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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 56/ मन्त्र 2
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यथा॑ चि॒न्मन्य॑से हृ॒दा तदिन्मे॑ जग्मुरा॒शसः॑। ये ते॒ नेदि॑ष्ठं॒ हव॑नान्या॒गम॒न्तान्व॑र्ध भीमसं॑दृशः ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । चि॒त् । मन्य॑से । हृ॒दा । तत् । इत् । मे॒ । ज॒ग्मुः॒ । आ॒ऽशसः॑ । ये । ते॒ । नेदि॑ष्ठम् । हव॑नानि । आ॒ऽगम॑न् । तान् । व॒र्ध॒ । भी॒मऽस॑न्दृशः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा चिन्मन्यसे हृदा तदिन्मे जग्मुराशसः। ये ते नेदिष्ठं हवनान्यागमन्तान्वर्ध भीमसंदृशः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा। चित्। मन्यसे। हृदा। तत्। इत्। मे। जग्मुः। आऽशसः। ये। ते। नेदिष्ठम्। हवनानि। आऽगमन्। तान्। वर्ध। भीमऽसंदृशः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 56; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्य ! ये ते नेदिष्ठमाशसो जग्मुस्ताँस्त्वं वर्ध। यथा चित् त्वं हृदा मे तन्मन्यसे तथा हवनान्यागमन्। भीमसन्दृश इज्जग्मुः ॥२॥

    पदार्थः

    (यथा) येन प्रकारेण (चित्) अपि (मन्यसे) (हृदा) हृदयेन (तत्) (इत्) एव (मे) मह्यम् (जग्मुः) प्राप्नुवन्ति (आशसः) ये आशंसन्ति ते (ये) (ते) तुभ्यम् (नेदिष्ठम्) अतिशयेनान्तिकम् (हवनानि) दातुं ग्रहीतुं योग्यानि वस्तूनि (आगमन्) आगच्छन्तु (तान्) (वर्ध) वर्धय (भीमसन्दृशः) भीमं भयङ्करं सन् दृग्दर्शनं येषान्ते ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । मनुष्याः परस्परस्योपकारेण सुखिनो भवन्तु ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य ! (ये) जो (ते) आपके लिये (नेदिष्ठम्) अत्यन्त सामीप्य को (आशसः) कहनेवाले (जग्मुः) प्राप्त होते हैं (तान्) उनकी आप (वर्ध) वृद्धि करिये और (यथा, चित्) जिसी प्रकार से आप (हृदा) हृदय से (मे) मेरे लिये (तत्) उसको (मन्यसे) मानते हो, उस प्रकार (हवनानि) देने-लेने योग्य वस्तुयें (आगमन्) प्राप्त होवें और (भीमसन्दृशः) भयङ्कर दर्शन जिनका वे (इत्) ही प्राप्त होते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । मनुष्य लोग परस्पर के उपकार से सुखी हों ॥२॥

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    विषय

    उनको उत्साहित करना ।

    भावार्थ

    भा०-हे (अग्ने) अग्रणी नायक पुरुष ! तू ( हृदा ) अन्तःकरण से ( यथा चित् मन्यसे ) जैसे भी उत्तम जाने ( तत् इत् ) वे ही ( आशसः) उत्तम स्तुति योग्य, अधिकार पद पर रहकर शासन करने वाले वा ( मे आशसः ) मेरे अधीन रहकर शासन करने वाले, और मुझे चाहने वाले हैं वे (मे जग्मुः) मुझे प्राप्त हों । और हे नायक ! नेतः (ये) जो ( ते नेदिष्ठं ) तेरे अति समीप ( हवनानि ) देने योग्य कर आदि, और लेने योग्य वेतनादि ( आ गमन् ) प्राप्त कराते और लेते हैं ( तानू ) उन (भीम-सं-दृशः ) भयंकर रूप से दीखने वाले, विशाल आकार के प्रचण्ड पुरुषों को भी (वर्ध) बढ़ा, प्रोत्साहित कर और पद की वृद्धि कर । राजा अपने अधीन, नायकों द्वारा उत्तम, शासकों और प्रचण्ड सैनिकों को रक्खे, उन्हें वेतन दे, उनसे करादि संग्रह करे और शासन करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, २, ५ निचृद् बृहती ४ विराड्बृहती । ८, ९ बृहती । ३ विराट् पंक्तिः । ६, ७ निचृत्पंक्ति: ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'भीमसंदृशः' मरुतः

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि हे प्रगतिशील जीव ! (यथा) = जिस प्रकार (चित्) = निश्चय से (हृदा) = हृदय से (मन्यसे) = तू इन प्राणों का मनन करता है, (तद् सो इत्) = निश्चय से ये (मे) = मेरे (आशस:) = शत्रुओं का हिंसन करनेवाला प्राण (जग्मुः) = तेरे शरीर में गतिवाले होते हैं। जितना जितना इन प्राणों के महत्त्व को हम समझते हैं उतना उतना ही इनकी साधना में प्रवृत्त होते हैं। [२] हे जीव ! (ये) = जो प्राण (ते हवनानि) = तेरी पुकारों के (नेदिष्ठम्) = अत्यन्त समीप (आगमन्) = प्राप्त होते हैं, (तान्) = उन (भीमसन्दृशः) = शत्रुओं के लिये अतिभयंकर दर्शनवाले प्राणों को (वर्ध) = तू बढ़ा। जब हम इन प्राणों की साधना करेंगे, तो ये हमें समीपता से प्राप्त होंगे। हमारे समीप होते हुए ये हमारे शत्रुओं के लिये अतिभयंकर होंगे। ये प्राण रोगों को भी दूर भगाते हैं, वासनाओं को भी ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हृदयों में प्राणों के महत्त्व का मनन करें। प्राणसाधना से इन्हें अपना मित्र बनाएँ जिससे ये हमारे शत्रुओं का संहार करनेवाले हों ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी परस्पर उपकार करून सुखी व्हावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    As you believe at heart that they are such and honour them sincerely, so they would instantly come closest to you and to your expectations in response to your call. Then encourage and promote them, they are just pictures of terror for the enemies.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The men's duties are defined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O thoughtful person ! as you think in your heart, my wishes also have gone to the same direction. These objects worthy of give and take, come as desired, (to our satisfaction. Ed.), strengthen or encourage these mighty persons who are terrible to behold.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should enjoy happiness by doing good to one another.

    Foot Notes

    (नेदिष्ठम् ) अतिशयेनान्तिकम् । नेदीयः अन्तिकतमम् इति निरुक्ते (5, 4, 29 ) नेदीय एव नेदिष्ठम् । = Nearest. (हवनानि ) यद् ग्रहीतुं योग्यानि वस्तूनि । हु-दानादनयोः आदाने च (जुहो० ) । = Articles worth giving and taking.

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