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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 56/ मन्त्र 4
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    नि ये रि॒णन्त्योज॑सा॒ वृथा॒ गावो॒ न दु॒र्धुरः॑। अश्मा॑नं चित्स्व॒र्यं१॒॑ पर्व॑तं गि॒रिं प्र च्या॑वयन्ति॒ याम॑भिः ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । ये । रि॒णन्ति॑ । ओज॑सा । वृथा॑ । गावः॑ । न । दुः॒ऽधुरः॑ । अश्मा॑नम् । चि॒त् । स्व॒र्य॑म् । पर्व॑तम् । गि॒रिम् । प्र । च्य॒व॒य॒न्ति॒ । याम॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि ये रिणन्त्योजसा वृथा गावो न दुर्धुरः। अश्मानं चित्स्वर्यं१ पर्वतं गिरिं प्र च्यावयन्ति यामभिः ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि। ये। रिणन्ति। ओजसा। वृथा। गावः। न। दुःऽधुरः। अश्मानम्। चित्। स्वर्यम्। पर्वतम्। गिरिम्। प्र। च्यावयन्ति। यामऽभिः ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 56; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    ये मनुष्या ओजसा नि रिणन्ति ये चिदपि यामभिः स्वर्यं पर्वतं गिरिमश्मानं दुर्धुरो न प्र च्यावयन्ति वृथा गावो न भवन्ति ते सर्वैः सत्कर्त्तव्या भवन्ति ॥४॥

    पदार्थः

    (नि) (ये) (रिणन्ति) प्राप्नुवन्ति गच्छन्ति वा (ओजसा) पराक्रमेण (वृथा) (गावः) (न) इव (दुर्धुरः) दुर्गता धुरो येषान्ते (अश्मानम्) मेघम् (चित्) अपि (स्वर्यम्) स्वरेषु शब्देषु साधुम् (पर्वतम्) पर्वतमिवोच्छ्रितं (गिरिम्) यो गृणाति शब्दयति तम् (प्र) (च्यावयन्ति) निपातयन्ति (यामभिः) प्रहरैः ॥४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा सूर्यकिरणाः मेघमधः पातयन्ति तथा विद्वांसो दोषन्निपातयन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (ये) जो मनुष्य (ओजसा) पराक्रम से (नि, रिणन्ति) प्राप्त होते हैं (चित्) और जो (यामभिः) प्रहरों से (स्वर्यम्) शब्दों में श्रेष्ठ (पर्वतम्) पर्वत के सदृश ऊँचे (गिरिम्) शब्द करानेवाले (अश्मानम्) मेघ को (दुर्धुरः) दूरगत हैं धुरा जिनकी उनके (न) समान (प्र, च्यावयन्ति) गिराते हैं और (वृथा) व्यर्थ निज अर्थ के विना (गावः) गौओं के सदृश होते हैं, वे सब से सत्कार करने योग्य होते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य की किरणें मेघ को नीचे गिराती हैं, वैसे विद्वान् लोग दोषों को दूर करते हैं ॥४॥

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    विषय

    वीरों का वर्णन ।

    भावार्थ

    भा०- ( ये ) जो वीर पुरुष ( गावः न ) अश्वों या बैलों के समान ( दुर्धरः ) कठिनता से वश आने वाले, प्रचण्ड होकर ( ओजसा ) पराक्रम से ( वृथा ) अनायास ही ( नि रिणन्ति ) शत्रुओं को नाश करते हैं । वे ( यामभिः ) अपने प्रयाणों, या चढ़ाइयों द्वारा ( स्वर्यं अश्मानं ) गर्जते मेघ के समान और (पर्वतं) पर्वत के समान अचल, उन्नत (गिरिम् ) अपने राष्ट्र को निगलने वाले या गर्जते शत्रु को भी ( प्र च्यावयन्ति ) अस्थिर कर देते हैं। अथवा -( स्वर्यं चित् अश्मानं ) शब्दकारी, और संतापकारी 'अश्म', विद्युत् वा वज्र के समान ही ( गिरिं पर्वतं ) मेघ और पर्वतवत् गर्जते, एवं पालन करने वाले अपने राजा को भी (प्र च्यावयन्ति ) उत्तम रीति से चलाते उत्तम पद को पहुंचाते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, २, ५ निचृद् बृहती ४ विराड्बृहती । ८, ९ बृहती । ३ विराट् पंक्तिः । ६, ७ निचृत्पंक्ति: ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'रोगों व अविद्या' का विनाश

    पदार्थ

    [१] (वे) = जो प्राण (ओजसा) = अपनी शक्ति के द्वारा (वृथा) = अनायास ही (निरिणन्ति) = शत्रुओं को हिंसित कर डालते हैं, वे (गावः न) = महावृषभों की तरह (दुर्धरः) = बड़ी कठिनता से हिंसित करने योग्य हैं [धुर्व् हिंसायाम्] । प्राणों के साथ रोगकृमिरूप शत्रु टक्कर लेने पर नष्ट ही हो जाते हैं। [२] ये प्राण केवल रोगकृमिरूप शत्रुओं को ही नष्ट करें ऐसी बात नहीं, ये (अश्मानं चित्) = पत्थर के समान दृढ़ अथवा [अश् व्याप्तौ] सर्वत्र व्याप्तिवाले, (स्वर्यम्) = [स्वृ उपतापे] संतापों के कारणभूत पर्वतम् पाँच पर्वोंवाले [अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष, अभिनिवेश] (गिरिम्) = अविद्या पर्वत को (चित्) = भी (यामनि:) = अपने गमनों से (प्रच्यावयन्ति) = प्रच्युत करते हैं। प्राणसाधना से अशुद्धि क्षय होकर इस अविद्या पर्वत का विनाश होता है और ज्ञानदीप्ति होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्राणसाधना से शरीरस्थ रोग तथा अविद्या का विनाश होता है ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी सूर्यकिरणे मेघांना खाली पाडतात तसे विद्वान लोक दोष नष्ट करतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Maruts are those heroes who rush forth with their valour and splendour, throw off the yoke like untamable bulls and scatter the enemy forces, and with their advances shake up resounding mountains and break up thundering clouds.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Something about the duties and attributes of the enlightened persons is told again.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those men are to be honoured by all who move by dint of their own strength, who are free from yoke, who make the thundering mountain like cloud to shake off and fall down on earth in time. They are not like useless speeches.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as the rays of the sun make the cloud fall down, so the enlightened persons make the faults and fall down, thereafter remove them.

    Foot Notes

    (रिणन्ति ) प्राप्तुवन्ति गच्छन्ति वा । रि-गतौ (तुदा० ) = Obtain or go. (स्वर्यम्) स्वेरषु शब्देषु साधुम् । स्व-शब्दोपतापयोः (भ्वा० ) (अत्र शब्दार्थकः) । गौरिति वाङ्नाम (NG 1, 11 ) = Thundering.

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