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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 58/ मन्त्र 2
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वे॒षं ग॒णं त॒वसं॒ खादि॑हस्तं॒ धुनि॑व्रतं मा॒यिनं॒ दाति॑वारम्। म॒यो॒भुवो॒ ये अमि॑ता महि॒त्वा वन्द॑स्व विप्र तुवि॒राध॑सो॒ नॄन् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे॒षम् । ग॒णम् । त॒वस॑म् । खादि॑ऽहस्तम् । धुनि॑ऽव्रतम् । मा॒यिन॑म् । दाति॑ऽवारम् । म॒यः॒ऽभुवः॑ । ये । अमि॑ताः । म॒हि॒ऽत्वा । वन्द॑स्व । वि॒प्र॒ । तु॒वि॒ऽराध॑सः । नॄन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वेषं गणं तवसं खादिहस्तं धुनिव्रतं मायिनं दातिवारम्। मयोभुवो ये अमिता महित्वा वन्दस्व विप्र तुविराधसो नॄन् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वेषम्। गणम्। तवसम्। खादिऽहस्तम्। धुनिऽव्रतम्। मायिनम्। दातिऽवारम्। मयःऽभुवः। ये। अमिताः। महिऽत्वा। वन्दस्व। विप्र। तुविऽराधसः। नॄन् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 58; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विप्र ! त्वं त्वेषं तवसं खादिहस्तं धुनिव्रतं मायिनं दातिवारं वीराणां गणं वन्दस्व। ये महित्वाऽमिता मयोभुवः स्युस्ताँस्तुविराधसो नॄन् वन्दस्व ॥२॥

    पदार्थः

    (त्वेषम्) दीप्तिमन्तम् (गणम्) गणनीयम् (तवसम्) बलवन्तम् (खादिहस्तम्) खादि हस्तयोर्यस्य तम् (धुनिव्रतम्) धुनिः कम्पनमिव व्रतं शीलं यस्य तम् (मायिनम्) प्रशस्ता माया प्रज्ञा विद्यते यस्य तम् (दातिवारिम्) यो दातिं दानं वृणोति तम् (मयोभुवः) सुखं भावुकाः (ये) (अमिताः) अतुलशुभगुणाः (महित्वा) महत्त्वं प्राप्य (वन्दस्व) (विप्र) मेधाविन् (तुविराधसः) बहुधनवतः (नॄन्) मनुष्यान् ॥२॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्योग्यानां धार्मिकाणां विदुषामेव सत्कारः कर्त्तव्यो यतः सुखं वर्त्तेत ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (विप्र) बुद्धिमन् ! आप (त्वेषम्) प्रकाशित (तवसम्) बलवान् (खादिहस्तम्) खाद्य हाथों में जिसके (धुनिव्रतम्) कंपन के सदृश स्वभाव जिसका वा (मायिनम्) उत्तम बुद्धि जिसकी उस (दातिवारम्) दान के स्वीकार करनेवाले वीरों के (गणम्) गणन करने योग्य की (वन्दस्व) वन्दना करिये और (ये) जो (महित्वा) महत्त्व को प्राप्त होकर (अमिताः) अतुल शुभ गुणवाले (मयोभुवः) सुख को करानेवाले हों उन (तुविराधसः) बहुत धनवाले (नॄन्) मनुष्यों की वन्दना कीजिये ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि योग्य धार्मिक विद्वानों का ही सत्कार करें, जिससे सुख बढ़े ॥२॥

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    विषय

    उत्तम नायक ।

    भावार्थ

    भा०-हे (विप्र ) राष्ट्र को विविध ऐश्वर्यों से पूर्ण करने हारे राजन् विद्वन् ! मेधाविन् ! तू ( त्वेषं) दीप्तिमान्, ( तवसं ) बलवान्, (खादिहस्तं ) हाथों में कटक आदि आभूषण तथा वज्र, तलवार आदि लिये, सशस्त्र, (धुनि-व्रतं ) शत्रु को कंपाने का कार्य करने वाले, अथवा जल प्रवाह के समान एक समान रूप से जाने वाले, (मायिनम्) उत्तम बुद्धियों से सम्पन्न, ( दातिवारम् ) दान, को प्रेम और श्रद्धा से स्वीकार करने वाले, ( गणं ) गण्य, मान्य पुरुषों को ( वन्दस्व ) अभिवादन कर और उनके गुणों की प्रशंसा किया कर । और ( ये ) जो लोग राष्ट्र में ( मयोभुवः ) सुख शान्ति उत्पन्न करने हारे ( महित्वा ) महान् सामर्थ्य से ( अमिताः ) अनन्त पराक्रम और ज्ञान से सम्पन्न हों उनको और जो (तुवि-राधसः नॄन् ) बहुत अराधना करने वाले या बहुत ऐश्वर्य वाले नायक पुरुष हों उनको भी ( वन्दस्व ) आदर पूर्वक नमस्कार कर वेद ने मानवों में आदरणीय सभी गुणों को दर्शाने वाले नाना विशेषण दर्शाएं हैं, उन नाना गुणों से युक्त नाना प्रकार के पुरुषों का मान आदर करना चाहिये ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ३, ४, ६, ८ निचृत्-त्रिष्टुप । २, ५ त्रिष्टुप् । ७ भुरिक् पंक्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    धुनिव्रत-खादिहस्त

    पदार्थ

    [१] हे (विप्रः) = ज्ञानी पुरुष ! तू इस (गणम्) = शासकवर्ग का (वन्दस्व) = स्तवन कर, इनकी प्रशंसा के द्वारा इन्हें प्रेरणा देनेवाला हो। जो शासकगण (त्वेषम्) = तेजस्विता से दीप्त है, (तवसम्) = शक्तिशाली है, (खादिहस्तम्) = हाथों में शत्रुओं के विनाशक वज्र को लिये हुए है, (धुनिव्रतम्) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाले कर्मोंवाला है, (मायिनम्) = प्रज्ञावान् है, तथा दातिवारम् प्रजाओं के लिये वरणीय वस्तुओं के देनेवाला है। 'त्वेषं' आदि विशेषणों से शासकवर्ग के कर्त्तव्यों का प्रतिपादन हुआ है। उन्हें अपने जीवनों में 'त्वेषं' आदि विशेषयों को चरितार्थ करने का प्रयत्न करना चाहिये । [२] (ये) = जो शासक (मयोभुवः) = प्रजाओं के कल्याण का भावन करनेवाले हैं, (महित्वा) = अपनी महिमा से (अमिताः) = सीमित व संकुचित नहीं हैं, विशाल महिमावाले हैं। उन (तुविराधसः) = खूब ही कार्यों को सिद्ध करनेवाले (नॄन्) = नेताओं को [वन्दस्व] = उचित आदर प्राप्त कराओ। वस्तुतः शासकों का मूल कर्त्तव्य प्रजाओं का कल्याण ही है। ये शासक महान् कार्यों को सिद्ध करनेवाले होते हैं। इनका आदर करना ही चाहिए ।

    भावार्थ

    भावार्थ- शासक लोग तेजस्वी, शत्रुविनाशक व प्रजाओं का कल्याण करनेवाले हों।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी योग्य अशा धार्मिक विद्वानांचा सत्कार केल्यास सुख वाढते. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O sagely scholar, admire and exalt that group of leading lights, brave, generous and dexterous of hand, enthusiastically committed to noble causes, wondrous workers abundantly charitable, who are versatile achievers without reserve or bounds by virtue of their own innate strength and expertise and who are a tremendous source of peace and prosperity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wise men ! praise the band of heroes who are glorious, powerful and having some edibles in their hands, whose vow is to shake or overcome their enemies. They are endowed with good intellect or wisdom, liberal in giving donations," beneficent by their greatness and possessors of infinite good virtues. Admire these men of great wealth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should honour only able righteous and enlightened persons so that happiness may increase.

    Translator's Notes

    Though Prof. Maxmullar has always put the storm Gods in bracket after that Maruts, even his own translation given below proves expressly that the Maruts are not the Strom Gods as supposed by him and others, but heroic and victorious men as the use of the word नुन् shows without the least shadow of doubt. "The tunible company, the powerful, adorned with gifts on their hands, given to roaring, potent, dispensing treasurers, they who are beneficent infinite in greatness, prays. O poet! these men ] of great wealth". (The Vedic Hymns Vol, I by Prof. Maxmuller Page 343). Mark तुविराधस: नुन् These men of great wealth. That is exactly the position of Maharshi Dayananda Sarasvati who has rightly translated नॄन् used in the mantra as नृन् - Men, धञ्-कम्पने (स्वा० ) ।

    Foot Notes

    (धुनिव्रतम) धुनिः कभ्पनामिव व्रतं शीलं येषान्ते ।।= Whose vow or habit it is to shake or overcome their enemies. (मायिनम्) प्रशस्ता माया प्रज्ञा विद्यते यस्य तम् । मायेति प्रज्ञानाम (NG 3, 9) = Endowed with good intellect or wisdom. (तुविराधसः) बहुधनवतः । राध इति धनानाम (NG 2, 10) = Very wealthy.

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