ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 58/ मन्त्र 6
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यत्प्राया॑सिष्ट॒ पृष॑तीभि॒रश्वै॑र्वीळुप॒विभि॑र्मरुतो॒ रथे॑भिः। क्षोद॑न्त॒ आपो॑ रिण॒ते वना॒न्यवो॒स्रियो॑ वृष॒भः क्र॑न्दतु॒ द्यौः ॥६॥
स्वर सहित पद पाठयत् । प्र । अया॑सिष्ट । पृष॑तीभिः । अश्वैः॑ । वी॒ळु॒प॒विऽभिः॑ । म॒रु॒तः॒ । रथे॑भिः । क्षोद॑न्ते । आपः॑ । रि॒ण॒ते । वना॑नि । अव॑ । उ॒स्रियः॑ । वृ॒ष॒भः । क्र॒न्द॒तु॒ । द्यौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्प्रायासिष्ट पृषतीभिरश्वैर्वीळुपविभिर्मरुतो रथेभिः। क्षोदन्त आपो रिणते वनान्यवोस्रियो वृषभः क्रन्दतु द्यौः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठयत्। प्र। अयासिष्ट। पृषतीभिः। अश्वैः। वीळुपविऽभिः। मरुतः। रथेभिः। क्षोदन्ते। आपः। रिणते। वनानि। अव। उस्रियः। वृषभः। क्रन्दतु। द्यौः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 58; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मरुतो ! भवन्तः पृषतीभिरश्वै रथेभिर्यद्वीळुपविभिः क्षोदन्ते यथाऽऽपो वनानि रिणते तथैवोस्रियो वृषभो द्यौर्वनान्यव क्रन्दतु इष्टं प्रायासिष्ट ॥६॥
पदार्थः
(यत्) (प्र) (अयासिष्ट) यातु (पृषतीभिः) वेगादिभिः (अश्वैः) आशुगामिभिः (वीळुपविभिः) दृढचक्रैः (मरुतः) विद्वांसो मनुष्याः (रथेभिः) विमानादियानैः (क्षोदन्ते) क्षरन्ति वर्षन्ति (आपः) जलानि (रिणते) गच्छन्ति (वनानि) किरणान् (अव) (उस्रियः) उस्रासु किरणेषु भवः (वृषभः) वर्षको मेघः (क्रन्दतु) आह्वयतु (द्यौः) कामयमानः ॥६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यदि यूयं वायुवत्सद्योगमनं जलवत्तृप्तिकरणं कुर्य्यात तर्हि सर्वणि सुखानि प्राप्नुयात ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मरुतः) विद्वान् मनुष्यो ! आप लोग (पृषतीभिः) वेग आदिकों और (अश्वैः) शीघ्र चलनेवाले (रथेभिः) विमान आदि वाहनों से (यत्) जो (वीळुपविभिः) दृढ़ चक्रों से (क्षोदन्ते) वृष्टि करते हैं और जैसे (आपः) जल (वनानि) किरणों को (रिणते) प्राप्त होते हैं, वैसे ही (उस्रियः) किरणों में उत्पन्न (वृषभः) वर्षानेवाला मेघ (द्यौः) कामना करता हुआ किरणों का (अव, क्रन्दतु) आह्वान करे और इष्ट को (प्र, अयासिष्ट) अत्यन्त प्राप्त हों ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जो आप लोग वायु के सदृश शीघ्र गमन और जल के सदृश तृप्ति करने रूप कार्य को करें तो सम्पूर्ण सुखों को प्राप्त हों ॥६॥
विषय
वर्षते मेघों की तुल्यता से वर्णन ।
भावार्थ
भा०- ( मरुतः पृपतीभिः ) वायु गण जिस प्रकार जल सेचन करने वाली मेघ-घटाओं से और ( वीढु-पविभिः ) बलवान् वज्राघातों से प्रहार करते हैं, तब ( आपः क्षोदन्ते ) जल बून्द २ में फट २ कर आते हैं और ( वनानि रिणते ) वृक्ष-वनों को आघात करते हैं और ( उस्त्रियः वृषभः ) किरणों का स्वामी वर्षणशील ( द्यौः ) सूर्य और ( उस्त्रियः ) पृथिवी का हितैषी मेघ रूप से गर्जता है । उसी प्रकार हे ( मरुतः ) वीर विद्वान पुरुषो ! (यत्) जब आप लोग ( पृषतीभिः ) शत्रु पर शरवर्षण करने वाली सैन्य घटाओं और मद सेचन करने वाली गज घटाओं तथा (अश्वैः ) वेगवान् अश्वों से और (वीडु-पविभिः ) दृढ़ चक्र धार वाले (रथेभिः ) रथों से ( प्रायासिष्ट ) प्रयाण करते और तुम्हारा नेता भी उक्त साधनों सहित प्रयाण करता है, तब ( आपः ) आप्त, प्रजा गण ( क्षोदन्ते ) धनैश्वर्यादि से बरसते हैं, और ( वनानि रिणते ) सैन्य जन और ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं और ( उस्त्रियः ) भूमि का हितैषी, वा किरणों से तेजस्वी, ( द्यौः ) सूर्य के समान प्रकाशमान वीर पुरुष (अव क्रन्दतु) गर्जना करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ३, ४, ६, ८ निचृत्-त्रिष्टुप । २, ५ त्रिष्टुप् । ७ भुरिक् पंक्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
वीरों की रणयात्रा
पदार्थ
[१] हे (मरुतः) = वीर सैनिको! (यत्) = जब आप (पृषतीभिः) = अपने अन्दर शक्ति का सेवन करनेवाले शक्तिशाली (अश्वैः) = घोड़ों से तथा (वीडुपविभिः) = दृढ़ रथनेमियोंवाले (रथेभिः) रथों से (प्रायासिष्ट) = शत्रु पर आक्रमण के लिये गतिवाले होते हो तो (आप:) = नदियों के जल (क्षोदन्ते) = क्षुब्ध हो उठते हैं, (वनानि रिणते) = वन हिंसित हो जाते हैं और यह (उस्त्रियः) = सूर्य-किरणों से रोशन (वृषभः) = वर्षा को करनेवाला (द्यौः) = द्युलोक (अवक्रन्दतु) = मानो रो उठता है, अर्थात् सारा जगत् ही भयभीत-सा हो जाता है। सब में भय से हलचल हो उठती है। [२] वीर क्षत्रिय अपने शक्तिशाली घोड़ों व दृढ़ रथों से जब रण- यात्रा प्रारम्भ करते हैं तो सारे संसार को हिला-सा देते हैं। उनको नदियाँ व वन रोक नहीं पाते, चमकती हुई धूप व बरसता हुआ आकाश उनको रोकनेवाला नहीं होता। सब विघ्न-बाधाओं को दूर करते हुए वे आगे बढ़ते हैं और विजयी होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- वीर क्षत्रियों के मार्ग में नदियाँ, वन, धूप व वर्षा कोई भी रुकावट नहीं बन पाता ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! तुम्ही वायुप्रमाणे तात्काळ गमन व जलाप्रमाणे तृप्ती करण्याचे कार्य केले तर संपूर्ण सुख प्राप्त होईल. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
By their motive forces and chariots equipped with strong wheels of initiative and advancement, the Maruts proceed with showers of new life as leaders and pioneers of a new age, and as they proceed, the dormant vapours of life agitate with new ferment and join the rays of the sun, the cloud roars with thunder and lightning and the earth receives the showers of new life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The merits of the teachings of the entitled persons are continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned men ! when you come with your quick-going, speedy and strong wheeled vehicles like the aircrafts etc., you shower joy on all. As the rain water goes to or mingles with the rays of the sun, in the same manner, let the cloud born out of the rays roar down resulting in the welfare of all (so to speak). May your noble desire be fulfilled ?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you can attain all happiness, if you learn to go quickly to distant places like the winds and satisfy all like the water.
Foot Notes
(वीलुपविभिः) दुढचक्रै: । वीलु इति बलनाम् (NG 2, 9) पविरिति वज्रनाम (NG 2, 20 ) अथवा पविरिति पदनाम (NG 4, 2) गत्यर्थंमादाचक्राकैः। = With strong wheels. (उस्रियः) उस्रासु किरणेषु भवः उस्त्र । इति रश्मिनाम (NG 1, 5 ) = Born from the rays of the sun. (वृषभः) वर्ष को मेधः । = The cloud that rains. (पुषतीभिः ) वेगादिभिः । = Speedy.
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