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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 58/ मन्त्र 7
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्रथि॑ष्ट॒ याम॑न्पृथि॒वी चि॑देषां॒ भर्ते॑व॒ गर्भं॒ स्वमिच्छवो॑ धुः। वाता॒न्ह्यश्वा॑न्धु॒र्या॑युयु॒ज्रे व॒र्षँ स्वेदं॑ चक्रिरे रु॒द्रिया॑सः ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रथि॑ष्ट । याम॑न् । पृ॒थि॒वी । चि॒त् । ए॒षा॒म् । भर्ता॑ऽइव । गर्भ॑म् । स्वम् । इत् । शवः॑ । धुः । वाता॑न् । हि । अश्वा॑न् । धु॒रि । आ॒ऽयु॒यु॒ज्रे । व॒र्षम् । स्वेद॑म् । च॒क्रि॒रे॒ । रु॒द्रिया॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रथिष्ट यामन्पृथिवी चिदेषां भर्तेव गर्भं स्वमिच्छवो धुः। वातान्ह्यश्वान्धुर्यायुयुज्रे वर्षँ स्वेदं चक्रिरे रुद्रियासः ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रथिष्ट। यामन्। पृथिवी। चित्। एषाम्। भर्ताऽइव। गर्भम्। स्वम्। इत्। शवः। धुः। वातान्। हि। अश्वान्। धुरि। आऽयुयुज्रे। वर्षम्। स्वेदम्। चक्रिरे। रुद्रियासः ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 58; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथैषां मध्ये पृथिवी यामन् गर्भं भर्त्तेव प्रथिष्ट तथा भवन्तः स्वं शव इद् धुरि धुरश्वान् वातानायुयुज्रे चिदपि रुद्रियासः सन्त स्वेदमिव हि वर्षं चक्रिरे ॥७॥

    पदार्थः

    (प्रथिष्ट) प्रथते (यामन्) यामनि (पृथिवी) भूमिः (चित्) अपि (एषाम्) (भर्त्तेव) (गर्भम्) (स्वम्) (इत्) (शवः) गमनम् (धुः) दधति (वातान्) वायून् (हि) यतः (अश्वान्) सद्योगामिनः (धुरि) यानमध्ये (आयुयुज्रे) समन्तात् युञ्जते (वर्षम्) (स्वेदम्) प्रस्वेदमिव (चक्रिरे) (रुद्रियासः) रुद्रेषु दुष्टरोदयितृषु कुशलाः ॥७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये मनुष्याः पृथिवीवत् क्षमाशीला विस्तीर्णविद्या यानेषु वायूनश्वान् संयोज्य वर्षानिमित्तान् निर्माय कार्याणि साध्नुवन्ति ते सर्वं सुखं कर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (एषाम्) इनके मध्य में (पृथिवी) भूमि (यामन्) प्रहर में (गर्भम्) गर्भ को (भर्त्तेव) स्वामी के सदृश (प्रथिष्ट) प्रकट करती है, वैसे आप लोग (स्वम्) सुख और (शवः) गमन को (इत्) ही (धुरि) वाहन के मध्य में (धुः) धारण करते और (अश्वान्) शीघ्र चलनेवाले (वातान्) पवनों को (आयुयुज्रे) सब ओर से युक्त करते और (चित्) भी (रुद्रियासः) दुष्टों के रुलानेवालों में चतुर हुए (स्वेदम्) पसीने के सदृश (हि) निश्चय (वर्षम्) वृष्टि को (चक्रिरे) करते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो मनुष्य पृथिवी के सदृश क्षमाशील और विस्तीर्ण विद्यावाले वाहनों के पवन रूप घोड़ों को संयुक्त करके और वृष्टि के कारणों का निर्माण करके कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वे सम्पूर्ण सुख कर सकते हैं ॥७॥

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    विषय

    वायुवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०- ( एषां यामन् पृथिवी प्रथिष्ट ) वायुओं के चलने पर जिस प्रकार पृथिवी भी अति विस्तृत क्षेत्र है उसी प्रकार (एषां यामन् ) इन वीर पुरुषों के शासन और प्रयाण करने के काल में ( पृथिवी ) यह भूमि (प्रथिष्ट ) अति विस्तृत और प्रसिद्ध हो । ( भर्त्ता यथा स्वं शवः दधाति ) स्त्री का पति जिस प्रकार अपने वीर्य को गर्भ रूप से धारण कराता है उस प्रकार वायु गण भी ( स्वं शवः ) अपने जल रूप (गर्भं) गृहीत अंश को अन्तरिक्ष में धारण कराते हैं उसी प्रकार वीर पुरुष भी ( भर्त्ता इव ) अपने पालक राजा के समान ही ( गर्भम् ) ग्रहण करने योग्य ( स्वम् इत् शवः ) अपने धन और बल को (धुः ) धारण करे जिस प्रकर (धुर्याः ) धारक वायु गण ( वातान् युयुजे ) वायु के झकोरों का लगाते हैं उसी प्रकार ( धुर्याः ) सैन्यों और राष्ट्र के धारण करने में समर्थ, कुशल पुरुष (वातान् अश्वान् ) वायुवत् तीव्रगामी अश्वों को ( युयुज्रे ) रथ में जोड़े । और ( रुद्रियासः ) दुष्टों को रुलाने वाले वे वीरजन (वर्ष) वर्षा के तुल्य ही प्रस्वेद को ( स्वेदं चक्रिरे ) उत्पन्न करें अर्थात् श्रमपूर्वक धनोपार्जन और विजय करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ३, ४, ६, ८ निचृत्-त्रिष्टुप । २, ५ त्रिष्टुप् । ७ भुरिक् पंक्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    वर्षं स्वेदं चक्रिरे रुद्रियासः

    पदार्थ

    [१] (एषाम्) = इन मरुतों की (यामन्) = गति के होने पर (पृथिवी चित्) = यह पृथिवी भी प्रथिष्ट फैल जाती है, अर्थात् इनको यह पृथिवी खुला मार्ग देनेवाली होती है । (इव) = जैसे भर्तापति (गर्भम्) = गर्भ को धारण करता है, अपनी पत्नी में गर्भ की स्थापना करता है, उसी प्रकार ये वीर सैनिक (इत्) = निश्चय से (स्वं शव:) = अपने बल का (धुः) = इस पृथिवी में स्थापन करते हैं। इनकी गति से सम्पूर्ण देश ओजस्वी हो उठता है। [२] ये सैनिक (वातान्) = वायुसमवेगवाले (अश्वान्) = घोड़ों को (हि) = निश्चय से (धुरि) = रथधुरा में (आयुयुज्रे) = जोतते हैं और ये (रुद्रियासः) = शत्रुओं को रुलानेवाले [रोदयन्ति] वीर सैनिक (वर्षम्) = सम्पूर्ण देश को (स्वेदं चक्रिरे) = श्रमजनित पसीने से तरबतर कर देते हैं। इन वीर सैनिकों के कार्यों से उत्साहित होकर सारा देश श्रमशील हो उठता है, वह मातृभूमि के लिये पसीना बहाने को तैयार हो जाता है। इसके विपरीत सैनिक ही कायर होकर भागने लगें तो प्रजा में भी अकारण भय का संचार हो जाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वीर क्षत्रियों की वीरतापूर्ण गति देश को ओजस्वी बनाती है और इसके विपरीत इनकी कायरता लोगों में अकारण-भय का संचार करनेवाली होती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे पृथ्वीप्रमाणे क्षमाशील असून विस्तीर्ण विद्यारूपी वाहनाला पवनरूपी घोडे संयुक्त करतात व वृष्टीचे कारण निर्माण करून कार्य सिद्ध करतात ते संपूर्ण सुखी करू शकतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    As the Maruts proceed, the earth waxes with desire and fertility. Like the husband man, the Maruts shower their own vitality on earth as the seed of new life. Thus do the Maruts, forces of new life, generative and enlightened, commanding power and judgement, yoke new winds and motive forces to the chariot of life and move the wheels of history forward with the shower of their own sweat of the brow.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes and duties of the enlightened person are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as the earth which sustains the generative power in proper time, as a wife preserves the semen received from her husband, in the same manner, you use your own strength and employ the winds like the horses, harnessed to the yoke. The brave men who are experts in making the wicked weep, shower happiness and joy from the sweat of their brow while doing labour they change their sweat into rains (work hard, Ed. so to speak.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men can attain all happiness, who are of forbearing nature like the earth, and who being great scholars or scientists apply various gases in their vehicles, and also cause them rains and accomplish their purposes.

    Foot Notes

    (शव:) गमनम् । शवर्तिगति कर्मा (NG 2, 14) शव इति बलनाम (NG 2, 9) =) = Movement. (रुद्रियास:) रुद्रेषु दुष्टरोदयितुषु कुशला:। रुदिर् अश्रु विमोचने (तु०)। = Experts in causing the wicked.

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