) (याताम्) (अनु) (रथाः) (अवृत्सत) ॥६॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या अग्निवायुजलादीन् यानेषु सम्प्रयुञ्जते ते विजयाय प्रभवो भूत्वा धर्म्यमार्गमनुगा जायन्ते ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) वायु के सदृश वेग और बल से युक्त जनो ! जैसे (शुभम्) कल्याण को (याताम्) प्राप्त होते हुओं के (रथाः) वाहन (अनु, अवृत्सत) अनुकूल वर्त्तमान हैं, वैसे (धूर्षु) विमान आदि यानों के अवयव कोष्ठों में (यत्) जिन (हिरण्ययान्) ज्योतिर्मय (प्रति, अत्कान्) स्पष्ट (पृषतीः) वायु और जल के गमनों और (अश्वान्) अग्नि आदिकों को आप लोग (अयुग्ध्वम्) संयुक्त कीजिये और (अमुग्ध्वम्) त्यागिये, उनसे (विश्वाः) सम्पूर्ण (स्पृधः) स्पर्धायें, रोष (इत्) ही (वि) विशेष करके (अस्यथ) चलाइये ॥६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अग्नि, वायु और जल आदिकों को वाहनों में उत्तम प्रकार युक्त करते हैं, वे विजय के लिये समर्थ होकर धर्मसम्बन्धी मार्ग के अनुगामी होते हैं ॥६॥

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    विषय

    मरुतों,वीरों का वर्णन उनके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०- ( यत् ) जब आप लोग हे ( मरुतः ) वीर पुरुषो ! (धूर्षु) रथों को धारण करने वाले धुरों में ( अश्वान् ) शीघ्रगामी अश्वों एवं ( पृषतीः ) शस्त्रवर्षणशील सेनाओं की ( अयुग्ध्वम् ) योजना करो और (हिरण्ययान् अत्कान् ) सुवर्ण वा लोह आदि धातु के बने कवचों को ( प्रति अमुग्ध्वम् ) धारण करो और तुम ( विश्वाः इत् स्पृधः ) समस्त स्पर्धाशील शत्रुओं को ( वि अस्यथ ) विशेष रूप से उखाड़ डालो ! ( शुभं याताम् रथाः अनु अवृत्सत ) सन्मार्ग पर शोभा पूर्वक जाने वालों के रथ निरन्तर उन्नति की और बढ़ें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः । मरुतो देवताः ॥ छन्द:-१, ५ जगती । २, ४, ७, ८ निचृज्जगती । ९ विराड् जगती । ३ स्वराट् त्रिष्टुप । ६, १० निचृत् त्रिष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    हिरण्यय कवचधारी सैनिक

    पदार्थ

    [१] (यद्) = जब (पृषती:) [ to hurt, injure] = शत्रुओं का संहार करनेवाले (अश्वान्) = अश्वों को (धूर्षु) = रथ धुराओं में (अयुग्ध्वम्) = जोतते हो। और (हिरण्ययान्) = हितरमणीय अथवा (स्वर्णवत्) = देदीप्यमान (अत्कान्) = कवचों को प्रत्यमुग्ध्वम् धारण करते हो, तो उस समय मरुतः = वीर सैनिको! तुम विश्वाः इत् = सब ही स्पृधः = संग्रामों को [नि० २।१७] व्यस्यथ परे फेंकते हो, सब संग्रामकारी शत्रुओं को विनष्ट करनेवाले होते हो। [२] शुभम् = शुभ धर्म्ययुद्ध की ओर याताम्= -जाते हुए आपके रथाः = रथ अनु अवृत्सत-अनुकूल वर्तनवाले हों । ये रथ संग्राम विजय में आपके सहायक हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे सैनिक घोड़ों को रथों में जोते हुए तथा कवचों को धारण किये हुए सदा धर्म्ययुद्ध के लिये तैयार हों ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे अग्नी, वायू, जल इत्यादींना वाहनात उत्तम प्रकारे वापरतात ती विजय मिळविण्यास समर्थ बनून धर्ममार्गाचे अनुगामी होतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, windy travellers of the skies, when you use liquid fuel and air for motive power in the front part of your chariot, put on your protective golden suit and release the energy drop by drop and spark by spark, you leave behind all the contestants on the journey. Let the chariots roll on with the travellers of space for a noble cause for a noble destination.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The ideal life of a person is described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O person ! you are mighty like the.. winds. As the vehicles like the aircrafts accompany those who tread upon the path of righteousness, same way harness fire and other elements which are bright and manifest in the chambers of air vehicles like aeroplanes and combine the movements of air and water with that, so as to conquer all battles, and overcome all adversaries.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who use fire, air and water etc, in various vehicles, become capable to achieve victory and follow the path of Dharma.

    Foot Notes

    (पुषतीः) वायुजलगती । वैश्वदेवी हि पुषता ( काठक संहितायाम् 12, 2) सर्व देवेभ्यो हिता वायुजलगतयोग्ताभिप्रेताः । पृषु -सेचने (भ्वा० ) । – The movements of the air and water. (अत्कन् ) व्यक्तान् । = Manifest. (स्पृधः ) या: स्पर्धयन्ते ताः सङ्ग्रामा [वा | = Adversaries of battles.

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