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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 55/ मन्त्र 8
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यत्पू॒र्व्यं म॑रुतो॒ यच्च॒ नूत॑नं॒ यदु॒द्यते॑ वसवो॒ यच्च॑ श॒स्यते॑। विश्व॑स्य॒ तस्य॑ भवथा॒ नवे॑दसः॒ शुभं॑ या॒तामनु॒ रथा॑ अवृत्सत ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । पू॒र्व्यम् । म॒रु॒तः॒ । यत् । च॒ । नूत॑नम् । यत् । उ॒द्यते॑ । व॒स॒वः॒ । यत् । च॒ । श॒स्यते॑ । विश्व॑स्य । तस्य॑ । भ॒व॒थ॒ । नवे॑दसः । शुभ॑म् । या॒ताम् । अनु॑ । रथाः॑ । अ॒वृ॒त्स॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्पूर्व्यं मरुतो यच्च नूतनं यदुद्यते वसवो यच्च शस्यते। विश्वस्य तस्य भवथा नवेदसः शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। पूर्व्यम्। मरुतः। यत्। च। नूतनम्। यत्। उद्यते। वसवः। यत्। च। शस्यते। विश्वस्य। तस्य। भवथ। नवेदसः। शुभम्। याताम्। अनु। रथाः। अवृत्सत ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 55; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे वसवो नवेदसो मरुतो ! यत्पूर्व्यं यन्नूतनं यच्चोद्यते यच्च शस्यते तस्य विश्वस्य तथा रक्षितारो भवथा। यथा शुभं यातां रथा अन्ववृत्सत ॥८॥

    पदार्थः

    (यत्) (पूर्व्यम्) पूर्वैर्विद्वद्भिर्निष्पादितम् (मरुतः) मनुष्याः (यत्) (च) (नूतनम्) नवीनम् (यत्) (उद्यते) कथ्यते (वसवः) वासकर्त्तारः (यत्) (च) (शस्यते) स्तूयते (विश्वस्य) समग्रस्य संसारस्य (तस्य) (भवथा) (नवेदसः) न विद्यते वेदो वित्तं येषान्ते (शुभम्) (याताम्) (अनु) (रथाः) (अवृत्सत) ॥८॥

    भावार्थः

    ये शिक्षया विद्यादण्डेन जगद्रक्षन्ति त एव प्रशंसिता भूत्वा कल्याणमुपगच्छन्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वसवः) वास करानेवाले ! (नवेदसः) नहीं विद्यमान धन जिनके वे (मरुतः) मनुष्यो ! (यत्) जो (पूर्व्यम्) प्राचीन विद्वानों से निष्पन्न किया हुआ (यत्) जो (नूतनम्) नवीन (यत्, च) जो (उद्यते) कहा जाता है (यत्, च) और जो (शस्यते) स्तुत किया जाता है (तस्य) उस (विश्वस्य) सम्पूर्ण संसार की वैसे रक्षा करनेवाले (भवथा) हूजिये जैसे (शुभम्) कल्याण को (याताम्) प्राप्त होते हुओं के (रथाः) वाहन (अनु, अवृत्सत) वर्त्तमान होते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    जो शिक्षा और विद्या के दण्ड से संसार की रक्षा करते हैं, वे ही प्रशंसित होकर कल्याण को प्राप्त होते हैं ॥८॥

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    विषय

    मरुतों,वीरों का वर्णन उनके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( वसवः) राष्ट्र में रहने हारे प्रजा जनो एवं गृहस्थ में जाने हारे विद्वानो ! हे आचार्य के अधीन बसने वाले विद्यार्थी जनो । एवं प्रजाओं के राष्ट्र में बसने हारे वीर पुरुषो ! हे (मरुतः) बलवान् पुरुषो ! ( यत् पूर्व्यम् ) जो पूर्व के विद्वानों और पुरुषों से अभ्यस्त ज्ञान औ संचित धन है, (यत् च नूतनं ) जो नया, प्राप्त ज्ञान वा धन है और (यत्उच्यते ) जिसका उपदेश किया जाता है, (यत् शस्यते ) जो अन्य विद्वानों द्वारा शास्त्र रूप में अनुशासन किया जाता है, हे ( न वेदसः ) न जानने और न प्राप्त करने हारे धनहीन और ज्ञानहीन पुरुषो ! आप लोग (तस्य विश्वस्य ) उस सब ज्ञान वा धन के स्वामी ( भवथ ) होवो । (शुभं याताम् ) शुभ उद्देश्य को लक्ष्य करके जाने वाले पूर्व के सब पुरुषों के पीछे २ आप लोगों के ( रथाः ) रथवत् शरीर और आत्मा ( अनु अवृत्सत ) अनुगमन करें । वा, आप लोग सुप्रसन्न होकर रथों के तुल्य पूर्वो के बनाये मार्ग से चला करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः । मरुतो देवताः ॥ छन्द:-१, ५ जगती । २, ४, ७, ८ निचृज्जगती । ९ विराड् जगती । ३ स्वराट् त्रिष्टुप । ६, १० निचृत् त्रिष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    शरीरस्थ प्राण तथा ज्ञान प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे (मरुतः) = प्राणो! (यत् पूर्व्यम्) = जो ज्ञान सृष्टि के पूर्व में, प्रारम्भ में दिया जानेवाला है अथवा जो पालन व पूरण करने में उत्तम है। (यत् च नूतनम्) = और जो ज्ञान सदा नवीन है, कभी जीर्ण नहीं होता 'देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति' । (यत् उद्यते) = जो हृदयस्थ प्रभु से उच्चरित होता है 'तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्तात् शुक्रमुच्चरत्' । (यत् च शस्यते) = जिस ज्ञान का देवों के लिये शंसन किया जाता है। (विश्वस्य तस्य) = उस सब सत्य विद्याओं के (अवगाहन) = करनेवाले ज्ञान के आप (नवेदसः) = ज्ञाता प्रवथा होते हो। उस ज्ञान को ये प्राण ही हमें प्राप्त कराते हैं। प्राणसाधना से शरीर में सोमशक्ति की ऊर्ध्वगति होती है, यह सोमशक्ति ज्ञानाग्नि का ईंधन बनती है। इस प्रकार तीव्र बुद्धि से हमें वेदार्थ का स्पष्टीकरण होता है । [२] हे प्राणो! (शुभं याताम्) = शुभ ज्ञान की ओर गति करते हुए आपके (रथा:) = ये शरीर रथ (अनु अवृत्सत) = अनुकूल वर्तनवाले हों। शरीर भी स्वस्थ हो, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास हुआ करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना के द्वारा हम तीव्र बुद्धि बनकर प्रभु से दिये जानेवाले ज्ञान को प्राप्त करें और इस ज्ञान प्राप्ति में स्वस्थ शरीर हमारे लिये सहायक हो ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे शिक्षण व विद्या दंडाने (व्यवस्थेने) जगाचे रक्षण करतात. त्यांची प्रशंसा होते व कल्याणही होते. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, leading lights of the world and havens of life and comfort, whatever is old, and whatever is new, and whatever is spoken, admired and adored : of all that be cognizant and aware in the full. Let the chariots roll on with leading lights of knowledge and life’s joy for the good of humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The form and acts of ideal men are described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O dwellers in good virtues! not possessing much old wealth accomplished by the ancient scholars or be it new, (modern. Ed.), be that wealth of spoken words or be it praised, you be the protector of this whole world as the vehicles accompany those, who tread upon the path of righteousness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who protect the world by giving good education, are admired everywhere and attain true happiness or welfare.

    Foot Notes

    (नवेदसः) न विद्यते वेदो वित्त येषान्ते । वेद इति धननाम (NG 2, 10 )। = Those who do not possess much wealth. (वसवः वासकर्त्तारः । वस निवासे (भ्वा० ) | नवेदा इति मेघाविनाम (NG 3, 15 ) = Dwellers (in good virtues).

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